ललित कला

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सौंदर्य या लालित्य के आशय से व्यक्त होने वाली कलाएँ ललित कला (Fine arts) कहलाती हैं। अर्थात् वह कला जिसके अभिव्यंजन में सुकुमारता और सौंदर्य की अपेक्षा हो और जिसकी सृष्टि मुख्यतः मनोविनोद के लिए हो। जैसे गीत, संगीत, नृत्य, नाट्य, तथा विभिन्न प्रकार की चित्रकला

या ललित कला वह कला है जो कलाकार एवं दर्शक के अन्तर्मन को स्पर्श कर मन को मुग्ध करती है।

नृत्य कला (दक्षिण भारतीय)[संपादित करें]

भरत नाट्यम[संपादित करें]

तमिलनाडु में प्रसिद्ध यह नृत्य पहले पहल आडल, कूलू, दासियाट्टम, चिन्नमेलम आदि नामों से जाना जाता था। इस नृत्य में भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में वर्णित प्रणालियों का शुद्ध अनुकरण होने के कारण इसे 'भरतनाट्यम्‌' कहने लगे। भरत शब्द ही भाव, राग और ताल के संयोग को सूचित करता है। यह नाट्य तांडव, लास्य दो प्रकार के हैं। शिवजी द्वारा तंडु नामक भूतगण को प्रदत्त तांडव तथा पार्वती देवी से प्रदत्त लास्य है। अलग अलग रहनेवाली तथा शृंगार के आधार धरकर विकसित होनेवाली भावभूमिकाओं का अभिनय ही लास्य के रूप में वर्णित है।

यह नृत्य अत्यंत प्राचीन माना जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष रूप में मिली हुई वस्तुओं में एक नर्तकी की प्रतिमा है। तमिल के पंचमहाकाव्यों में श्रेष्ठ शिप्पधिकारम में भी हम इस नाट्यप्रणाली का उल्लेख पाते हैं। यह प्रणाली केवल दक्षिण भारत में ही प्रचलित नहीं थी, अपितु उत्तर भारत में भी एक काल में यह प्रचलित थी। प्रमाणस्वरूप हम उत्तर भारत के अनेक भग्न शिलाखंडों में इस नृत्यप्रणाली का प्रतिपादन पाते हैं। आज सांस्कृतिक नवजागरण के इस युग में पाश्चात्य देशों का ध्यान भरतनाट्यम की ओर आकृष्ट हुआ है।

भरतनाट्यम में एक ही नर्तकी के अश्रुप्रवाह, नयनमार्जन, हस्ताभिनय आदि से भावों का प्रतिपादन करने के कारण इसमें कलात्मकता अधिक विकासशील हो पाई है। भरत के द्वारा वर्णित गतिविधि, ग्रीवा-चालन-विधि आज भी व्यापक रूप से भरतनाट्यम में प्रचलित हैं। उनके द्वारा वर्णित हस्ताभिनय ही आज के हस्ताभिनय का आधार है। भरतनाट्यम के संबंध में प्राप्त होनेवाला प्राचीन ग्रंथ अभिनयदर्पण ही, जो नदिकेश्वर रचित माना जाता है, आज के नर्तनाचार्यों का आधारग्रंथ है।

इन नृत्यप्रणाली में पहले पुष्पांजलि, फिर मुखशाली, फिर शुद्ध यति नृत्य, शब्दशाली, सूडादि शब्द नृत्त, शब्दसूड, फिर अनेक प्रकार के गीतों का अभिनय, फिर प्रबंध नर्तन तथा अंत में सिंधुतरु ध्रुवपद आदि का क्रम रखा गया है। यह नाट्य कविता, अभिनय, रस, राग आदि का सम्मिश्रित रूप है जो क्रमश: यजु:, साम, अथर्वण वेदों का सार तथा धर्म, अर्थ काम, मोक्ष को प्रदान करनेवाला माना जाता है। आजकल इस नृत्यप्रणाली का प्रचलन व्यापक हो गया है। राग, ताल, अभिनय, नृत्त, चित्रकारी, शिल्पकला आदि से युक्त इस कला का संपोषण इसकी वारीकियों की ओर विशेष ध्यान देते हुए बड़ी श्रद्धा के साथ हो रहा है।

भागवत नाट्य नाटक या भागवत्‌ मेल नाट्य नाटक[संपादित करें]

