सदस्य:Srinithi111/yashpal

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साहित्यकार

यशपाल हिन्दी के प्र्मुख साहित्यकारों मे से हैं। वह एक यशस्वी कथाकार और एक राजनैतिक क्रांतिकारि थे। वह एक राजनैतिक टीकाकार होने के साथ साथ एक समाजवादी भी थे। उनहोने नीछलेवर्ग के लोगों के कल्याण के प्रति अपना जीवन समर्पित किया है। उनहोने उनके बारे मे अन्य निबन्ध, लघु कथाए, संग्रहों, नाटको, आदि लिखे है। उन्हे अपने किताब "मेरी तेरी उसकी बाते" के लिए १९७६ मे साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिला था। इसके अलावा उनको पद्म भूशन द्वारा भी सम्मानित किया गया है।

प्रारंभिक जीवन और सक्रियता[संपादित करें]

उनका जन्म सन् १९०३ कांग्रा पवर्त के पास एक गाव मे हुआ था। उनके जन्म से पहले उनके पिताजी का देहांत हुआ था। उनके मां,प्रेमदेवी, को अपने दोनो बच्चो का देखबाल अकेला करना पडा। उनके मा तेजस्वी प्रचारक बनाने की द्रष्टी से अपने बच्चो को गुरुकुल कांगड भेज दिया। वह आर्या समाज के उत्कट समर्तक थी। ऐसे पाठशालाओं से अंग्रेजों को सख्त नफरत था क्योंकि यहा हिन्दु धर्म के प्रति गर्व का भावना पैदा होता था। उन्होने बाद मे कहा कि वह बचपन मे आजाद भारत कि कल्पना करते थे। दूसरे बच्चे उनके गरीब होने के कारण छिडाते थे। उनको बीच मे अपना पढाई छोडना पडा क्योंकि वह बिमार हुए थे। बाद मे उन्होने अपना पढाई लहोर मे खत्म किया।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन[संपादित करें]

जब वह १७ वर्ष के थे, तब से वह महात्मा गांधीजी के अनुगामी थे। वह अन्य यात्रा पर गांधी के दर्शनशास्त्र का प्रचार किए थे। लेकिन उन्होने देखा कि इन लोगों को इसमे कोई दिलचस्पि नही था। कांग्रेस के कार्यक्रमो उन पर असर नही कर रहे थे। एक ऐसी यात्रा के बाद उन्हे छात्रवृति मिला जिसे उन्होने मना कर दिया और कालेज के लिए खुद वित्त पोषित किया और लाहोर के राष्ट्रिय कालेज मे पढाई किया। यहा उनका मुलाकात भगत सिंह और सुखदेव थापर से हुआ। वह भगत सिंह के साथ हिन्दुस्थान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन मे भाग लिया। कुछ सालो के लिये उन्हे छुपा रहना पडा। संस्था के कई सदस्यो जेल मे थे। इस समय यशपाल जी हिन्दु महासभा के सदस्य बनकर रहे थे। लेकिन उन्होने छोड दिया क्योन्कि वे महासभा के सिद्धांतों से सहमत नही थे। जब उनको पकडा गया , उन्हे १४ साल जेल मे बिताना पडा।

साहित्यिक जीवन[संपादित करें]

जेल से निकलने के बाद उन्होने लेखन के द्वारा समाज को सुधारने के प्रयास मे लगे रहे। उनका पहला कहानी 'पिंजरे कि उडान' प्रसिद्ध हुआ। उसके बाद वह चंद दिनो के लिए 'कर्मयोगी' नामक पत्रिका मे काम कर रहे थे। उन्होने अपने पत्रिका 'विपलाव' का स्थापना किया जिसे उन्हे सन् १९४१ मे बंद करना पडा। १९४७ मे उन्होने दुबारा अपना पत्रिका का स्थापना किया। उनके अगले किताबे-दादा काम्रेड(१९४१) और देश्द्रोहि(१९४३)-दोनो साम्यवादी पार्टी पर आधारित थे। उनके निबंध तथा लघु कहानियों के कारण उन्हे एक उद्वेग उत्पन्न कर्नेवाला मनुष्य कहलाया गया। उन्हे दुबारा जेल जाना पडा। यह सुनकर लोग विरोध करने लगे और उन्हे गिरफतार नही किया गया। लेकिन उनको लकनव आने से प्रतिबंध हुआ और विपलाव हमेशा के लिए बंद पडा।

कहानीकार[संपादित करें]

