सदस्य वार्ता:संदेश महल

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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 07:33, 27 फ़रवरी 2021 (UTC)उत्तर दें

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महन्त जगन्नाथ बक्स दास[संपादित करें]

स्वतंत्रता आंदोलन में महती भूमिका निभाने वाले यशस्वी संत,महंत जगन्नाथ वख्स दास जी एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। आपका जन्म सावन पूर्णिमा (31 अगस्त 1910 ईसवी) को हुआ था।आपके पिता का नाम साहब जगदीश बक्स दास एवं माता का नाम श्रीमती मोहनी देवी था।16 वर्ष की आयु में आप की धर्मपत्नी का निधन हो गया। आप विधुर का ही सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया।

स्वतंत्रता आंदोलन में महती भूमिका निभाने वाले यशस्वी संत,महंत जगन्नाथ वख्स दास जी एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। आपका जन्म सावन पूर्णिमा (31 अगस्त 1910 ईसवी) को हुआ था।आपके पिता का नाम साहब जगदीश बक्स दास एवं माता का नाम श्रीमती मोहनी देवी था।16 वर्ष की आयु में आप की धर्मपत्नी का निधन हो गया। आप विधुर का ही सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया।

नामकरण के संबंध में किंवदंती प्रचलित है कि आपके पिता ने एक बार जगन्नाथ स्वामी से एक पुत्र की प्रार्थना की थी और संकल्प लिया था के पुत्र रत्न प्राप्ति के बाद उसका नाम भगवान जगन्नाथ के ही नाम पर रखेंगे।पुत्र रत्न प्राप्ति के बाद आपका नाम जगन्नाथ बक्स दास रखा गया।आप की प्रारंभिक शिक्षा आपके घर पर ही हुई जिसमें उर्दू अरबी फारसी पढ़ाई गई, हिंदी आपकी मातृभाषा थी। राजधानी लखनऊ के काल्विन तालुकेदार इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात आपने लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विषय से एम ए की डिग्री प्राप्त किया। जब आप हाई स्कूल उत्तीर्ण नहीं हुए थे तभी आप साबरमती आश्रम जाकर गांधी जी से मुलाकात किया। इस अल्प आयु में गांधी जी के द्वारा चलाए जा रहे हरिजनों उद्धार के बारे में अनेक प्रश्न पूछ डाले। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आपके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और जब आपने अपने लिए काम पूछा, तो बापू ने कहा कि अपने निकट हरिजनों को तरजीह दे। महंत जी ने बापू के इस कथन को अपने जीवन में साक्षर उतार लिया। आपने जीवनपर्यंत राष्ट्र की सेवा का संकल्प ले लिया। आप सदैव के लिए खादी वस्त्र पहनने लगे।

सन 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण छः मास कारावास का दंड मिला मिला और एक हजार रुपए जुर्माना की सजा मिली।

सन1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान नजरबंद रहे। जिला कांग्रेस कमेटी के उप सभापति और सभा पति के साथ साथ जिला बोर्ड के आजन्म अध्यक्ष रहे। प्रदेशीय कांग्रेस कमेटी व अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य तथा जिला परिषद के अध्यक्ष रहे। आप हजारों प्राइमरी विद्यालय एवं जूनियर हाईस्कूल विद्यालय भी खुलवाएं। कई कमेटियां बनाकर माध्यमिक स्तर के भी विद्यालय खुलवाए, एवं हजारों  की संख्या में विद्यालयों में शिक्षकों को अध्यापन कार्य करने हेतु नियुक्त किया। अपने प्रिय नेता जवाहरलाल नेहरू प्रथम प्रधानमंत्री भारत के निधन के उपरांत आपने जनपद बाराबंकी मुख्यालय पर जवाहरलाल नेहरू स्नातक महाविद्यालय के रूप में स्थापना कराई।

31 दिसंबर सन 1975 में मुंबई अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गए थे। वही पर आपने अपने जीवन की अंतिम सांस ली। मृत्युपरांत आपको वायुयान से दिल्ली लखनऊ होते हुए श्री कोटवा धाम लाया गया, जहां आपकी भव्य समाधि का निर्माण हुआ। महंत जगन्नाथ बक्स दास जी ने रामेश्वरम के दर्शन पश्चात अपनी डायरी में लिखा है।

''रामेश्वर महादेव के दर्शन नीके कीन्ह,

सबै मनोरथ सुफल भै आशीष शंकर दीन्ह''

सन 1930 की एक घटना

सन 1930 की एक घटना है। महंत जगन्नाथ बक्स दास जी लखनऊ जा रहे थे। नवयुवक जगन्नाथ बख्श दास के सिर पर गांधी टोपी व उनकी फोर्ड कार के बोनट पर चरखायुक्त तिरंगा लहरा रहा था। लखनऊ मार्ग पर सफेदाबाद रेलवे क्रासिंग का फाटक बंद था। उसी समय नवाबगंज सदर तहसील का सब डिवीजन मजिस्ट्रेट आ पहुंचा। उसने महंत जी से टोपी और कार से तिरंगा उतारने को कहा। उन्होंने दोनों ही बातों पर इन्कार कर दिया। गोरा हुकूमत का अफसर नुमाइंद सदर एसडीएम नाराज हुआ। उन्हें नजरबंद करने का फरमान जारी कर दिया।

*1952 में राजनीतिक दौर महंत जगन्नाथ बख्श दास*

सन 1952 में जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर पहली बार महंत जगन्नाथ बख्श दास विराजमान हुए।यह राज 23 वर्षों तक चला। 1975 तक इस कुर्सी पर महंत जी का ही कब्जा रहा लेकिन 1975 से 1989 तक जिलाधिकारी ने बतौर प्रशासक के रूप में कार्य किया।