नाट्य नाटकों में यह एक प्रकार का है जो बहुत ही श्रेष्ठ माना जाता है। इन नाटकों का अभिनय प्राय: पुरुषों के द्वारा ही होता है। गणपति, नरसिंह इत्यादि देवों की मुखाकृतियाँ होती है जिनकी पूजा नट नित्य किया करते हैं और नाट्य काल में व्रत धारण करते हैं। ये नाटक बहुधा मंदिरों में ही खेले जाते हैं, अन्यत्र नहीं।

नाटक के प्रारंभ में मंगलाचरण गाया जाता है। बाद में कोणाँगीदा सर नामक विदूषक रंगमंच में प्रवेश करता है। नाटककार की विशेषताएँ और नाटक का लक्ष्य ओरडिसिंधु (एकाक्षर छंद) में गाए जाते हैं।

इसके बाद पात्रप्रवेश होता है, प्रवेश तरु गाए जाते हैं। तंचावूर जिला के मेरटूर, उल्लुक्काडु, शूलमंगलम्‌ शालियमंगलम्‌ आदि जगहों में यह नृत्यपद्धति प्रचलित है। आंध्रप्रदेश के कूचिपुडी नामक गाँव में भी नरसिंह जयंती महोत्सव के समय यह नृत्य होता है।

सदिर[संपादित करें]

इसका नर्तन प्राय: एक अथवा दो स्त्री पात्रों द्वारा होता है। यह नर्तन पहले प्राय: देवदासियों से ही कराया जाता था।

पल्लु[संपादित करें]

स्त्री और पुरुष सम्मिलित रूप से यह नृत्य करते है। इसमें बहुधा ग्रामीण गीतों की ही प्रधानता होती है।

कथकली[संपादित करें]

इसका अर्थ ही कथाप्रधान है। यह नृत्य प्राचीन कालीन नाट्य सम्प्रदायों एवं देवी देवताओं की पूजनपद्धति से जनित माना जाता है। मुडियेट्टु, भगवती पाट्टु, काली आट्टम, तूकुआदि - ये नृत्य आर्यों के आगमन के पूर्व स्थित अनार्यों के आचारविचार को प्रतिबिंबित करनेवाले हैं। मूक अभिनय, धार्मिकता, तंत्र मंत्र, विचित्र भूषा, युद्ध, रक्तप्रवाह, आदि रूढ़िबद्ध होकर रंगमंच में प्रदर्शित किए जाते हैं। ये इस नृत्य की विशेषताएँ हैं। यह नाटक केरल के शाक्य लोगों से ही अधिक प्रचलित हुआ। तमिल महाकाव्यों में श्रेष्ठ शिलप्पधिकारम्‌ में भी इस नृत्य का उल्लेख है। संस्कृत नाटकों का अंश कूडियाट्टम से अभिनयादि विशेष अंग कथकली में लिया गया है। शाक्यों के आंगिक अभिनय, उनकी मुद्राएँ, भावाभिनय, रंगमंच की रूढ़ियाँ इत्यादि कथानुसार अपनाई गई हैं।

कथकली में जो रंग काम में लाए जाते हैं उन रंगों का विशेष अर्थ होता है। इस नृत्य में प्रयुक्त होनेवाली हर चीज विशेष अर्थसूचक होती है, जैसे हरा रंग दैवी गुणों का सूचक, काला रंग राक्षसी प्रवृत्तियों का सूचक माना जाता है।

केरल में ज्यों ज्यों इस नृत्य का प्रचलन होने लगा त्यों त्यों केरल साहित्य का विकास हुआ।

कृष्णाट्टम[संपादित करें]

कथकली का ही अंश माना जाता है। इस नृत्यपद्धति के स्रष्टा थे राजा सामुद्रि। इसमें कृष्ण जीवन सबंधी कहानियों की प्रधानता होती है। इसके अलावा केरल में मोहिनीयाट्टम नामक नृत्य भी प्रचलित है। यह प्राय: स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है।

कूच्चुप्पुडी[संपादित करें]

आंध्र प्रदेश में प्रचलित नृत्यपद्धति है। विजयवाड़ा के समीप का कूच्चुप्पुडी गाँव इस नृत्य का जन्मस्थान है। इसके स्रष्टा है सिद्धेंद्र योगी। इस नृत्य-प्रणाली में अभिनय, पद चालन और हस्तचालन अधिक है। इस नृत्य में पौराणिक कथांश ही अधिक होता है।

यक्षगानम्‌[संपादित करें]

