"दूरदर्शन": अवतरणों में अंतर

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* [http://www.repairfaq.org/sam/tvfaq.htm टेलीविजन सेटों की समस्या निवारण और मरम्मत पर नोट्स] (प्रतिबिम्बित (मिरर) जालस्थल)
* [http://www.repairfaq.org/sam/tvfaq.htm टेलीविजन सेटों की समस्या निवारण और मरम्मत पर नोट्स] (प्रतिबिम्बित (मिरर) जालस्थल)


मीडिया और समाजिक बदलाव की राह

रामवीर श्रेष्ठ

मीडिया और समाज का संबंध शायद उतना ही पुराना है जितना पुराना समाज। मीडिया के चेहरे में कोई खास बदलाव नहीं आया बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि उसमें नए - नए आयाम जुड़ते गए। जैसे शुरूआती समाज को प्राकृतिक घटनाओं या हलचलों ने उसे प्रभावित किया और उसने पानी में तैरते लट्ठे को देखकर उसका विकासित रूप यानि नाव तैयार की होगी, पत्थरों की रगड़ को देख उसने आग का उपयोग सीखा होगा, लुढ़कते हुए किसी गोल पत्थर को देख उसने अपने लिए रथ बना लिया होगा, शिकार करने के तरीकों को देख उसने भी भोजन प्राप्त करने की कला सीखी होगी। ये सब विकास के ऐसे शुरूआती सोपान हैं जिनसे हम अनुमान लगाते हैं कि नेचुरल मीडिया यानि उसने प्रकृति के संकेतों को समझकर स्वंय को कार्यकुशल बनाने की कला सीखी। इसी के बाद दौर शुरू हुआ कबीलों में रहने का, जिसमें लोंगों ने सामान्यतः नदियों के किनारों को अपना निवास बनाना शुरू किया। तत्कालीन समय में नदियां वर्शा, सूरज, चांद, धरती तारे , हवा सभी को लोगों ने चमत्कारिक ढंग से देखा होगा जिसके कुछ अंश अभी भी मिलते हैं। प्राचीन भारत में ही जब नागार्जुन, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भारद्वाज सरीखे तत्ववेत्तओं ने प्रकृति के रहस्यों को खोलना शुरू किया तो लोगों के देखने और समझने के नज़रिए में आवश्यक बदलाव आया। यही कारण था कि जब पूरा भारत सूर्य और धरती की गति और स्थिति के बारे में जान चुका था तब यूरोप में गैलिलियो को धरती सूर्य चारों और घूमती है कहने पर यूरोपियन धर्मगुरू उसे गुलैटिन पर चढ़ाने की बात कर रहे थे। स्वाभाविक भी था, जो जितना नया समाज था उसकी उलझनें भी उतनी ही नई थीं।
मगर भारत में नदियों के किनारे बसी इन वैदिक बस्तियों ने सबसे पहले के प्रति अपनी जवाबदेही जाहिर करते हुए पर्यावरण को लेकर शांति मंत्र तैयार किया जिसे धर्म यानि कर्तव्य पालन की बात कहकर घर-घर तक पहुंचाया। जिसमें जल, अग्नि, पृथ्वी, प्रकृति, वायू और आकाश को कल्याणकारी बनाने के लिए यज्ञों का आयोजन शुरू हुआ जिससे कि पूरी प्रकृति को प्रदुषण मुक्त किया जा सके। इस सबके लिए उन्होंने अपनी-अपनी लोकभाषाओं में कहावतें भी गढ़ी। जैसे पानी को लेकर सब जगह अपनी-अपनी लोकभाषाओं में भी ये कहावतें रूपांतरित कर लीं गईं। जैसे ठहरे हुए जल और बहते हुए जल के महत्व को उन्होंने लगातार घूम-घूमकर अच्छी बातों का प्रसार करने वालों के लिए कहा कि ’’बहता जोगी और रमता जोगी सदा निर्मल रहता है। मगर आज के पढ़े लिखे लोगों ने गंगा को रोककर गंदा करने की ठान ली है। दरअसल वे मुर्गी से सोने का अंडा लेने की बजाय मुर्गी को ही हलाल करने पर तुले हुए हैं। यह ज़रूरी है कि मीडिया पर मीडिया के ही लोगों की एक माॅनिटरिंग कमेटी हो जो उसकी सामाजिक जिम्मेदारी तय करे और उसे गलत रास्ते पर जाने से रोके, ये भी ज़रूरी है मीडिया को समाज पर हावी न होने दिया जाए वरन उसको समाज की आवष्यकताओं के हिसाब से दिशा दी जाए। जिससे नई पीढ़ी को समाज में व्याप्त भृष्टाचार, जात-पात, छुआछूत और मजहबी कट्टरपन बुराइयों से लोहा लेने लायक बनाया जा सके। ऐसा कहा जाता है कि 1962 से लेकर 1972 के बीच की सिविल सेवाओं में दाखिल हुए नौकरशाही कुछ ज्यादा ईमानदार और अपनी ड्यूटी को लेकर संजीदा निकले, इसका कारण भी मीडिया ही बताया जाता है। इन 10 सालों में भारत को लगातार 3 युद्वों का सामना करना पड़ा। मीडिया ने भी लगातार देश भक्ति की फिल्में, आकाशवाणी से लगातार देशभक्ति के गीत प्रसारित