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योगदृष्टिसमुच्चय

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योगदृष्टिसमुच्चय श्वेतांबर जैन दार्शनिक आचार्य हरिभद्रसुरि याकिनी पुत्र (8वीं शताब्दी ईस्वी) द्वारा संस्कृत में रचित एक योग ग्रन्थ है। इसमें 228-श्लोक हैं।[1] यह तुलनात्मक धर्म का एक विशेष रूप से सूचनात्मक ग्रन्थ है।

आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांगयोग को माध्यम बनाकर आठ प्रकार की योगदृष्टियों (आत्म-विकास की भूमिकाओं) का वर्णन करते हुए उनकी गुणस्थानों में योजना की है। उन्होंने आठ ' दृष्टियों ' का विधान किया है जो इस प्रकार हैं –

१. मित्रा,

२. तारा,

३. बला,

४. दीप्रा,

५. स्थिरा,

६. कान्ता,

७. प्रभा, और

८. परा।

इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियां अप्रतिपाती हैं। प्रथम चार दृष्टियों से पतन की सम्भावना बनी रहती है। इसलिए उन्हें प्रतिपाती कहा गया है जबकि अन्तिम चार दृष्टियों में पतन की संभावना नहीं होती। अतः वह अप्रतिपाती कही जाती है।

इन आठ योगदृष्टियों में जीव को किस प्रकार का बोध प्राप्त होता है उसे क्रमशः आठ दृष्टान्तों के द्वारा बतलाया गया है-

१. तृणाग्नि कण, २. गोमयाग्नि कण कंडे की अग्नि, ३. काष्ठाग्नि, ४. दीपप्रभा, ५. रत्नप्रभा, ६. ताराप्रभा, ७. सूर्यप्रभा, और ८. चन्द्रप्रभा ।

जैसे इन तृणाग्नि आदि की कान्तियाँ उत्तरोत्तर स्पष्टता और स्थिरता लिये हुए हैं उसी प्रकार योगदृष्टियाँ बोध की स्पष्टता और स्थिरता लिये हुए हैं। सूर्यप्रभा की अपेक्षा जो चन्द्रप्रभा को उत्कृष्ट बतलाया है उसका कारण चन्द्रमा की शीतलता और शान्ति-जनकता है जबकि सूर्य में तीव्र उष्णता है जो समस्त कर्मों को भस्म करने में समर्थ है। इन योगदृष्टियों को पातंजलयोगदर्शन के आलोक में क्रमशः यम, नियम आदि अष्टांगयोगों के साथ तथा खेदादि आठ दोषों के परिहारक रूप में भी आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है।[2]

मित्रादृष्टि[संपादित करें]

इसे 'योगबीज' कहा गया है क्योंकि यहाँ बीज रूप में सद्दृष्टि की प्राप्ति होती है जिससे साधक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच यमों (व्रतों) के पालन करने की इच्छा करता है परन्तु पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण व्रतों का पालन नहीं कर पाता है। सर्वज्ञ को नमस्कार करता है, आचार्य आदि की यथोचित सेवा करता है, स्वाध्याय, पूजा आदि भी करता है। यह मित्रादृष्टि तृणाग्नि-कण की तरह अल्प - स्थायी तथा मंद है। साधक अनुचित कार्य करने वालों से द्वेष (क्रोध) नहीं करता है और शुभकार्य करने में खेद का अनुभव नहीं करता है । अतः इस दृष्टि वाले में 'अखेद' और 'अद्वेष' गुण पाए जाते हैं। 'यथाप्रवृत्तिकरण' द्वारा ग्रन्थिभेद की ओर अग्रसर होता है । यद्यपि इसका प्रथम गुणस्थान माना गया है परन्तु सामान्य ओघदृष्टि वाले मिथ्यादृष्टि से इसका उन्नत स्वभाव होता है।

तारादृष्टि[संपादित करें]

इसमें शौच (शारीरिक-मानसिक शुद्धि), संतोष (आवश्यक आहारादि को छोड़कर संतोषवृत्ति), तप ( कष्ट-सहिष्णुता ), ईश्वर-प्रणिधान (परमात्म-चिन्तन) रूप नियमों का पालन करते हुए आत्महित के कार्य करने में उद्वेग (अरुचि नहीं होता है तथा तत्त्व-चिन्तन की जिज्ञासा बलवती होती है। योगियों की कथा सुनने में प्रीति होती है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में सत् कार्यों को करते हुए भी राग-द्वेष आदि में प्रवृत्त रहता है। इतना अवश्य है कि मित्रादृष्टि की अपेक्षा इसका राग-द्वेष कुछ कम होता है और चारित्रिक विकास उससे उन्नत होता है। यह योगबीज के अंकुरण के पूर्व की अवस्था है। इसका ओज कंडे की अग्निवत् होता है।