यह कर्णाटक में प्रचलित एक पुरातन नृत्य प्रणाली है।

धातु एवं काष्ठ कला[संपादित करें]

प्रत्येक देश में तथा प्रत्येक युग में धातु एवं काष्ठ कला मानव सभ्यता के जीवन के अभिन्न उपकरण रहे हैं, जिनके प्रयोग द्वारा मनुष्य ने अपने जीवन को सहज, सुखी और संपन्न बनाने की चेष्टा की है। प्रागैतिहासिक काल से ही प्रकृति को विजयी अथवा प्रमोहित करने के लिए और जीवन में एक नियमित नियंत्रण लाने के लिए, भय से हो अथवा श्रद्धा से, जब मनुष्य ने अपने चारों ओर के वातावरण की ताल से अपने जीवन को संयोजित किया तो उसका यह प्रयत्न कला को केवल सुंदरता के लिए वरण करना न था बल्कि उसमें उसके जीवननिर्वाह और दैनिक क्रिया का लक्ष्य केंद्रित था। हम देखते है कि प्रस्तर युग, ताम्र युग और उसके बाद के युगों की कला इसी आदर्श और लक्ष्य पर आधारित है, न कि एक किसी अनुपयोगी वस्तु का केवल सौंदर्यपान करने के लिए। यही कारण है कि जहाँ एक ओर उनके द्वारा बने हुए दैनिक कार्यों में काम आनेवाली इन धातु और काष्ठ की वस्तुओं में भी उनके जीवन, धर्म और सामाजिक व्यवस्था की छाप स्पष्ट है, वहाँ दूसरी ओर इन्हीं वस्तुओं द्वारा हम उनमें निहित सुप्त सौंदर्य बोध की झाँकी भी पाते हैं।

धातु की अपेक्षा लकड़ी का प्रयोग बाद में हुआ होगा, ऐसा कहना ठीक नहीं जंचता। हाँ, यह अवश्य है कि लकड़ी कम टिकाऊ माध्यम होने के कारण उसमें उदाहरण हमें इतने प्राचीन नहीं प्राप्त होते, जितने धातु, हड्डी अथवा पत्थर में मिलते हैं। ऐतिहासिक युग की वास्तुकला, चाहे वह रहने का आवास हो, मंदिर, चैतन्य अथवा विहार हो इस बात की पुष्टि करती है कि इसके पूर्व यही सब चीजें लकड़ी में बनाई जाती रही होंगी। लोमस की कुटी, साँची के द्वार और खिड़की, अजंता की गुफाओं की बनावट इसका ज्वलंत प्रमाण हैं जो पत्थर में बनी होकर भी उनकी कल्पना और योजना लकड़ी के माध्यम पर ही आधारित है।

दैनिक जीवन की इन उपयोगी वस्तुओं का निर्माण यद्यपि ललित कला के लक्ष्य से नहीं हुआ, तथापि सामूहिक जीवन की कलाप्रियता का अंश इनमें हमें अवश्य दृष्टिगोचर होता है और यदि इन्हें कलात्मक वस्तुएँ कहा जाए तो भूल न होगी। सभ्यता के विकास के साथ साथ मानव ने यद्यपि अपनी निर्मित वस्तुओं में उपयोगी धारणा को नहीं छोड़ा पर हम देखते है कि उसकी कलाप्रियता ने अपनी प्रवाहशीलता द्वारा कुछ मात्रा में उन्हें ललित कला के सुंदर उपादान बना दिया है। यह केवल आधुनिक युग की ही देन है कि जहाँ कला एक ओर सामूहिक न होकर व्यक्तिगत हुई, दूसरी ओर उसकी उपयोगिता कला, कला के लिए हो, इस उद्देश्य को लेकर चली, यह दूसरी बात है कि इसी अनुपयोगी कला का प्रभाव भी हमारी उपयोगी वस्तुओं पर पड़ा और एक प्रकार से उसने सामूहिक रूप लिया। आज के वैज्ञानिक युग में यातायात के विकसित साधनों द्वारा कला का एक नवीन रूप अंतरराष्ट्रीयता भी सामने आ रहा है जहाँ किसी राष्ट्र की राजनीतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक परिधियाँ टूट चुकी है और मानवता एक संयुक्त दृष्टिकोण में आबद्ध होकर भी, कला व्यक्तिगत मौलिकता को नहीं छोड़ पाई है क्योंकि मनोवैज्ञानिक विचारों से भी अभिभूत होकर व्यक्तिविशेष के अंतराल में सुप्त लालसाओं, कामनाओं और प्रतिरोधी आशंकाओं को भी अब कला के उपादानों की उचित सामग्री मान लिया गया है।