किए जाते रहे, जिसके चलते जो बच्चों को किशोरावस्था से लेकर लगातार दसियों साल देशभक्ति की घुट्टी पिलाई गई जिसका कुछ असर उस समय के युवाओं में भी देखने को मिला। दरअसल हमें यह कतई नहीं समझना चाहिए कि मीडिया के हाईटेक होने से उसकी गुणवत्ता में बहुत सुधार आ गया हो। आज विजुअल मीडिया और इंटरनेट छोटी छोटी बच्चियों से अश्लील दृश्यों को फिल्माकर पोर्नोग्राफी के बाजार के जरिए रोजगार के नए अवसर मुहैया करा रहा है। जिसके चलते इस मीडिया का उपयोग करने वाले लोग मानसिक विक्षिप्तता का शिकार हो रहे हैं। दरअसल ये आत्मघाती पथ है जिस पर मीडिया हमें ले जा रहा है। एक सर्वे के मुताबिक हाईटेक माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले 80 फीसदी से ज्यादा युवक अश्लील फिल्में देखने के लिए करते है। मीडिया की शुरूआत आजादी के पहले तक जितनी सराहनीय थी आज उतनी ही आलोचनात्मक बन चुकी है। क्रिकेट, क्राइम, सिनेमा और सेक्स के भंवरजाल में फंसी आज की मीडिया की दशा और दिशा पर अब विचार करने का समय आ गया है। अब हमंे गांधी, तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी और दादा साहब आप्टे सैकड़ों पत्रकारों की विरासत को हमें यूं ही नहीं भुला देना चाहिए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि 20 वीं शताब्दी में दुनिया भर के पत्रकारों ने अपने जुझारूपन के चलते प्रजातंत्र की स्थापना को लेकर जो मुहिम चलाई उसके बूते आज दुनिया में 120 देश, प्रजातंात्रिक हवा में सांस ले रहे हैं। जबकि 100 साल पहले तक सच्चे अर्थों में एक भी प्रजातांत्रिक देश नहीं था। हम भी उन्हीं में से एक हैं। मगर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि एक अच्छे प्रजातंत्र की जिम्मेदारी उसकी प्रजा के कंधों पर ही होनी चाहिए। अर्थ है कि अब मीडिया का उपयोग प्रजातंत्र में उसकी जिम्मेवारियों का एहसास कराने की दिशा में होना चाहिए न कि उसके हकों की लड़ाई लड़ने के लिए। ये ज़रूरी है कि वो आम आदमी को ताकत दे - भृष्ट कानून और व्यवस्था से लड़ने की। वो उसे विश्वास दिलाए कि वो हर उस आदमी की जंग में शामिल है जो भृष्टाचार से लड़ना चाहता है, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहता है। मीडिया का सबसे अहम रोल सामाजिक और सांप्रदायिक सदभाव कायम करना भी है। इस देश और दुनिया के लोग विविधता भरी इस दुनिया में एकात्मता का अहसास कर सकें। इसके लिए मीडिया को आधुनिक शंकराचार्य की भूमिका निभानी होगी। मीडिया एक और जो खास सरोकार है वो है कृषि और किसान संकट, ये संकट केवल भारत का न होकर पूरी दुनिया का संकट है। आज दुनिया भर के किसानों से उनकी जमीनें छीनी जा रही हंै। जो बचे हैं उनके साथ भी ये षड़यंत्र जारी है। इसी के चलते अंतर्राष्टीय स्तर पर किसानों से, उन्हें दी जा रहीं तमाम सुविधाओं को समाप्त करने की मुहिम चलाई जा रही हैं। दरअसल खेती को उ़द्योग की राह पर ले जाने वाले लालची धनपतियों से खेती को बचाना होगा, ग्रामीण विकास का यह एक ऐसा मुद्दा है जिसके चलते लाखों किसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। दूसरी तरफ मीडिया लगभग चुपचाप खड़ा है, शायद इसलिए कि वहां उनका चैनल नहीं जाता है। आज हर तबके चाहे सरकारी हो या पूंजीपति सभी के मन में किसान के प्रति करूणा पैदा करनी होगी। हर पत्रकार को खेत और किसान की आवाज बनकर आगे आना होगा। ये खास बात है कि आज संवाद का सशक्त माध्यम होने के बावजूद मीडिया संगठनों में कुछ खास संवाद नहीं है। मगर एक बार सभी मीडिया संगठनों को रणनीति के तहत एक मंच पर आकर किसान को मरने न देने के साथ - साथ उनके विकास के लिए आगे आना होगा। अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब ये लोग गांव - गांव से शहरों की ओर पलायन कर देश का इतिहास व भूगोल बदल देंगे, तब स्थिति और भी विस्फोटक हो जाएगी, जिसके संकेत शहरों की लगातार बढ़ती आबादी के रूप में सामने आने शुरू हो चुके हैं।