वह हिन्दी साहित्य के दुनिया मे कहानिकार बनकर आए थे। उनके लगभग १६ कहानिया प्रकाशित हुए है। उनके कहानियों मे मध्यवर्गीय जीवन अक्सर दर्शाया जाता है। मध्यवर्ग की असंगतियों, कमज़ोरियों, विरोधाभासों, रूढ़ियों आदि को प्रवीणता से दर्शाते है। दो विरोधी परिस्थितियों का वैषम्य प्रदर्शित कर व्यंग्य की सर्जना उनकी प्रमुख विशेषता है। यथार्थ जीवन की नवीन प्रसंगोदभावना द्वारा वे अपनी कहानियों को और भी प्रभावशाली बना देते हैं। मध्यवर्गीय लोग जिस प्रकार से अपने रूढियों मे जकडते है, यह 'चार आने' मे लिखा है। झूठी और कृत्रिम प्रतिष्ठा के बोझ को उठाते-उठाते यह वर्ग अपने दैन्य और विवशता में उजागर हो उठा है। 'गवाही' और 'सोमा का साहस' में समाज के ग़लीज़, नक़ाब और कृत्रिमता की तस्वीरें खींची गयीं हैं। इस वर्ग के वैमनस्य में निम्न वर्ग को रखकर उसके अंहकार और अमानवीय व्यवहार को बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त करने में यशपाल ख़ूब कुशल हैं। 'एक राज़' में मालकिन और नौकर की मनोवृत्ति दशाओं को प्रकट किया है। 'गुडबाई दर्द दिल' में रिक्शेवाले के प्रति की गयी अमानुषिकता पाठकों के मन में गहरी कचोट पैदा करती है। इस प्रकार की विषमता को अंकित करने के कारण यशपाल ने प्राय: उच्च मध्यवर्गीय व्यक्तियों की मनोदशा को सामने रखे है।

उपन्यासकार[संपादित करें]

उपन्यास में यशपाल का दृष्टिगोचर स्पष्ट प्रकार से दिखाई देता है। उनका पहला उपन्यास 'दादा कामरेड' था। यह क्रान्तिकारियों कि जीवन को दर्शाते हुए और मज़दूरों के संघठन को राष्ट्रोद्धार का अधिक संगत उपाय बतलाया है। उनका दूसरा उपन्यास 'देश द्रोही' कला की दृष्टि से 'दादा कामरेड' से कई क़दम आगे है। इस उपन्यास में गांधीवाद तथा कांग्रेस की आलोचना करते हुए लेखक ने प्रांजलता से समाजवादी व्यवस्था का प्र्स्तुत किया है। 'दिव्या' यशपाल के श्रेष्ठ उपन्यासों में से है। इस उपन्यास में युग-युग की दलित-पीड़ित नारी की करुण कथा है। वह अनेकानेक संघर्षों से गुज़रती हुई अपना स्वस्थ मार्ग पहचान लेती है। 'मनुष्य के रूप' में परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मनुष्य के बदलते हुए रूपों को प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया गया है। 'अमिता' उपन्यास 'दिव्या' की भाँति ऐतिहासिक है।

निबन्ध, संस्मरण और रेखाचित[संपादित करें]

वह एक सफल कथाकार ही नही बल्की एक सफल व्यक्तित्व-व्यंजक निबन्धकार भी हैं। वे अपने दृष्टिकोण के आधार पर सड़ी-गली रूढ़ियों, ह्रासोन्मुखी, प्रवृत्तियों पर जमकर प्रहार करते हैं। उन्होंने सरस तथा व्यंग्य-विनोद, गर्भ संस्मरण और रेखाचित्र भी लिखे हैं। 'न्याय का संघर्ष', 'देखा सोचा, समझा', 'सिंहावलोकन' (तीन भाग) आदि में उनके निबन्ध, संस्मरण और रेखाचित्र संग्रहीत हैं। उनकेआत्मखथा 'सिंहवालोकन' तीन भागों मे विस्तार किया गया । इसमे आजादी की लडाई कि विस्तृत ब्यौरा पाई जा सकती है। उनके मृत्यु से पहले वह एक छौथा भाग लिख रहे थे।

संदर्भ[संपादित करें]

[1] [2] [3] [4]

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Yashpal
  2. http://www.bharatdarshan.co.nz/author-profile/44/yashpal-jan-biography.html
  3. http://www.hindisamay.com/writer/writer_details_n.aspx?id=1296
  4. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2