मोहनजोदाड़ो की नर्तकी की धातु की मूर्ति से उस काल की कला का स्तर, दृष्टिकोण एवं आवश्यक गुण हमें स्पष्ट परिलक्षित होते हैं और यदि हम बाद की धातु की मूर्तियों में देखें, जो दसवीं शताब्दी से प्रचुर मात्रा में बननी प्रारंभ हो गई थीं, तो नर्तकी उन सब गुणों से परिपूर्ण है जो एक उच्च कोटि की मूर्ति में होने चाहिए। नटराज की काँसे की मूर्ति की भावपूर्ण गतिशीलता में हम परंपरागत कला सौंदर्य के सब लक्षणों के साथ साथ आधुनिक मापदंडों द्वारा भी उसे सर्वगुण सम्पन्न पाते हैं। नैपाली तारा की मूर्ति की शात अर्धनयन निमीलित सौम्यता, उसके चारों ओर का अनावश्यक अलंकरण, जो धीरे धीरे बाद की मूर्तियों में और भी बढ़ गया, किसी से छिप नहीं पाती। यद्यपि इस प्रकार की यह सभी मूर्तियाँ धार्मिक भावनाओं को लेकर बनीं तथापि उनके कलासौंदर्य के कारण वह सर्वप्रिय धर्मनिरपेक्ष हो सकीं।

धातु की मूर्तियाँ तीन प्रकार की होती थीं, ढली हुई, पीटी हुई और ढली पीटी हुई। ढाली हुई मूर्तियाँ प्रारंभ में मोम द्वारा बना ली जाती थीं। और फिर पतली महीन चिकनी मिट्टी के घोल में मूर्ति को डुबाकर एक मोटा आवरण बना लिया जाता था। नीचे लगी हुई मोम की नली द्वारा जो प्रत्येक मूर्ति के आवश्यकतानुसार स्थानों पर लगा ली जाती है गर्मी देकर मोम बाहर निकाल दिया जाता और उसी रिक्त स्थान को उन्हीं नलीवाले मार्ग से धातु द्वारा भर दिया जाता है। चाँदी, सोना, काँसा, पीतल और अष्टधातु की सभी मूर्तियाँ इसी प्रकार ढाली जाती हैं।

दूसरी प्रकार की मूर्तियों में धातु की चादर को पीछे की ओर से पीट पीटकर उभार लिया जाता है और इसे उभरे हुए विभिन्न अंग के खोलों को जोड़ दिया जाता है। कभी कभी ढली हुई मूर्तियों के अलंकरण पीटकर बनाते और बाद में जोड़ देते हैं या पीटी हुई मूर्तियों के सिंहासन अथवाअलंकरण ढले हुए रहते हैं। दक्षिण भारत, नेपाल और गुजरात ऐसी मूर्तियों का केंद्र रहा है और अब भी वहाँ परंपरागत शैली और विधि से इन मूर्तियों का निर्माण होता है, यद्यपि अब इनका लक्ष्य धार्मिक कम और अद्भुत वस्तुओं की रचना कर विदेशी मुद्रा अर्जन करना अधिक है। मूर्तियों के अतिरिक्त आराधना कार्य मंदिर और दैनिक जीवन में कार्य आनेवाली वस्तुएँ परंपरागत शैली में अब भी बनती है जैस कलश, धरती, प्रदीप, पूर्ण कुंभ घंटे, छीप लक्ष्मी, सरौते, चाकू इत्यादि जो अब र्निजीव और रुढ़िगत होने पर भी एक अपनी स्थानीय शैली का आकर्षण रचते हैं।