*सतनाम संप्रदाय और संत जगजीवन दास*

सतनाम संप्रदाय के आदि प्रवर्तक समर्थ स्वामी जगजीवन साहेब के आठवीं पीढ़ी में जन्मे संत शिक्षाविद एवं राजनेता महंत जगन्नाथ बख्श दास जी थे। आप संपूर्ण जीवन सत्यमय व्यतीत किया।


*जगजीवन जग आय कय,सत्यनाम की आस

कोटवा कोटिन तीरथ है,जगजीवन के पास*

सत्यनामी पंथ के प्रवर्तक स्वामी जगजीवन दास का जन्म बाराबंकी जिले के सरदहा गांव में लगभग 1670 ईसवी में पिता गंगाराम एवं माता कमला देवी के घर हुआ था। जगजीवन दास जी के गुरु श्री विश्वेशरपुरी जी थे,जो गोंडा जिले के गुरसड़ी के रहने वाले थे।

*विश्वेसरपुरी गुरु गुरसड़ी,तहां समाधि स्थान।

मते मंत्र मोह दीन्ह उन्ह, लाग्यो अंतर ध्यान।*

जगजीवन साहब गृहस्थ संत थे। इनकी पत्नी मोतिन कुंवरि बाराबंकी जिले के गाजीपुर गांव की थीं। जगजीवन साहब सरदहा से बाराबंकी के कोटिक वन में अखंड साधना की। यहीं पर इनकी समाधि भी है। कोटिक वन को कोटवा धाम के रूप में प्रतिष्ठा है। सत्यनाम पंथ के माध्यम से जगजीवन साहब ने नाम सुमिरन को बल देते हुए अपनी वाणी के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। इनके प्रमुख चार शिष्य जिन्हें पावा व वजीर कहते हैं। 14 गद्दीधर शिष्य,36 पंथ प्रचारक एवं उपदेशक महंत तथा 33 सुमिरनकर्ता शिष्य थे। इस प्रकार जगजीवन साहब के 87 शिष्यों का संगठन अस्तित्व में आया। स्वामी जी की शब्द वाणी को उनके शिष्यों ने तत्कालीन प्रचलित भाषा लिपि में ग्रंथ रूप प्रदान किया, जिनकी संख्या 18 है। इनमें अघ विनाश,शब्द सागर,शब्द लीला,दोहावली,परम ग्रंथ, मनपूरन, ज्ञान प्रगास, महाप्रलै,बुद्धि,वृद्धि, दिढ़ ज्ञान, विवेक ज्ञान व उग्र ज्ञान. चरन बंदगी व शरन बंदगी, विवेक मंत्र व अघोर मंत्र, सन्यास योग, स्तुति महावीर जी की, बारहमासा,ककहरा नामा, छन्द विनती हैं। सिद्ध संत परमहंस राममंगल दास की पुस्तक ‘भक्त भगवंत चरितावली एवं चरितामृत’ में कहा गया है कि संत जगजीवन दास के घराने में 164 सिद्ध संत हुए।

लेखक-जयप्रकाश रावत संपादक "संदेश महल" पता बिबियापुर पोस्ट रूहेरा सूरतगंज जिला बाराबंकी उत्तर प्रदेश-225304

2409:4089:AE11:654C:0:0:7A4B:940E (वार्ता) 10:10, 4 नवम्बर 2023 (UTC)उत्तर दें

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित उमाशंकर मिश्र[संपादित करें]

भारत को स्वतंत्र भारत बनाने का सफर आसान नहीं था। स्वतंत्रता के लिए सेनानियों ने अपने साहस शौर्य वीरता का परिचय देते हुए फिरंगियों के छक्के छुड़ाने में कोई कोरी कसर नहीं छोड़ी। देश की आज़ादी के लिए इनके योगदान के मूल्य कभी चुकाया नहीं जा सकता है।आज हम आजाद भूमि में स्वतंत्र हैं, गुलामी की जंजीरों से मुक्त है,जिसका श्रेय इन स्वतंत्रता आंदोलन के वीर सपूतों को जाता है। जिन्होनें अपने घर परिवार की परवाह न करते हुए आंदोलन की दहकती ज्वाला में कूद पड़े। और आजादी के आखिरी पड़ाव तक संघर्ष किया। ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम भारत की आज़ादी के लिए स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। यूं तो आजादी के लिए पूरे भारत वर्ष के लोगो का योगदान रहा। किंतु आज ऐसे एक शख्शियत के जीवन से जुड़े कुछ पहलुओं का परिचय हैं। जिसका संबंध उत्तर प्रदेश के जनपद बाराबंकी की माटी से जुड़ा है। इसी माटी में जन्मे और धूलधूसरित हुए उमाशंकर मिश्र उर्फ काका जी का जीवन परिचय अपने आप में एक इतिहास है। जो सबसे पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फिर विधायक उसके बाद महंत बने हैं?

