मधुकर राव चौधरी
मधुकर राव चौधरी[1] (5 जून, 1919 -- 8 जुलाई, 2010) एक समाजसेवी, गांधीवादी नेता थे। वे महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष रहे।[2] वे राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अध्यक्ष भी रहे।
जीवन परिचय
[संपादित करें]मधुकरराव चौधरी का जन्म 5 जून, 1919 को महाराष्ट्र के जलगाँव जिले के रावेर तहसील के खिरोदा में हुआ था। उनके पिता धनाजी नाना चौधरी ब्रिटिश सरकार में एक पुलिस अधिकारी थे। मधुकरराव के जन्म के दो साल बाद, उन्होंने 2 जून, 1979 को अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और महात्मा गांधी के आवाहन पर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। अपने पिता के संस्कारों से प्रेरित होकर 8 वर्ष के मधुकर राव ने 1949 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में भाग लिया।
आजादी के बाद, धनाजी नाना ने सतपुड़ा पर्वत में आदिवासियों के सम्पूर्ण विकास कार्य शुरू किए। उन्होंने शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आदिवासियों को संगठित करना शुरू किया। उनके कार्यों के परिणामस्वरूप, कुछ स्वार्थी तत्वों को चोट लगी। परिणामस्वरूप, 19 दिसम्बर, 1969 को उनकी हत्या कर दी गई। उस समय, मधुकरराव एम कॉम और एल एल बी की पढ़ाई कर रहे थे। अपने पिता की हत्या से अभिभूत होकर मधुकरराव ने अपने अधूरे सपने को पूरा करने का संकल्प लिया। उन्होंने कानून की पढ़ाई बीच में छोड़ दी और खुद को आदिवासियों के विकास के लिए समर्पित कर दिया। १९५२ से १९५७ तक उन्होंने आदिवासी क्षेत्र में सवार्देय केन्द्र का संचालन जारी रखा। अनेक असुविधाओं, खतरों, विरोधों और बाधाओं के बावजूद, उन्होंने इन चार वर्षों के दौरान आदिवासी लोगों के समग्र विकास का काम किया।
जनजातीय क्षेत्र में उनके उत्कृष्ठ एवं सराहनीय योगदान को देखते हुए, जलगाँव जिले और मुंबई राज्य के कांग्रेस नेताओं ने उनसे 1957 में विधानसभा चुनाव लड़ने का आग्रह किया। उस समय उत्पन्न विपरीत स्थितियों में भी वे जन प्रतिनिधि के रूप में विधायक के चुनाव में जीत हासिल की और वे विधायक के रूप में चुने गए। ग्रेटर मुंबई राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। २८ साल की उम्र में मधुकरराव मंत्री बने। 1957 से 1978 की अवधि के दौरान, उन्होंने मुंबई और महाराष्ट्र राज्यों में शिक्षा, वित्त, योजना, राजस्व, सिंचाई, ऊर्जा, स्वास्थ्य, शहरी विकास, सांस्कृतिक मामलों के विभाग और वन विभाग आदि विभागों में मंत्रीपद संभालते हुए लोक कल्याण का महत्वपूर्ण कार्य किया। १९९० से १९९५ तक महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष रहे, इस पद पर आसीन होकर उनके द्वारा लिए गए निर्णय और निरपेक्ष कार्य से उन्हें सभी दलों का विश्वास और सम्मान प्राप्त हुआ।
चूंकि मधुकरराव की मूल प्रवृत्ति रचनात्मक मूल्यों की थी, इसलिए उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में उच्चस्तर पर काम करना जारी रखा। यहां तक कि सक्रिय राजनीतिक जीवन में भी वे गन्दी राजनीति से कभी प्रभावित नहीं हुए और न ही अपने-आप को निष्कलंक बनाए रखने में सफल रहे। सामाजिक क्षेत्र में चौधरी जी दूरगामी और समतावादी सामाजिक दृष्टि का परिचय देते हुए दिखाई देते है, महाराष्ट्र सामाजिक परिषद, महाराष्ट्र सामाजिक समानता परिषद, सामाजिक सुधार और दहेज प्रथा का विरोध करते हुए हुंडाबली आंदोलन, महाराष्ट्र राज्य ग्रामीण विकास परिषद संस्थान और पाल ग्राम में स्थित सतपुड़ा विकास मंडल आदि संथाओं के माध्यम से आदिम जनजातियों के विकास हेतु अनेक योजनाओं को सफलतापूर्वक आदिवासियों तक पहुंचने का महत्तम कार्य किया। वे जीवनभर गांधीजी