12:05, 9 दिसम्बर 2011 का अवतरण

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दूरदर्शन या टेलिविज़न (या संक्षेप में, टीवी) एक ऐसी दूरसंचार प्रणाली है जिसके द्वारा चलचित्र व ध्वनि को दो स्थानों के बीच प्रसारित व प्राप्त किया जा सके। यह शब्द टीवी सेट, टीवी कार्यक्रम तथा प्रसारण के लिये भी प्रयुक्त होता है। टेलीविज़न शब्द लैटिन तथा यूनानी शब्दों से बनाया गया है जिसका अर्थ होता है दूर दृष्टि (यूनानी - टेली = दूर, लैटिन - विज़न = दृष्टि)। टेलीविज़न सेट १९३० के उत्तरार्ध से उपलब्ध रहे हैं और समाचार व मनोरंजन के स्रोत के रूप में शीघ्र ही घरों व संस्थाओं में आम हो गये। १९७० के दशक से वीसीआर टेप और इसके वाद वीसीडीडीवीडी जैसे डिजीटल प्रणालियों के द्वारा रिकार्ड किये कार्यक्रम व सिनेमा देखना भी सम्भव हो गया।

भारत में टेलिविज़न प्रसारण का प्रारम्भ १५ सितंबर, १९५९ में हुआ जब एक प्रायोगिक परियोजना के रुप में दिल्ली में टी.वी केन्द्र खोला गया तथा दूरदर्शन नाम से सरकारी टीवी चैनल की नींव पड़ी। दूरदर्शन में सेटेलाइट तकनीक का प्रयोग १९७५-१९७६ में प्रारम्भ हुआ।

दूरदर्शन का ब्लॉक आरेख

दूरदर्शन के मुख्य प्रभाग निम्नलिखित चित्र में दर्शाये गये हैं। इसमें संकेत के प्रवाह (फ्लो) के बारे में भी सूचना प्राप्त होती है।

टिपण्णी

१.^ अंग्रेज़ी में "दूरदर्शन" को "टेलिविझ़न" (television) कहा जाता है। प्रथा के अनुसार "झ़" को कभी-कभी "ज़" लिख दिया जाता है जिस से यह शब्द "टेलिविज़न" लिख दिया जाता है हालांकि यह पूरा सही नहीं है। "टेलिविझ़न" शब्द को सही बोलने के लिए झ़ के उच्चारण पर ध्यान दें क्योंकि यह "ज़" और "झ" दोनों के उच्चारण से भिन्न है।

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