पंडित उमाशंकर मिश्र का जन्म बाराबंकी के विकास खण्ड सिद्धौर के ग्राम शेषपुर दामोदर गांव में 14 जनवरी 1910 को हुआ था।

आप महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और विचारों से प्रभावित होकर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। सन् 1941 में अंग्रेजी हुकूमत ने व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण एक वर्ष का कठोर कारावास व 100 रुपये अर्थदंड की सजा को  दिया था। 9 अगस्त सन् 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन में 14 माह का कठोर कारावास की सजा काटी। आजादी दिलाने के लिए आपने पूरी निष्ठा व इमानदारी से संघर्ष किया। इसी दौरान 24 माह तक कठोर कारावास की भी सजा को भुगतना पड़ा।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भेंट किया गया ताम्र पत्र परिजनों के पास सुरक्षित हैं।

सन् 1947 में देश आजाद होने के बाद सन् 1952 में जब उत्तर प्रदेश की पहली विधानसभा का गठन हुआ तो बाराबंकी जिले के 207 नवाबगंज दक्षिण एवं हैदरगढ़ व रामसनेही घाट विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से उमाशंकर मिश्र उर्फ काका जी ने चुनाव में भाग लिया और विधायक बन गए।आपका कार्यकाल सन् 1952 से सन् 1957 तक रहा था। हैदरगढ़ विधानसभा क्षेत्र से विधायक होने के दौरान उमाशंकर मिश्र उर्फ काका जी ने हैदरगढ़ रामसनेहीघाट के मार्ग पर नैपुरा गांव के पास गोमती नदी पर पुल का निर्माण करवाया था जो आज भी विकास का प्रतीक माना जा रहा है।

सन् 1958 में उमाशंकर मिश्र जी का मन राजनीति से भंग हुआ और आप चित्रकूट धाम को चले गए थे। वहां पर जनसेवा के कार्यों को देखते हुए आपको चित्रकूट धाम के कामदगिरि तीर्थ स्थल का महंत बना दिया गया था। महंत बनने के बाद आपका नाम उमाशंकर मिश्र से प्रेम पुजारी दास रखा गया था। आप पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, विधायक फिर महन्त बने। 21 अक्टूबर सन् 1994 को इस नश्वर संसार को त्याग कर आप पंचतत्व में विलीन हो गए।

लेखक - जयप्रकाश रावत संपादक "संदेश महल" पता - बिबियापुर पोस्ट रूहेरा सूरतगंज बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन- 225304 JAIPRAKASH RAWAT (वार्ता) 10:33, 4 नवम्बर 2023 (UTC)उत्तर दें

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राजा बल भद्र सिंह "चहलारी"[संपादित करें]

विद्रोह के इतिहास में बलभद्र सिंह और उनकी चहलारी रियासत का प्रमुख स्थान है। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ युद्ध में बलभद्र सिंह के अदम्य साहस की अंग्रेज सेनानापति ने भी प्रशंसा की और ब्रिटेन की महारानी ने अपने महल में उनका चित्र लगवाया। इसी से वे अवध ही नहीं पूरे देश में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ लड़ाई के नायक बन गये थे। उनके त्याग और बलिदान की गौरव गाथा आज भी अवध के जनजीवन में जीवंत है।

ओबरी युद्ध के नायक – राजा बलभद्र सिंह

राजा बलभद्र सिंह का जन्म 10 जून सन 1840 को बहराइच के चहलारी राज्य (वर्तमान बहराइच ज़िले के महसी क्षेत्र) में हुआ था। पिता का नाम राजा श्रीपाल सिंह और मां का नाम महारानी पंचरतन देवी था। चहलारी रियासत पर कश्मीर से आए रैकवार राजपूतों का शासन होता था। राजा श्रीपाल साधु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और अल्पायु में ही कुंवर बलभद्र का राज्याभिषेक कर राज्य कार्य से विरत हो जाना चाहते थे। लेकिन बलभद्र उन्हें समझा-बुझाकर उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते थे। अंततः बलभद्र सिंह किशोरावस्था में ही चहलारी के राजा बने। बाल्यकाल से ही निडर और पराक्रमी बलभद्र सिंह युद्ध कौशल में भी महारथी थे। उदारता और संवेदनशीलता के कारण ही राज्य की जनता पूरी तरह से शोषण मुक्त होकर सुख शांति से जीवन यापन कर रही थी। सेना में प्रत्येक जाति धर्म के बहादुर युवकों को भर्ती किया गया, जिसका नेतृत्व अमीर खां कर रहे थे। भिखारी रैदास जैसे बहादुर योद्धा भी सेना में ओहदेदार थे।

इतिहासकारों के अनुसार, भगवान राम के अनुज भरत के वंशज रैकवार क्षत्रियों का उद्भव स्थल जम्मू कश्मीर के कश्मीर घाटी के रैका गांव माना जाता है। राकादेव रायक रैकवार वंश के प्रथम पुरुष थे। 1414 ई. में रैकवार वंश के डूंडेशाह, प्रताप देव और भैरवानन्द नामक तीन भाई बाराबंकी के राम नगर कस्बे में आए। जहां भर राजा का शासन था। चाचा भैरवानन्द के बाद उनके भतीजे और प्रताप देव के पुत्र शालदेव व बालदेव ने अल्प समय में ही अपनी निष्ठा और ईमानदारी से राज्य को बुलंदी पर पहुंचा दिया। बाद में दोेनों बहादुर भाइयों ने राजा की हत्या कर सत्ता हथिया लिया। सन 1450 में बालदेव रामनगर रियासत के राजा हुए तो उन्होंने शालदेव को घाघरा नदी के उस पार बौंडी (बहराइच) रियासत का राजा बना दिया। शालदेव के बाद उनके पुत्र लखन देव और पौत्र धर्मदेव व प्रपौत्र हरिहर देव ने बौंडी पर राज किया। प्रतापी राजा हरिहर देव और कश्मीर में रैकवारों किए गए वीरतापूर्ण कार्य से प्रसन्न होकर तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर ने हरिहर देव बहराइच जिले के बहुत बड़े भूभाग को सौगात के रुप में दे दिया। यही नहीं परम प्रतापी हरिहर देव को बांसी जैसे अजेय राज्य पर विजय प्राप्त करने के लिए बादशाह जहांगीर ने पुरस्कार नौ परगनों का राज्य प्रदान किया। हरिहर देव के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र जितदेव राजा हुए तो कनिष्ठ पुत्र संग्राम सिंह के लिए हरिहर पुर के नाम से अलग रियासत की स्थापना की गई। जितदेव के ज्येष्ठ पुत्र परशुराम सिंह को बौंडी और दूसरे पुत्र गजपति सिंह को नई रियासत रेहुआ का शासन मिला। इन्हीं गजपति सिंह के पुत्र मानसिंह के छोटे पुत्र धर्मधीर सिंह ने 1630 ई. में चहलारी रियासत की स्थापना की। धर्मधीर के पुत्र हिम्मत सिंह के बड़े पुत्र मदन सिंह को बौंडी की रानी द्वारा गोद लेने के कारण छोटे पुत्र देवी सिंह राजा बने। उनके बाद पुत्र उदित सिंह, पौत्र पृथ्वी सिंह, प्रपौत्र रणजीत सिंह तथा बरियार सिंह ने राज्य का प्रबंध संभाला। बरियार के पुत्र पृथ्वीपाल सिंह के बाद श्रीपाल चहलारी के राजा हुए। राजा श्रीपाल के ज्येष्ठ पुत्र बलभद्र सिंह राजा हुए और 13 जून को अंग्रेज सेना से लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए और चहलारी राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी में मिला लिया गया।

