मनस्

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मनस् (हिन्दी : मन) का सामान्य अर्थ " प्राणियों में वह शक्ति या कारण जिससे उनमें वेदना, संकल्प, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, बोध और विचार आदि होते हैं" , है । यह वह शक्ति है जिससे धारणा, भावना आदि की जाती हैं।

आरम्भिक बौद्ध धर्म के सन्दर्भ में मनस् के लिए मिलते-जुलते दो और शब्द प्रयुक्त हुए हैं- चित्त और विन्नाण । ये तीनों शब्द प्रायः 'मन' के सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। बौद्ध इसे छठी इंद्रिय मानते हैं।

क्षणिकवादी बौद्ध चित्त ही को आत्मा मानते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार अग्नि अपने को प्रकाशित करके दूसरी वस्तु को भी प्रकाशित करती है, उसी प्रकार चित्त भी करता है। बौद्ध लोग चित्त के चार भेद करते हैं—कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर औऱ लोकोत्तर ।

वैशेषिक दर्शन में मन एक अप्रत्यक्ष द्रव्य माना गया है । संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, और संस्कार इसके गुण बतलाए गए हैं और इसे अणुरूप माना गया है। इसका धर्म संकल्प विकल्प करना बतलाया गया है तथा इसे उभयात्मक लिखा है; अर्थात् उसमें ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों के धर्म हैं । (एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम् - मनुसंहिता) । योगशास्त्र में इसे 'चित्त' कहा है ।

वेदान्तसार के अनुसार अंतःकरण की चार वृत्तियाँ है— मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन, निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि और इन्हीं दोनों के अंतर्गत अनुसंधानात्मक वृत्ति को चित्त औऱ अभिमानात्मक वृत्ति को अंहकार कहते हैं। पंचदशी में इंद्रियो के नियन्ता मन ही को अंतःकरण माना है । आन्तरिक व्यापार में मन स्वतंत्र है, पर बाह्य व्यापार में इंद्रियाँ परतंत्र हैं। पंचभूतों की गुणसमष्टि से अंतःकरण उत्पन्न होता है जिसकी दो वृत्तियाँ हैं मन और बुद्धि। मन संशयात्मक और बुद्धि निश्चयात्मक है। वेदान्त में प्राण को मन का प्राण कहा है। मृत्यु होने पर मन इसी प्राण में लय हो जाता है। इसपर शंकराचार्य कहते हैं कि प्राण में मन की वृत्ति लय हो जाती है, उसका स्वरूप नहीं।

चार्वाक के मत से मन ही आत्मा है।

योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते। वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे आत्मा कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती । योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । ( प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्दप्रमाण; एक में दूसरे का भ्रम—विपर्यय;स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना— विकल्प; सब विषयों के अभाव का बोध—निद्रा और कालांतर में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है ।)

पंचदशी तथा अन्य दार्शनिक ग्रंथों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है।

पर आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान अंत:करण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में मानता है जो सब ज्ञानतंतुओं का केंद्रस्थान है। खोपड़ी के अन्दर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, वही अंतःकरण है। उसी के सूक्ष्म मज्जा-तंतु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापार होते हैं। भूतवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार-विशेष का नाम है, जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमश: बढ़ता जाता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]