काष्ठ कला के अधिकतर प्राप्त नमूने हमें मध्ययुग से पूर्व के नहीं मिलते पर उनकी कलानिपुणता और कौशलपराकष्ठा देखकर सहज में ही मान लिया जा सकता है कि उस उच्च कोटि के स्तर तक पहुँचने के लिए इस प्रकार की कला की परंपरा बहुत पुरानी रही होगी। चंदन, अखरोट, शीशम, आवनूस, कटहल, शील, नीम, की काष्ठकला के सर्वोत्तम उदाहरण हमें काठमांडू (नेपाल), अहमदाबाद (गुजरात) के भवनों में और केरल की रथयात्रा के समय कार्य आनेवाले बड़े आकार के रथों में मिलते हैं। स्वतंत्र मूर्तियों की अपेक्षा इन सभी का ध्येय काष्ठ वस्तु कला का एक अलंकृत अंग होना था पर कलाकारों को अपनी अपनी शिल्प चतुरता और प्रौढ़ता दिखाने का काफी अवसर मिला है और ये लकड़ी के मकान, आराधना अथवा वासस्थान होने के कारण, धार्मिक विषय पर ही अधिक प्रोत्साहन होने पर भी हम पाते हैं कि धर्मनिरपेक्ष विषय जैसे शिकारी, पशुपक्षी, दैनिक जीवन में तल्लीन नरनारियों से इन भवनों की खुदाई ओत-प्रोत है। खुदाई करने के बाद इन भवनों को वार्षिक समारोह के समय परिष्कृत करने के लिए तेल का प्रयोग अवश्य किया गया जिसके कारण काष्ठ जैसा माध्यम पक्का होकर समय और जलवायु के क्रूर प्रघातों को सह पाया है। कुछ भवन तो अब भी कल के बने हुए से नए दिखते हैं।

चंदन और अखरोट की लकड़ी जिसका मैसूर और कश्मीर केंद्र है कलात्मक प्रकार की छोटी और बड़ी दैनिक जीवन की वस्तुएँ और पशुपक्षी, कंधे, डब्बे इत्यादि बनाने के कार्य में लाई गई है। उसका विशेष कारण इस प्रकार की लकड़ी की दुर्लभता और बड़ी परिधि के पेड़ न होना ही है। मुगल काल में भी यह कला पनपी और आवनूस के कार्य के लिए, जिसके अलंकृत कंघे, कंघियाँ, कलमदान डब्बे इत्यादि बनाए जाते रहे। उत्तर प्रदेश के नगर नगीना और सहारनपुर विख्यात हुए। उसी काल से लकड़ी के ऊपर पीतल का तार, सीप अथवा विभिन्न प्रकार की लकड़ियों के मेल से फूल बूटे का जड़ाऊ काम (inlay work) भी प्रारंभ हुआ।

सभी कलाओं की भाँति धातु और काष्ठ की मूर्तियाँ भी विदेशी राज्य के भिन्न दृष्टिकोण के कारण और उचित संरक्षण तथा प्रोत्साहन के अभाव में निर्जीव एवं रूढ़िग्रस्त हो गईं। कहीं उनका लोप हुआ तो कहीं उनके कुशल कारीगरों ने जीवननिर्वाह के लिए अन्य काम धंधे सम्हाल लिए। धनी शिक्षित वर्ग विदेशी वस्तुओं की सभ्यता और कला की चकाचौंध में अपनी परिष्कृत रुचि गवाँ बैठे। शिक्षित कलाकारों ने भी विदेशी कला का अनुसरण किया किंतु कालांतर से अब फिर इन खोई हुई वैभवशील कलाओं की ओर ध्यान जा रहा है और अनेक उदीयमान कलाकारों ने काष्ठ मूर्तिकला को अपना माध्यम बनाया है जिसमें भारतीय परंपरागत शैली के साथ हम आज अंतरराष्ट्रीय कलादृष्टि का सुंदर समन्वय पाते हैं। प्रत्येक माध्यम का अपना स्वतंत्र गुण और चरित्र है जो दूसरे माध्यम में हमें नहीं मिलता। धातु की मूर्ति काष्ठ जैसी न लगे और काष्ठ की मूर्ति पत्थर, सीमेंट अथवा धातु जैसी न लगे और उसके अंर्तहित गुणों को परखकर माध्यम के अनुकूल, नस, रंग, रूप को ध्यान में रख कलाकार अपनी कृति की कल्पना करे और उसके गोपनीय सौंदर्य को उन्मीलित कर दे जिससे उतार चढ़ाव, रेखा इत्यादि के सम्मिश्रण से एक मौलिक रचना प्रस्तुत हो, यही आधुनिक कलाकार का ध्येय और उद्देश्य है। बाह्यरूप कुछ भी हो पर हमारी कला के मूल सिद्धांत, जो षडंग के अंतर्गत आते हैं, अब भी किसी भी माप दंड से खरे उतरते हैं चाहे दृष्टिकोण कितना ही अति आधुनिक हो।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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