चहलारी रियासत

रैकवार क्षत्रियों के शासनाधीन चहलारी रियासत घाघरा नदी के दोनों ओर दूर तक फैला था। इसके पास वर्तमान सीतापुर और बहराइच जिले का विस्तृत भूभाग था। चहलारी राज्य में तब सीतापुर के 87 और बहराइच के 33 गांव शामिल थे। क्षेत्र में घाघरा नदी के तटवर्ती इलाके में स्थित गोलोक कोंडर गोचरण क्षेत्र में पांच हजार साल पहले राजा विराट की गायों का निवास रहा। यहां की भव्य गढ़ी भवन के पास ही मनमोहक सुगंध बिखेरने वाला केंवड़े का वन था। इसी वन में राजा रणजीत सिंह द्वारा बनाए गए ठाकुरद्वारा में भगवान राम, माता जानकी और हनुमान समेत कई देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित कराई गईं थीं। आज भी विजय दशमी व अन्य त्यौहारों पर यहां उत्सव मनाया जाता है। गए़ी के मुख्य द्वार के दक्षिण देवी पीठ और बाएं शख फतुल्ला बाबा की मजार हाने के कारण यह स्थान हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए पूज्य था। राजा बरियार सिंह ने बरियार पुरवा बसाया जो अब रामपुर मथुरा ब्लाक में पड़ता है। उन्होंने पूर्वजों की स्मृति में दुन्दपुर, दरियाव पुरवा और हीरा सिंह पुरवा भी बसाया था।

क्रान्ति योद्धाओं की मंत्रणा

10 मई 1857 को मेरठ में क्रान्ति की ज्वाला प्रकट होने पर जहां अंग्रेजों ने भारी दमन चक्र प्रारंभ किया वहीं सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्वातन्त्र्य चेतना जाग्रत हुई। इस मुक्ति संग्राम को प्रारम्भिक दौर में आंशिक सफलता मिली। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध में बहराइच को मुख्यालय बनाकर विंग फील्ड कमिश्नर और कैप्टन बनबरी को डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किया था। इन दोनों ने सत्ता संभालते ही दमन चक्र चलाना शुरू कर दिया। तब अंग्रेजी शासन के खिलाफ बहराइच में बिगुल फूंका गया। इस महाक्रान्ति की अंतिम लड़ाइयां अवध की बेगम हजरत महल के नेतृत्व में लड़ी र्गइं। गजेटियर के अनुसार लखनऊ पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उनकी बेगम हजरत महल ने अपने शहजादे बिरजिस कद्र और मम्मू खां जैसे कुछ विश्वास पात्र सैनिकों के साथ लखनऊ से भागकर बहराइच में बौड़ी नरेश हरदत्त सिंह के किले में शरण ली। वहां उन्होंने 40 दिन बिताए और उसी को संघर्ष की रणनीति का केन्द्र बनाया। अवध की राजधानी लखनऊ को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए उन्होंने वहां अपने विश्वासपात्र राजाओं, जमींदारों तथा स्वाधीनता सेनानियों की बैठक बुलाकर सबको इस महासंग्राम में कूदने का आह्नान किया। बौंड़ी के किले में हुई बैठक में राजा हरिदत्त सिंह के साथ गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिंह, भिठौली (सीतापुर) के गुरु बख्श सिंह, रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह, रुइया (हरदोई) के राजा नरपति सिंह, फैजाबाद के विद्रोही मौलवी अहमद उल्ला, इकौना के राजा उदित प्रकाश सिंह, चरदा के राजा जगजोत सिंह, रेहुआ के राजा रघुनाथ सिंह, शाहगंज के राज मान सिंह, ईसानगर के राजा जांगड़ा, कमियार गोंडा के तालुकेदार शेर बहादुर सिंह और फीरोजशाह बेरुआ के गुलाब सिंह मौजूद रहे। भयारा (बाराबंकी) के जागीरदार यासीन अली किदवई के अलावा भिनगा, राम नगर, और पयागपुर के राजाओं ने भी बैठक में लिए गए निर्णय का स्वागत किया। सभी की उपस्थिति में मात्र 18 साल के आयु में पराक्रमी योद्धा चहलारी नरेश बलभद्र सिंह ने सेना के नेतृत्व का जिम्मा उठाया तो बेगम हजरत महल समेत सभी के आंखें नम हो गईं। बेगम ने अंगूठा चीरकर अपने रक्त से तिलक लगाया और 100 गांवों की जागीर देने की घोषणा करते हुए रानी कल्याणी देवी को उपहार स्वरुप अपना दिव्य हार प्रदान किया। मात्र कुछ दिन पहले ही बलभद्र और कल्याणी का विवाह की जानकारी मिली तो बेगम के आंखों में वात्सल्य के आंसू छलक आए।