बलादृष्टि[संपादित करें]

इस योगदृष्टि में मन की स्थिरता पूर्व की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ हो जाती है। चारित्र-पालन का अभ्यास करते-करते चित्तवृत्तियों को एकाग्र करने की सामर्थ्य (बल) प्राप्त हो जाती है। फलस्वरूप पद्मासन आदि विविध सुखासनों का आश्रय लेकर आलस्य न करते हुए चारित्र का विकास करता है। जैसे युवक और युवती एक दूसरे में दत्तचित्त होकर आनन्द का अनुभव करते हैं वैसे ही बलादृष्टि वाला साधक शास्त्र-श्रवण, देव-पूजा आदि में आनन्द का अनुभव करता है। पौद्गलिक विषयों की तृष्णा शान्त हो जाती है। कंडे की अग्नि के ओज की अपेक्षा इसका ओज काष्ठ अग्नि की तरह अधिक बलवान् होता है। योग-बीज का अंकुरण इसमें होने लगता है। 'शुश्रूषा शक्ति' प्रकट हो जाती है। शास्त्र-श्रवण न मिलने पर भी शुभभाव के कारण कर्मक्षय करता है । शुभ कार्य में प्रायः विघ्न नहीं आते। यदि विघ्न आते भी हैं तो दूर हो जाते हैं। अर्थात् 'क्षेपदोष' (विघ्न आना) नहीं रहता है।

दीप्रा दृष्टि[संपादित करें]

इस योगदृष्टि में आध्यात्मिक या भाव-प्राणायाम आवश्यक होता है। आध्यात्मिक या भाव प्राणायाम में रेचक ( बाह्य परिग्रहादि के ममत्व को बाहर निकालना), पूरक ( आन्तरिक आत्म-विवेक भाव अन्दर भरना) और कुम्भक ( आत्मभावों को अन्दर स्थिर करना) अवस्थाएँ होती हैं। यहाँ योगी तत्त्वश्रवण से संयुक्त होकर 'उत्थान' (चित्त की अशान्ति ) नामक दोष से रहित होता है। 24 दीपक के प्रकाश की तरह इसमें स्थिरता तो होती है परन्तु जैसे दीपक हवा से बुझ जाता है वैसे ही तीव्र मिथ्यात्व के उदय होने पर सच्चारित्र नष्ट हो जाता है। जैसे दीपक अपने प्रकाश के लिए पर (तेल) पर आश्रित है वैसे ही यहाँ परावलम्बिता (आत्मा से भिन्न पदार्थ पर आश्रित ) है। इसमें पूर्ववर्ती शुश्रूषा गुण 'श्रवण गुण' में परिवर्तित हो जाता है। बोध की स्पष्टता तो होती है। परन्तु सत्यासत्य आदि का सूक्ष्मबोध नहीं हो पाता। आसक्ति की विद्यमानता होने से 'अवेद्यसंवेद्यपद' (पूरी परीक्षा किये बिना स्व-अभिनिवेशवश सत्य मानकर अनुसरण करना) की स्थिति है। इसीलिए इस दृष्टि तक प्रतिपात ( पतन ) स्वीकार किया गया है। यम-नियमादि व्रतों का पालन करने तथा शान्त, विनीत, मृदु, सदाचारी होने पर भी इन चारों दृष्टियों का अन्तर्भाव मिथ्यात्व अवस्था में किया गया है। वस्तुतः यह सम्यक्त्व-प्राप्ति के पूर्व की अभ्यास अवस्था अथवा सम्यक्त्व से पतन के बाद की अवस्था है। यह अवस्था एक प्रकार से उपशान्त कषाय जैसी है परन्तु 'यहाँ से पतन निश्चित होगा' ऐसा नियम नहीं है, योगी सम्यग्दृष्टि होकर आगे भी बढ़ सकता है। इसीलिए यहाँ सम्यक्त्व को भजनीय कहा जा सकता है।

स्थिरादृष्टि[संपादित करें]

इस अवस्था में ग्रन्थिभेद से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है जो नित्य है। विषय-विकार त्यागरूप प्रत्याहार की यह अवस्था है। 'सूक्ष्मबोध' गुण की प्राप्ति होती है। अचंचलता, निरोगता, अकठोरता, मलादि विषयक अल्पता, सुस्वरता आदि के कारण परमात्म-दर्शन की ओर इन्द्रियों का झुकाव हो जाता है । इस दृष्टि की उपमा रत्न-प्रभा से दी गई है जो सौम्यता प्रदान करती है। इसे 'वेद्यसंवेद्यपद' (सत्य की परीक्षा करके तदनुरूप आचरण करना) प्राप्ति भी कहा जाता है। यहाँ भ्रमदोष (शंका) नहीं रहता।

कान्तादृष्टि[संपादित करें]

