वेदान्तसार

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वेदान्तसार वेदान्त की परम्परा का अन्तिम ग्रन्थ है जिसके रचयिता सदानन्द योगी हैं। इसकी रचना १६वीं शताब्दी में हुई थी। वेदान्तसार, वेदान्त के सिद्धान्तों में सरलता से प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त करता है। इस दृष्टि से यह सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है।

रचनाकाल[संपादित करें]

वेदान्तसार के लेखक सदानन्द योगीन्द्र सरस्वती हैं। इनके शिष्य कृष्णानन्द सरस्वती थे जिनके शिष्य नृसिंह सरस्वती ने वेदान्तसार के ऊपर 'सुबोधिनी' नामक टीका लिखी थी। सुबोधिनी के लिखे जाने का समय शक सम्वत् 1510 अर्थात् 1588 ई0 है। अतः सदानन्द अवश्य ही इस तिथि के पूर्व हुए होंगे। सदानन्द ने 1386 ई0 के बाद तथा 1588 ई0 के पूर्व हुए। सदानन्द के मंगलाचरण से प्रकट होता है कि उनके गुरु अद्वयानन्द सरस्वती थे। सदानन्द स्वयं भी ‘सरस्वती’ उपाधि से विभूषित थे। यह उपाधि शांकर-वेदान्त के संन्यासियों की दस उपाधियों में से एक सम्मानित उपाधि है। इस उपाधि से विभूषित संन्यासियों में अद्वैतसिद्धि के लेखक मधुसूदनसरस्वती तथा ब्रह्मानन्दीयम् के लेखक ब्रह्मानन्दसरस्वती जैसे विद्वान् हुए थे।

सदानन्द स्वयं भी अत्यन्त विद्वान् थे। उनके वेदान्तसार द्वारा हमें अद्वैत-वेदान्त के प्रसिद्ध आचार्यों, उदाहरणतः गौडपाद, शंकर, पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वराचार्य, वाचस्पतिमिश्र, श्रीहर्ष तथा विद्यारण्य के सिद्धान्तों में प्रवेश प्राप्त होता है। इन सभी के सन्दर्भ हमें वेदान्तसार में प्राप्त होते हैं। अतः यह निश्चित है कि सदानन्द ने इन सभी आचार्यों की कृतियों का अध्ययन किया होगा। इससे अधिक कुछ वेदान्तकार के रचयिता के विषय में ज्ञात नहीं होता।

वेदान्तसार के मूल स्रोत[संपादित करें]

वेदान्तसार के रचयिता ने अपने ग्रन्थ के लेखन में प्रायः सभी पूर्ववर्ती प्रमुख अद्वैत वेदान्त के ग्रन्थों का आश्रय लिया है। इनके आश्रित ग्रन्थों में सर्वप्रमुख हैं, शंकराचार्य का शारीरकभाष्य जिनके सिद्धान्तों के आधार पर इसका मूल ढांचा खड़ा है। उपनिषदों को भी आश्रय बनाया गया है (विशेष रूप में, माण्डूक्योपनिषद् को ) जहाँ से श्रुति-प्रमाण के अनेक उद्धरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त अन्य वेदान्त मनीषियों के उद्धरण भी बहुलता से दिये हैं।

वेदान्तसार का महत्व[संपादित करें]

अद्वैत-वेदान्त अपने आप में एक गूढ़ विषय है। अद्वैत-वेदान्त के आचार्यों की एक लम्बी परम्परा है जिन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों का विकास कर उसको एक समृद्ध दर्शन का रूप दिया है। इन आचार्यों के सिद्धान्तों में प्रवेश करना कोई सरल कार्य नहीं है। वेदान्तसार के रचयिता ने इस कठिन कार्य को सुगम कर दिखाया है। अद्वैत-वेदान्त के सिद्धान्तों का एक समन्वित, संक्षित तथा सरल रूप हमें वेदान्तसार में प्राप्त होता है।

शैली की दृष्टि से भी वेदान्तसार एक सरल तथा सम्पुष्ट ग्रन्थ है। वेदान्त के अनेक आचार्यों की कृतियों को पढ़ने पर पाठक उनके वाग्जाल में खोकर रह जाता है। वेदान्तसार में ऐसा कुछ नहीं है। लेखक ने अत्यन्त सरल शैली में केवल सम्बद्ध विषय की बात कही है। विषय तथा शैली दोनों दृष्टि से सुगम होने के कारण वेदान्तसार अद्वैत-वेदान्त के सिद्धान्तों को ग्रहण करने के लिए प्रवेशद्वार का कार्य करता है। बलदेव उपाध्याय के शब्दों में, "'वेदान्तसार को सरल विवेचन के कारण वेदान्त को पढ़ने का प्रारम्भिक क्रम कह सकते हैं।'"

वेदान्तसार : एक प्रकरण ग्रन्थ[संपादित करें]

वेदान्तसार को लेखक ने स्वयं एक प्रकरण-ग्रन्थ बतलाया है- ‘अस्य वेदान्तप्रकरणत्वात् तदीयैरेवानुबन्धैस्त्तद्वत्तासिद्धेर्न ते पृथगालोचनीयाः।’

प्रकरण की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है :-

शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम्।
आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः॥
(अर्थात् ‘शास्त्र के अंश से सम्बद्ध तथा शास्त्र के (विशिष्ट) विषय के अन्दर स्थित (ग्रन्थ) को विद्वान् लोग प्रकरण नामक ग्रन्थ का भेद कहते हैं।’ )

इस परिभाषा के अनुसार ‘प्रकरण’ सम्पूर्ण शास्त्र के विषय से सम्बद्ध न होकर उसके किसी विशिष्ट विषय से सम्बद्ध होना चाहिए। ‘प्रकरण’ शब्द जब ग्रन्थ के अंग के अर्थ में आता है तब तो सदैव ऐसा ही होता है किन्तु जब यह स्वतन्त्र ग्रन्थ के अर्थ में प्रयुक्त होता है तो हम सदैव उसमें शास्त्र के एक ही विषय का विवेचन प्राप्त नहीं करते। कुछ प्रकरण तो अवश्य ऐसे पाये जाते हैं जहाँ शास्त्र के एक ही विषय का निरूपण है, जैसे शंकराचार्यकृत ‘पंचीकरणप्रक्रिया’, किन्तु अधिकांश प्रकरण-ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें शास्त्र के सम्पूर्ण विषयों का संक्षेप में विवेचन है। न्याय-वैशेषिक के सप्तपदार्थी, तर्कसंग्रह, तर्कभाषा आदि ग्रन्थ ऐसे ही हैं। वेदान्त के भी वेदान्तपरिभाषा, वेदान्तसार आदि ग्रन्थ इसी प्रकार के हैं। वेदान्तसार में अद्वैत-वेदान्त के सभी विषयों का संक्षिप्त निरूपण हमें प्राप्त होता है, इसी अर्थ में इसे प्रकरण-ग्रन्थ कहा जा सकता है।

प्रमुख विवेचनीय विषय[संपादित करें]

  1. अनुबंध-चतुष्टय
  2. आत्मा विवेचन
  3. अज्ञान विवेचन
  4. ईश्वर
  5. जीव विवेचन
  6. जीवन और ईश्वर का सम्बन्ध
  7. अध्यारोप तथा सृष्टि प्रक्रिया
  8. महावाक्य विवेचन
  9. समाधि विवेचन
  10. बन्धन तथा मोक्ष

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]