ओबरी का अंतिम युद्ध

बलभद्र सिंह सेना के साथ प्रस्थान करने लगे तो उनकी पत्नी रानी कल्याणी ने उनके माथे पर रोली-अक्षत का टीका लगाया और अपने हाथ से कमर में तलवार और कलाई में रक्षासूत्र बांध कर विदा किया। राजमाता ने भी बेटे को आशीर्वाद देकर अन्तिम सांस तक अपने वंश और देश की मर्यादा की रक्षा करने को कहा। तयशुदा कार्यक्रम के तहत अंग्रेजी सेना से युद्ध के लिए निकली बेगम हजरत महल और दर्जनों देशभक्त राजाओं समेत 20 हजार सैनिकों की भारी भरकम सेना का पहला पड़ाव घाघरा के उस पार भयारा (बाराबंकी) में यासीन अली किदवई के गांव में हुआ। अगले दिन सेना नावाबगंज के जमुरिया नाले को पारकर रेठ नदी के पूरब ओबरी गांव के मैदान में युद्ध के लिए पहुंची। सेनापति जनरल होप ग्राण्ट के नेतृत्व में सुसज्जित अंग्रेजी सेना में मेजर हडसन, कर्नल डैली, विलियम रसेल, कालिन कैम्पवेल, हार्षफील्ड जैसे दक्ष सेना नायकों और सिख सेना के साथ नेपाल के जंग बहादुर राणा समेत उनके बड़ी संख्या में गोरखा सैनिक भी थे। अंग्रेज सेना में 10 हजार घुड़सवार, 15 हजार पैदल सेना के साथ भारी संख्या में इनफील्ड गनें और तोपखाना भी था। जबकि क्रान्तिकारी सेना के पास पुरानी तोपें और घिसे पिटे हथियार थे। मातृभूमि के इस महासमर में सर्वस्व न्यौछावर का जज्बा ही उनका मुख्य संबल था। 12 जून 1858 को युद्ध प्रारम्भ हुआ और 16 हजार सैनिकों के साथ बलभद्र सिंह ने फिरंगी सेना पर हमला कर दिया। अवध के जांबाज फुर्तीले सैनिकों और बलभद्र सिंह ने देखते ही देखते युद्ध के मैदान में लाशों का अंबार लगा दिया तो अंग्रेज सैनिकों में भगदड़ मच गई और सेनापति होप भाग गया।

पराजय से आहत होप ने बड़ी संख्या में तोपें और रायफलें मंगाई और 13 जून को पुनः युद्ध के लिए आ डटा। अंग्रेजी सेना के जबरदस्त तैयारियों को देखकर बेगम चिंतित हुईं और उन्होंने बलभद्र की कम उम्र को देखते हुए हुए उन्हें एक दिन विश्राम करने की सलाह देते हुए स्वयं नेतृत्व की इच्छा जताई। उन्होंने स्वयं को उनकी मां बताते हुए नववधू रानी के भविष्य का वास्ता दिया तो वीर बलभद्र ने ‘युद्ध में सेनापति का आदेश चलता है मां का नहीं‘ कहकर उन्हें निरुत्तर कर दिया। तब विवश होकर बेगम ने सुरक्षा कवच पहनाकर आर्शीवाद देकर विदा किया। सेना को तीन भागों में बांटकर ‘खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म सेनापति बलभद्र सिंह का‘ नारे के साथ क्रानितकारी सेना फिरंगियों पर टूट पड़ी। बलभद्र सिंह चीते की भांति फिरंगी सैनिकों को काट रहे थे। युद्ध क्षेत्र में लाशों का अंबार लग गया। लेकिन बलभद्र के काका वीर योद्धा हीरा सिंह मारे गए। राजा देवी बख्श सिंह की मार से कैम्पवेल, बलभद्र की तलवार से घायल हडसन और राना बेनी माधव के वार से रसेल का घोड़ा मरा तो रसेल भाग खड़ा हुआ। अंततः बलभद्र और सेनापति होपग्राण्ट आमने सामने आ गए। बलभद्र के वार से होपग्राण्ट का युनियन जैक कटकर गिर गया और वह बेहोश हो गया, किन्तु तभी तोप के गोले ने उनके हाथी को धराशायी कर दिया। महावत सुभान खां ने बच निकलने की सलाह दी तो बलभद्र ने फटकार लगाई और घोड़े पर बैठकर नरसंहार शुरु कर दिया। लेकिन भाग्य ने फिर धोखा दिया और गोला लगने से उनका घोड़ा भी चल बसा। तब बलभद्र पैदल ही दोनों हाथों में तलवार लेकर अंग्रेज सैनिकों का संहार करने लगे। इसी बीच होपग्राण्ट ने घोखे से पीछे से वार किया और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहा जाता है कि सिर कट जाने के बाद भी उनका शरीर खड़ा रहा और दोनों तलवारें लगातार वार कर रहीं थीं। इस दृश्य को देखकर होपग्राण्ट के भी होश उड़ गए। इसके बाद भी 800 क्रान्तिकारी सैनिक अंतिम सांस तक लड़े और मातृभूमिकी बलिबेदी पर न्यौछावर हो गए। इस युद्ध में चहलारी के प्रत्येक परिवार का लाल वीरगति को प्राप्त हुआ।

