"बलोच भाषा और साहित्य": अवतरणों में अंतर

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07:52, 25 अगस्त 2009 का अवतरण

बलोच भाषा पाकिस्तान की ग्रामीण (इलाकाई) भाषा है, जो बलोचिस्तान के अतिरिक्त सिंध, पंजाब, ईरान तथा अफगानिस्तान के भी कुछ भागों में बाली जाती है। इसकी दो शाखाएँ हैं, एक मकरानी है जो पश्चिमी तथा दक्षिण-पश्चिम में ईरान की ओर की बोलचाल की भाषा है और दूसरी सुलेमानी है, जो उत्तर और उत्तर-पूर्व अर्थात् सिंध तथा पंजाब के ग्रामों में मोली जाती है।

बलोच भाषा नई फारसी से बहुत मिलती जुलती है। इसके लगभग आधे शब्द ऐसे हैं जो फारसी भाषा के शब्दों के बिगड़े हुए रूप हैं या साहित्यिक फारसी के शब्दों के अनुसार हैं। भाषाविज्ञों का यह भी कथन है कि बलोच भाषा फारसी से निकली हुई नहीं, प्रत्युत एक अलग प्राचीन भाषा है, जो अनेक रूपों में पुरानी फारसी के स्थान पर ज़ेंद या पुरानी बाख्त्री से विशेष मिलती है। इस भाषा में इस समय फारसी के सिवा सिंधी, अरबी तथा ब्राहजई ही नहीं उर्दू भाषा के भी शब्द मिलते हैं।

साहित्य

बलोच भाषा का गद्य साहित्य इस समय केवल किस्से कहानियों ही तक सीमित है पर इसका पद्य साहित्य अधिक विस्तृत तथा उन्नत है। बलोच कविता के आरंभिक काल में केवल लोकगीत थे। परंतु बलोच इतिहास के सबसे बड़े व्यक्तित्ववाले मीर चाकर खाँ "रिंद" ने सन् 1487 ई. में गद्दी पर बैठने के अनंतर बलोच कविता में युद्ध-विषयक गीतों का आरंभ किया और मीर गवाहिराम, लाशारी, नौद बंदग़, बेबर्ग, शह मुरीद, हानी, शाहदाद, माहनाज़, उमरखाँ नोहानी, बालाच और दूदा आदि ने लंबी युद्धीय कविताएँ लिखीं तथा सजीव साहित्य उत्पन्न कर बलोच साहित्य को उत्कर्ष पर पहुँचाया। इन युद्धीय कविताओं की रचना की प्रेरक बलोच जाति के इतिहास की वही घटनाएँ थीं जो उस काल में घटित हुई थीं; जैसे रिंद तथा लाशारी कबीलों का 30 वर्षीय संघर्ष, हानी-शह मुरीद के अमर प्रेम की विशद कहानी, बेबर्ग तथा गिरानाज़ तथा आख्यान, शाहदाद तथा माहनाज़ की विरहकथा, हुमायूँ की मित्रता के कारण पानीपत के युद्ध में शाहदाद तथा उसके अनुयायियों की वीरता एवं साहस, जुसूर तथा ग़यूर बालाच की एकनामता (संमी) के लिए बेबर्ग पुसर के विरुद्ध युद्ध तथा इसी प्रकार की अन्य घटनाओं ने ऐसी उच्च कोटि की युद्धीय कविता को जन्म दिया, जो फारसी के छंदशास्त्र (अरूज़) की कठिनाइयों से खाली है पर वेदना, उल्लास तथा प्रभावोत्पादकता में अनुपम है। अब तक ये मेलों तथा महफिलों में बड़ी रुचि के साथ पढ़ी तथा सुनी जाती हैं।