इस दृष्टि में धारणा ( किसी पदार्थ के किसी एक भाग पर चित्त को स्थिर करना) के संयोग से सुस्थिरता आती है। तारागणों के आलोक के समान इसका स्थिर आभामण्डल होता है। पूर्व की दृष्टियों में जहाँ योगी कर्मग्रन्थियों को छेदने में प्रयत्नशील रहता है वह यहाँ आकर अपूर्वता का अनुभव करता है। पूर्ण क्षमाशील बन जाता है। सर्वत्र उसका आदर-सत्कार होता है। परम आनंदानुभूति होती है। स्व-पर वस्तु का सम्यक् बोध हो जाता है। यह दृष्टि आगे की दृष्टियों की आधारशिला होती है। प्रमादजन्य अतिचार- रहित अवस्था है। सूक्ष्मबोध के बाद 'मीमांसा' ( चिन्तन-मनन ) गुण विशेष रूप से जागृत होता है।

प्रभादृष्टि[संपादित करें]

इसमें सूर्य की प्रभा के समान अत्यन्त स्पष्ट बोध होने लगता है। योगी आत्मसुख की प्राप्ति में तल्लीन हो जाता है। रोगादि क्लेशों से पीड़ित नहीं होता है। असंगानुष्ठान (समता) उदित होता है। असंगानुष्ठान के चार प्रकार हैं- (क) प्रीति (कषायमुक्त रागभाव), (ख) भक्ति (आचारादि क्रियाओं में स्नेह), (ग) वचन ( शास्त्र-वचन ) तथा (घ) प्रवृत्ति ( वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति)। यहाँ योगी को सच्चे सुख की अनुभूति होती है। केवलज्ञान-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। चित्त एकाग्रतारूप ध्यान इसमें प्रवाहरूप और दीर्घकालिक होता है जबकि कान्तादृष्टि में अल्पकालिक और एकदेशीय होता है। प्रतिपत्ति गुण (समाधि) की प्राप्ति होती है। कान्तादृष्टि में मीमांसित तत्त्व का इसमें अमल प्रारम्भ हो जाता है । अपूर्व शान्ति मिलती है। कर्ममल क्षीणप्राय हो जाता है।

परादृष्टि[संपादित करें]

इसमें आत्म-प्रवृत्ति गुण ( प्रतिपत्ति गुण की पूर्णता) की प्राप्ति होती है। इसे चन्द्रमा की कान्ति की तरह शान्त और सौम्य अवस्था कहा है। अखण्ड आनन्द मिलता है। प्रभादृष्टि में ध्येय का आलम्बन होता है परन्तु दृष्टि में ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेद नहीं रहता है । समस्त दोषों (मोहनीय कर्मों) के नष्ट होने से अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है। इसमें समाधि की सम्प्राप्ति होती है। धारणा से प्राप्त होने वाली एकाग्रता ध्यानावस्था को पार करती हुई समाधि में पर्यवसित होती है। धारणा में अप्रवाह रूप एकाग्रता है, ध्यान में प्रवाह है परन्तु सातत्य नहीं जबकि समाधि में अविच्छिन्न एकाग्रता होती है। कालसीमा अधिकतम अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ परभाव में रंचमात्र भी आसक्ति न होने से 'आसंगदोष' नहीं रहता। आत्मसमाधि की अथवा जीवन्मुक्त की यह अवस्था है। निर्वाण प्राप्ति हेतु अयोग केवली होकर साधक योग-संन्यास लेता है और अन्तिम समय में पाँच हस्वाक्षरों के उच्चारण मात्र काल में शेष अघातिया कर्मों को नष्ट करके मोक्ष (सिद्धावस्था ) प्राप्त कर लेता है।

गुणस्थान विवेचन की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र ने प्रथम चार दृष्टियों का समावेश प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में किया है। पंचम स्थिरा और छठी कान्तादृष्टि का समावेश चतुर्थ, पंचम और षष्ठ इन तीन गुणस्थानों में किया है। प्रभा नामक सातवीं दृष्टि का समावेश सातवें और आठवें गुणस्थान में किया है। परा नामक आठवीं दृष्टि का समावेश आठवें से चौदहवें गुणस्थान में किया है। अर्थात् उन-उन गुणस्थानों में यथाकथित योगदृष्टियाँ सम्भव हैं। यदि कथंचित् अपेक्षाभेद से प्रथम चार गुणस्थानों तक प्रथम चार योगदृष्टियों की सम्भावना स्वीकार की जाए तो अनुचित न होगा, ऐसा मेरा विचार है। प्रथम चार योग-दृष्टियों से दर्शन-मोहनीय का क्षय करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तथा अन्तिम चार से चारित्र-मोहनीय का क्षय करके केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्ति होती है। ये आठों योगदृष्टियाँ आत्मविकास और वीतरागता की ओर ले जाने में सोपानवत् हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]