ओबरी युद्ध के अप्रतिम योद्धा बलभद्र के साहस और शौर्य की प्रशांसा करते हुए अंग्रेज सेनापति जनरल होपग्राण्ट ने ‘दि सिपाय वार इन इंडिया‘ शीर्षक से अपनी डायरी में लिखा कि ‘मैंने तमाम युद्ध और वीर योद्धाओं को देखा लेकिन बलभद्र सिंह जैसा शानदार सैनिक, जांबाज योद्धा और अनूठा सेनापति नहीं देखा। इस लम्बे चौड़े और निर्भीक योद्धा को मृत्यु का भय भी नहीं झुका सका।‘ ओबरी के युद्ध में नायक रहे राजा बलभद्र सिंह के करिश्माई वीरता का समाचार लंदन टाइम्स और न्यूयार्क टाइम्स में छपा तो वे दुनिया भर में चर्चित हुए। विद्वान लेखक परमेश्वर सिंह ने अपनी पुस्तक राजपूत में लिखा है कि इसी वीरता से प्रभावित होकर महारानी विक्टोरिया ने चहलारी नरेश बलभद्र सिंह का भव्य और दिव्य चित्र अपने राज महल बकिंघम पैलेस में सम्मान के साथ लगवाया। भारत के इतिहास में बलभद्र सिंह की कालजयी गौरवा गाथा स्वर्णाक्षरों में सदैव अंकित रहेगी।

बाराबंकी

1878 के आसपास नवाबगंज परगना का क्षेत्रफल 79 वर्ग मील था और यह उत्तर में रामनगर और फतेहपुर, पूर्व में दरियाबाद, पश्चिम में देवा और दक्षिण में प्रतापगंज से घिरा हुआ था। 77 गांवों में से 44 तालुकदारी और 33 मुफराद थे । 44 तालुकदारी गाँवों में से 25 जहाँगीराबाद एस्टेट के पास थे,बाकी कई पड़ोसी सम्पदाओं के बीच विभाजित थे।

नवाबगंज नगर पालिका परिषद का गठन 16 जुलाई 1884 को उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध नगर पालिका अधिनियम, 1883 के तहत किया गया था।

चहलारी रियासत का अंत

ओबरी के महासमर में राजा बलभद्र के वीरगति प्राप्त होते ही का्रन्तिकारी भागने पर विवश हुए और अंग्रेजों की विजय हुई। बेगम हजरत महल उनके पुत्र बिरजिस, राजा सवाई हरिदत्त सिंह, गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिंह, रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह समेत तमाम क्रातिन्कारी नेपाल के दुर्गम पहाड़ियों में स्थित दांग-देवखर चले गए। पूरे अवध पर कब्जा करके अंग्रेजों ने बौंड़ी का किला ध्वस्त करा दिया और चहलारी राज्य को चार भागों में विभाजित कर 52 गांव का जंग बहादुर राणा, 08 गांव थानगांव के भया, तीसरा भाग में 2200 बीघा मुनुवा शिवदान सिंह और शेष चौथा भाग पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के वंशजों को दे दिया। राज बलभद्र सिंह की महारानी कल्याणी देवी ने अंग्रेजों का अनुग्रह अथवा सहायता स्वीकार नहीं था इसलिए वे अपने मायके चली गईं। उनके भाई छत्रपाल भी घाघरा पार करके सुरक्षित स्थान मुरौवा डीह चले गए। चहलारी राज्य के निकट सम्बन्धी मुनुवा शिवदान सिंह ने उनका पालन पोषण किया। वैसे चहलारी के कई बार बसाने का प्रयास किया गया लेकिन हर बार घाघरा ने आबाद हिस्से को नदी में समाहित कर लिया।

मिट रहा नामोनिशान

अवध की ऐतिहासिक धरोहरों में चहलारी रियासत का नाम सबसे पहले आता है। हालांकि बाराबंकी जिला मुख्यालय पर कांग्रेस कार्यालय परिसर में चहलारी नरेश बलभद्र सिंह की प्रतिमा स्थापित है किन्तु युद्ध के मैदान में जहां उन्हें वीरगति मिली थी वहां घने जंगलों के बीच उनकी समाधि दुर्दशा पर आंसू बहा रही है। आजादी के नायकों को समर्पित पंक्तियां

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘

स्वतंत्रता आंदोलन का गवाह होने के बावजूद महसी में घाघरा नदी के तट पर स्थित बौंडी किला पूरी तरह उपेक्षित है। किले के समीप से ही घाघरा नदी बह रही है। किले के अवशेष भी नदी में समा कर विलुप्त हो रहे हैं। लेकिन सुरक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया।

महाविद्यालय

महाराजा बलभद्र सिंह रैकवार महाविद्यालय, एक बी.एड कॉलेज, उत्तर प्रदेश के जनपद बहराइच शहर के बनकटा गाँव में स्थित है। कॉलेज एक स्व-वित्तपोषित कॉलेज है जो डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय से संबद्ध है। सह-शिक्षा महाविद्यालय की स्थापना वर्ष 2009 में हुई थी। महाविद्यालय को राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित किया गया है।

लेखक - जयप्रकाश रावत संपादक "संदेश महल" पता - बिबियापुर पोस्ट रूहेरा सूरतगंज बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन-225304 JAIPRAKASH RAWAT (वार्ता) 08:06, 5 नवम्बर 2023 (UTC)उत्तर दें

स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी भगवान दास[संपादित करें]