18वीं शती ईसवी में बलोच भाषा में ऐसी प्रेमकविता का प्रचार हुआ, जिसमें सौंदर्य तथा प्रेम भरा है तथा केश, कपोल व अधर की गाथा है। इस काल की कविता सौंदर्य की स्वच्छ अनुभूति तथा प्रेमिका से दूर रहनेवाले दु:खी हृदय की कहानी है जो बलोच प्रवृत्ति के भावों का आदर्श भी है। प्रेमगीतों का सबसे प्रसिद्ध कवि जाम दरक माना जाता है जो मीर नसीर खाँ हूरी का सभाकवि था और बलोच शासक ने इसे "शाअरों का शाअर" (कवियों का कवि) की उपाधि दी थी। इसने स्वयं जितने गीतों और कविताओं की रचना की उन सबमें सुंदर मुखों, काले केशों, मेंहदी लगी लाल उँगलियों, मुक्तावली से दाँतों, कटार सी भौहों, रंग बिरंग के आँचलों तथा सुगंधित पल्लों के ही उल्लेख मिलते हैं। पर इस काल के सभी कवि लौकिक प्रेमिका की खोज में व्यस्त नहीं हैं। यह अवश्य है कि वे एक चलती फिरती तथा दिखाई देनेवाली प्रेमिका की खोज में निकलते हैं पर ऐसा भी होता है कि वे ऐसी लौकिक प्रेमिका की खोज करते हुए वास्तविक (हक़ीक़ी) प्रेमिका को पा लेते हैं। जब कभी ऐसा होता है, सांसारिक कविता सूफी कविता की सीमाओं को छूती हुई दिखलाई पड़ती है। इस काल के प्रसिद्ध कवियों में तवक्कुली, मुल्ला फ़ाज़िल सीमक, मुल्ला करीमदाद, इज्ज़त पंजगोरी, मुल्ला बहराम, मुल्ला कासिम तथा मलिक दीनार के नाग अग्रगण्य हैं।

19वीं शती ईसवी के अंत में तथा 20वीं शती के आरंभ में अंग्रेज बलोचिस्तान में अपने साथ केवल नई शासनविधि ही नहीं ले गए प्रत्युत उन्होंने पर्वतों, रेगिस्तानों तथा घाटियों की भूमि में एक नई सभ्यता की नींव डाली। इनकी विद्याओं तथा कलाओं के प्रदर्शन से बलोच साहित्य का स्वरूप भी प्रभावित हुआ। बलोच कवियों ने कल्पना के नए रूप अपनाए। जैसूर ने ऐसी कविताएँ लिखीं जिनमें नए शब्द तथा नई योजना थी। आजाद जमालदीनी ने अंग्रेजों की शक्ति में जाति तथा देश की अवनति समझी। मुहम्मद हुसेन उनका ने मोटरों तथा कारों के पहियों के नीचे दरिद्रों की इच्छाओं का खून होते देखा। जवाँ साल ने अधार्मिक विचारों के प्रकाशन की रोक थाम के लिए प्रशंसात्मक तथा व्यावहारिक कविताएँ प्रस्तुत कीं। रहम अली बज्लाज़ भी अंग्रेजों के बलोचिस्तान में आगमन से भविष्य में होने वाले प्रभाव से अपरिचित न रह सके और उनकी शैली तथा भाषा में विशेष परिवर्तन हो गया। अब ऐसी कविताएँ की जाने लगी जिनमें बलोचों को उनके बीते गौरव का स्मरण दिलाया गया, स्वतंत्रता देवी की प्रशंसा में गीत कहे गए और जनसाधारण को स्वातंत्र्य युद्ध के लिए तैयार किया गया। निरंतर युद्ध के अनंतर सन् 1947 ई. में जब स्वतंत्रता मिली पाकिस्तान की दूसरी प्रांतीय भाषाओं के समान बलोच भाषा की भी उन्नति हुई। रेडियो पाकिस्तान क्वेटा के स्थापित होने से बलोची कवियों तथा गद्य लेखकों का उत्साह बढ़ा और नए लेखकों का एक पूरा मंडल मैदान में आ उतरा।

इस समय मुहम्मद हुसेन उनका, आज़ाद जमालदीनी और गुल खाँ नसीर यद्यपि पुराने लेखक हैं, तथापि वे विचारों तथा अभिव्यंजना की दृष्टि से नए लेखकों में आ मिलते हैं। नए लेखकों में मुराद साहिर, इसहाक़ शमीम, अब्दुर्रहीम साबिर, अहमद ज़हीर, जहूर शाह हाशिमी, अनवर क़हतानी, मलिक सईद, अहमद जिगर, शौकत हसरत, अकबर बलोच, नागुमान, दोस्तमुहम्मद बेकस, आजिज़, रौनक बलोच तथा अताशाद उल्लेखनीय हैं जो नए वास्तविक (नफ्सियाती) ढंग को अपनाने ओर विद्या संबंधी नए अनुभव करने में निर्भीक हैं।

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