के विचारों से प्रभावित होकर कार्य करते रहे। प्रयोग और शिक्षा के क्षेत्र में उनके कार्य असाधारण और मौलिक हैं। वह जनता शिक्षा मंडल, खिरोदा के संस्थापकों में से एक थे। इस संस्थान को चौधरी ने शिक्षा सम्बन्धी प्रयोग की आधारभूमि माना। मुंबई में बांद्रा स्लम सेक्शन में स्थापित चेतना शिक्षा संस्थान, आज 'मैनेजमेंट, कॉलेज ऑफ़ मैनेजमेंट एंड इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड कंप्यूटर स्टडीज़' का संचालन कर रहा है। उनके द्वारा मालाबार हिल में स्थापित 'बाल कल्याण' नामक संस्था को समाज के सबसे निचले स्तर के बच्चों के लिए शिक्षा प्रदान करने का गौरव प्राप्त है। वें सिम्बायोसिस इंटरनेशनल एजुकेशन सोसाइटी, पुणे के संस्थापक अध्यक्ष थे।
सामाजिक समानता परिषद के माध्यम से उन्होंने सामाजिक समानता और एकजुटता का प्रयास किया।।इस अपने घर से ही समानता और एकजुटता का विचार शुरू किया, इसका प्रमाण- उनकी बेटी स्नेहा का विवाह है, उनकी बेटी स्नेहा ने एक बौद्ध युवक से विवाह किया, यह विवाह पूरे महाराष्ट्र में समानता का उदाहरण के रूप में चर्चित रहा।
देश के आम जन के विकास के लिए उपयुक्त भाषा, के जो सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करनेवाली भाषा रूप में हिंदी भाषा की क्षमता को उन्होंने पहले ही समझ लिया था, इसलिए उन्होने जोर देकर कहा कि हिंदी भाषा के माध्यम से ही भारत को एकता के सूत्र में बांधना सम्भव होगा। इसीलिए चौधरी ने छात्र-काल से ही राज्य में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का अभियान शुरू किया। १९६५ से १९७० तक उन्होंने महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रसार समिति, पुणे के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। वे १९७० से मृत्युपर्यन्त महात्मा गांधी द्वारा स्थापित अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अध्यक्ष रहे। विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन की कल्पना उन्होने ने ही की थी। उन्होंने नागपुर और दिल्ली में क्रमशः पहला और तीसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित कराए। उन्होंने मॉरीशस में आयोजित दूसरे और चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व किया। इन सभी सम्मेलनों में, एक अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना और उसमें सफलता के लिए सर्वसम्मति से प्रयास किए गए। उन्होने वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के उपाध्यक्ष भी थे। १९९९ में इंग्लैंड में आयोजित छठे विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को विश्व भाषा बनाने में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें 'विश्व हिंदी' पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
8 जुलाई, 2010 को खिरोदा के अपने निवास स्थान पर ८३ वर्ष की आयु में हृदयगति रुकने के कारण अचानक ही उनका निधन हो गया।
चौधरी एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक संगठन थे। उनकी प्रेरणा से, कई लोग रचनात्मक कार्यों में चले आए थे। वह मुंबई के महात्मा गांधी फिल्म फाउंडेशन संस्थान के अध्यक्ष थे। यह संस्था गांधीजी से संबंधित ऐतिहासिक साक्ष्य और फिल्मों का निर्माण और संग्रह करती है।[3]
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "Chaudhari Shirish Madhukarrao(Indian National Congress(INC)):Constituency- RAVER(JALGAON) - Affidavit Information of Candidate:". myneta.info. अभिगमन तिथि 2023-12-28.
- ↑ शिवेंद्र किशोर वर्मा, दिलीप सिंह (2008). Bhasha Adhyayan. लेख प्रकाशन.
- ↑ मधुकरराव चौधरी कालवश[मृत कड़ियाँ] (मराठी में)