स्वतंत्रता के संघर्ष में सेनानियों ने शाहदत की वो मिशालें स्थापित है। आजादी की प्राप्ति के लिए सारा आंदोलन एक जन आंदोलन का रुप ले बैठा। इसमें हजारों लाखों लोग विभिन्न स्थानों पर आगे आए और उनकी शक्ति देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाने में अहम भूमिका अदा की। इसी दौरान स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों ने असहयोग, ख़िलाफत, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा,लगान बंदी, व्यक्तिगत सत्याग्रह,भारत छोड़ो आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई। थोड़े या फिर अधिक समय के लिए जेल भी गए।इसी कड़ी में एक नाम भगवान दास का आता है। भगवान दास का जन्म जनपद बाराबंकी के अंतर्गत ग्राम रसौली में हुआ था।आपके पिता का नाम चुन्नी लाल था। आप अंग्रेजों के विरूद्ध भारत छोड़ो आन्दोलन मे भाग लेने के कारण तमाम यातनाएं झेलने तथा महीनों जेल में नजरबंद रहे। भगवान दास भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण सन 1943 में 20 अगस्त से 26 अक्टूबर 1943 तक नजरबंद रहे। 18 जुलाई 1992 को आप स्वर्ग वासी हो गए। भगवान दास के विषय में बताया जाता है कि जेलयात्रा के बाद उन्होने अपना पूरा जीवन आर्य समाज के मंच से समाज सेवा मे समर्पित कर दिया । उन्होने जिले मे कई स्थानों पर आर्य समाज की स्थापना की तथा वेद प्रचार, छुआछूत उन्मूलन,शुद्धि आन्दोलन,दलितोद्धार आदि विविध कार्य किये तथा श्रीराम जन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन मे भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था।

नमक आन्दोलन दांडी यात्रा या नमक सत्याग्रह, महात्मा गांधी के नेतृत्व में औपनिवेशिक भारत में अहिंसक सविनय अवज्ञा का एक कार्य था। भारत में वैसे तो आज़ादी दिलाने के लिए कई आंदोलन हुए थे, लेकिन उनमें से एक ऐसा आंदोलन हुआ था जिसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला के रख दी थी। इस आंदोलन का नाम था नमक आंदोलन। 12 मार्च से 6 अप्रैल 1930 के बीच गांधीजी ने जब नमक पर लगाए जाने वाले विरोध पर नया सत्याग्रह चलाया वह नमक आन्दोलन के नाम से प्रचलित हुआ। नमक आन्दोलन लगातार 24 दिनों तक चला था। यह आंदोलन अहमदाबाद साबरमती आश्रम से दांडी गुजरात में 400 किलोमीटर तक चलाया गया था। नमक एक ऐसी चीज है जो अमीर से लेकर गरीब तक हर एक मनुष्य इस्तेमाल करता है। साथ ही पशुओं को खिलाने में भी इसका उपयोग किया जाता है। इसी कारण से  महात्मा गांधी ने नमक आन्दोलन और दांडी कूच के बारे में लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया।

जंहगीराबाद और राजा फरजन्द अली खां


जहांगीराबाद के तालुकेदार राजा फरजन्द अली खां थे। राजा रज्जाक बक्स की बेटी से शादी करके उन्हें संपत्ति विरासत में मिली थी। सुप्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने पुस्तक गदर के फूल में बताया है कि सन 18 93 ईसवी में प्रकाशित पदवीधारी राजा नवाबों आदि के परिचय ग्रंथ सररोपर लेथव्रिज द्वारा संकलित और लिखित द गोल्डन बुक ऑफ इंडिया में जहांगीराबाद की रानी जेबुन्निसा का परिचय देते हुए निम्नलिखित इतिहास अंकित है।रानी जेबुन्निसा का जन्म 28 अक्टूबर 1855 में हुआ था। अप्रैल 1881 को उसने अपने पिता स्वर्गीय राजा फरजंद अली खां की गद्दी पाई।

फरजंद अली खां को राजा का खिताब अवध के भूतपूर्व बादशाह वाजिद अली शाह ने दिया था।जिसे ब्रिटिश सरकार ने भी परंपरागत पदवी माना। जहांगीराबाद की रियासत के स्वामी राजा रज्जाक बक्स थे। जो पुत्र हीन मरने के कारण रियासत अपने दामाद फरजंद अली खां के लिए छोड़ गए। फरजंद अली खां लखनऊ के सिकंदराबाग का दरोगा था। अवध  को अंग्रेजी राज्य में मिलाए जाने से 3 वर्ष पूर्व उसके भाग्य में उसकी सफलता के लिए एक अच्छी परिस्थिति उत्पन्न कर दी। फरजंद अली खां बहुत सुंदर था। एक बार वाजिद अली शाह सिकंदरबाग घूमने गए। युवक की सुंदरता से प्रभावित होकर उन्होंने महलों में आने का आदेश दिया। शाही कृपा के एक संकेत पर ही फरजंद अली खान की उन्नति का मार्ग तेजी से खुल गया। प्रभावशाली राजा ख्वाजा सरा वशीरुदौला फरजंद अली खां को चाहता था। उनके प्रयत्नों के कारण फरजंद अली खां को एक फरमान द्वारा जंहगीराबाद का पद मिला। वाजिद अली शाह के दरबार से फरजंद अली खान का संबंध जुड़ गया। सन 1860 में अपनी रियासत के अंदर कार्य करने के लिए उसे असिस्टेंट कलेक्टर की सत्ता प्रदान की गई। लेखों के अनुसार राजा रज्जाक बक्स अंग्रेजों के प्रति विद्रोह कर रहे थे। जो निसंदेह स्वतंत्रता संग्राम में संगठन के सूत्र में बंधे हुए थे। लेखक - जयप्रकाश रावत संपादक संदेश महल पता - बिबियापुर पोस्ट रूहेरा सूरतगंज बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन-225304

JAIPRAKASH RAWAT (वार्ता) 06:40, 6 नवम्बर 2023 (UTC)उत्तर दें

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर तिवारी[संपादित करें]

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के सीमावर्ती जनपद बाराबंकी के उन रणबांकुरों के साहसपूर्ण जीवन का वर्णन करने जा रहे हैं।जिन्होंने 1847 के स्वतंत्रता संग्राम में विदेशी हुकूमत के विरुद्ध अपने शौर्य का परिचय देते हुए विरोध एवं विद्रोह का अलख जगाया। यूं तो विदेशी शासन से मुक्ति के लिए पूरे देश ने संघर्ष किया। यदि बाराबंकी के गौरवशाली अतीत को देखें तो यह धरा मिसाल रही है। फैजाबाद से चलकर लखनऊ तक पहुंचने के लिए अंग्रेजी सेनाओं को बाराबंकी के स्वतंत्रता सेनानियों से फैसले की लड़ाई लड़ना पड़ा। चिनहट की लडाई  में जीत का परचम लहराने के बाद 1847 मे स्वतंत्र सरकार की स्थापना हुई। उसमें बाराबंकी के रणबांकुरों और नेताओं का अहम योगदान रहा।लखनऊ में परास्त होने के बाद स्वतंत्रता सेनानियों का दूसरा युद्ध बाराबंकी की मिट्टी पर हुआ। नवाबगंज के युद्ध में चहलारी के अट्ठारह वर्षीय बलभद्र सिंह की सहादत इतिहास के कालजयी पन्नों में दर्ज हो गई। जिन्होंने साथियों के साथ बीरता पूर्वक लड़ते हुए इसी जमीन पर जूझ कर शहीद हो गए। बलभद्र सिंह के शौर्य की प्रसंशा लंन्डन टाइम्स के रिपोर्टर, अंग्रेजी सेनानी सर विलियम रसल ने विषेष रूप से प्रसंसा की है। जंगनामा,गदर के फूल में शहीद होने वाले और भी शूरवीर साथियों का जिक्र किया गया है। यूं तो इस कांति में बहुत लोग सम्मिलित हुए थे। जिनकी बदौलत हमारा भारत देश आजाद हुआ।बाराबंकी के गुमनाम अमर नायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृतियों का संकलित यह एक संकलन है। जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। आन्दोलनों में कड़ी यातनाओं को सहते हुए कारावास और अर्थदंड की सजाएं भुगती।उन्हीं सहादत की स्मृतियों को चुना है।जो वर्तमान परिदृश्य में ओझल होने लगी थी।

इस अंक में एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम के मतवाले की बात कर रहे हैं। जिनका स्वतंत्रता आंदोलन में अहम योगदान रहा है। अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बगावत की,बागी बने और जेल की सलाखों के पीछे रहे।

उत्तर प्रदेश के जनपद बाराबंकी के विकास खण्ड सूरतगंज अंतर्गत ग्राम गगौरा निवासी

चंद्रशेखर तिवारी की बात करते हैं तो जिन्होंने अंग्रेजों की राजपूत रेजीमेंट से निकलकर आजाद हिंद फौज के सदस्य बनने कलकत्ता (कोलकाता) पहुंच गए। अंग्रेजों से लोहा लेते समय वह अंग्रेजों के हत्थे लगे तो कड़ी यातनाओं के बीच नासिक जेल में तीन साल बिताए। इसके बाद भी देश प्रेम का जज्बा कम नहीं हुआ और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। इनकी मौत के 22 वर्ष बीत चुके हैं, लोग इन्हें आज भी याद करते हैं। मैं जयप्रकाश रावत को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर तिवारी के पुत्र 77 वर्षीय छन्नू तिवारी से मिलने का सौभाग्य मिला तो उन्होंने अपने पिता की यादें साझा करते हुए कीं। बताया कि करीब 22 साल की उम्र रही होगी। जब उनके पिता चंद्रशेखर तिवारी ने सन 1938 में राजपूत रेजीमेंट आर्मी ज्वाइन की थी। करीब तीन साल तक राजपूत रेजीमेंट के साथ काम करने के बाद आर्मी छोड़ दी और कुछ माह फिर गांव में बिताने के बाद सन 1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नारे "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा" से प्रभावित होकर आजाद हिंद फौज से जुड़ गए। उस वक्त चंद्र शेखर की शादी के मात्र कुछ दिन ही बीते थे। वह परिवार को छोड़कर कोलकाता चले गए थे। इस दौरान अंग्रेजों का सामना हुआ तो अंग्रेजों ने इन्हें पकड़कर महाराष्ट्र की नासिक जेल में बंद कर दिया था। तीन वर्ष की कारावास काट कर जेल से छूटे तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू खुद तांगे पर सवार होकर उन्हें लेने कारागार के गेट पर पहुंचे थे। नासिक जेल से छूटकर वापस लौटे तो सन 1946 के शुरुआत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। इनका परिवार आज भी फांका कसी का जीवन गुजर बसर कर रहा है। समाधि स्थल पर कोई इंतजाम नहीं है। यहां तक कि सरकारी मुलाजिमों की लापरवाही के चलते विकास खण्ड परिसर में लगे शिला लेख पर नाम तक दर्ज नहीं है। पुत्र द्वारा पिता की समाधि स्थल के जिर्णोद्धार व समाधि तक पहुंचने के लिए तमाम शिकायती पत्र देकर जिम्मेदारों को को अवगत कराया किंतु आज तक कोई संतोषजनक कार्य नहीं हो सका है।लेखक - जयप्रकाश रावत संपादक "संदेश महल" पता - बिबियापुर पोस्ट रूहेरा सूरतगंज बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन-225304 JAIPRAKASH RAWAT (वार्ता) 02:48, 8 नवम्बर 2023 (UTC)उत्तर दें