बिरहा

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बिरहा लोकगायन की एक विधा है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार के भोजपुरीभाषी क्षेत्र में प्रचलित है। बिरहा प्रायः गाँव देहात के लोगो द्वारा गाया जाता हैं । इसका अतिम शब्द प्रायः बहुत खींचकर गाया जाता है । जैसे,—बेद, हकीम बुलाओ कोई गोइयाँ कोई लेओ री खबरिया मोर । खिरकी से खिरकी ज्यों फिरकी फिरति दुओ पिरकी उठल बड़ जोर ॥ बिरहा, 'विरह' से उत्‍पन्‍न हुई है जिसमें लोगों के सामाजिक वेदना को आसानी से दर्शाया जाता हैं और श्रोता मनोरजंन के साथ-साथ छन्‍द, काव्‍य, गीत व अन्‍य रसों का आनन्‍द भी ले पाते हैं।

बिरहा अहीरों का लोकप्रिय हृदय गीत है। पूर्वांचल की यह लोकगायकी मनोरंजन के अलावा थकावट मिटाने के साथ ही एकरसता की ऊब मिटाने का उत्तम साधन है। बिरहा गाने वालों में पुरुषों के साथ ही महिलाओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या इसकी लोकप्रियता और प्रसार का स्पष्ट प्रमाण है।

आजकल पारम्परिक गीतों के तर्ज और धुनों को आधार बनाकर बिरहा काव्य तैयार किया जाता है। ‘पूर्वी’, ‘कहरवा’, ‘खेमटा’, ‘सोहर’, ‘पचरा’, ‘जटावर’, ‘जटसार’, ‘तिलक गीत’, ‘बिरहा गीत’, ‘विदाई गीत’, ‘निर्गुण’, ‘छपरहिया’, ‘टेरी’, ‘उठान’, ‘टेक’, ‘गजल’, ‘शेर’, ‘विदेशिया’, ‘पहपट’, ‘आल्हा’, और खड़ी खड़ी और फिल्मी धुनों पर अन्य स्थानीय लोक गीतों का बिरहा में समावेश होता है।

बिरहा के शुरूआती दौर के कवि ‘जतिरा’, ‘अधर’, ‘हफ्तेजूबान’, ‘शीसा पलट’, ‘कैदबन्द’, ‘सारंगी’, ‘शब्दसोरबा’, ‘डमरू’, ‘छन्द’, ‘कैद बन्द’, ‘चित्रकॉफ’ और ‘अनुप्राश अलंकार’ का प्रयोग करते थे।

यह विधा भारत के बाहर मॉरीसस, मेडागास्कर और आस-पास के भोजपुरी क्षेत्रों की बोली वाले क्षेत्र में अपनी पैठ बढ़ाकर दिनों-दिन और लोकप्रिय हो रही है।

कुछ प्रसिद्ध बिरहा गायक[संपादित करें]

आदिगुरु बिहारी यादव (बिरहा के जनक माने जाते है , गाज़ीपुर 1837), ,गणेश यादव, पत्तू यादव, (पद्मश्री) हीरालाल यादव[1] ,रामदेव यादव, , काशी एवम बुल्लु ,बिरहा जगत में उच्च शिक्षित सांस्कृतिक प्रदूषण से मुक्त ,पारिवारिक, सामाजिक,साहित्यिक गायन शैली एवं स्पष्ट संवाद  के लिए मशहूर लोकगायक(बिरहा) एवं आकाशवाणी कलाकार इंजीनियर सुनील यादव, शिक्षा :पी. एच. डी.*(कम्प्यूटर सा. एंड इंजी.,राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान पटना) ,(एम.टेक(साइबर सिक्योरिटी गोल्डमेडलिस्ट), बी.टेक(कम्प्यूटर सा. एंड इंजी.) ,प्रौद्योगिकी संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत) ,चुनार मिर्ज़ापुर,उत्तर प्रदेश , बिरहा लोकगायक धर्मेन्द्र सोलंकी (देवरिया) प्रदेश अध्यक्ष समाजवादी सांस्कृतिक प्रकोष्ठ उत्तर प्रदेश , विजयलाल यादव( बिरहा सम्राट) ,ओमप्रकाश यादव (बिरहा बादशाह),मोहन यादव,बल्लीयादव,बालचरण यादव ,रामकिशुन यादव(कुड़वां, गाजीपुर), सुरेन्द्र यादव ,छेदी, पंचम, करिया, गोगा, मोलवी, मुंशी, मिठाई लाल यादव, खटाई, खरपत्तू, लालमन, सहदेव, अक्षयबर, बरसाती, सतीश चन्द्र यादव, रामाधार, जयमंगल, पतिराम, महावीर, रामलोचन, मेवा सोनकर, मुन्नीलाल, पलकधारी, बेचन राजभर, रामसेवक सिंह, रामदुलार, रामाधार कहार, रामजतन मास्टर, जगन्नाथ आदि। बलेसर यादव (बालेश्वर यादव) हैदरअली , बाबू राम यादव (अम्बारी,आज़मगढ़)उदयराज यादव, त्रिभुवन नाथ यादव

बिरहा की उत्पत्ति[संपादित करें]

बिरहा की उत्पत्ति के सूत्र १९वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिलते हैं जब ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मजदूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। ऐसे श्रमिकों को रोजी-रोटी के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रहना पड़ता था। दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में अपने विरह व्यथा को मिटाने के लिए छोटे-छोटे समूह में ये लोग बिरहा को ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे।

कालान्तर में लोक-रंजन-गीत के रूप में बिरहा का विकास हुआ। पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर 'बिरहा' गायन की परम्परा रही है। किसी विशेष पर्व पर मंदिर के परिसरों में 'बिरहा दंगल' का प्रचलन भी है।

बिरहा गायन के आज दो प्रकार सुनने को मिलते हैं। पहले प्रकार को "खड़ी बिरहा" कहा जाता है और दूसरा रूप है "मंचीय बिरहा"। खड़ी बिरहा में वाद्यों की संगति नहीं होती, परन्तु गायक की लय एकदम पक्की होती है । पहले मुख्य गायक तार सप्तक के स्वरों में गीत का मुखड़ा आरम्भ करता है और फिर गायक दल उसमें सम्मिलित हो जाता है।

बिरहा के दंगली स्वरुप में गायकों की दो टोलियाँ होती हैं जो बारी-बारी से बिरहा गीतों का गायन करते हैं। ऐसी प्रस्तुतियों में गायक दल परस्पर सवाल-जवाब और एक दूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं। इस प्रकार के गायन में आशुसर्जक लोक-गीतकार को प्रमुख स्थान मिलता है।[2]

बिरहा के अंग[संपादित करें]

बिरहा एक बारह मजा चीज की तरह है, जिसकी भाषा कबीरदास की तरह 'पंचमेल खिचड़ी' है । बिरहा में हिंदी, संस्कृत, उर्दू , अंग्रेजी और भोजपुरी आदि सभी भाषाओं का प्रयोग किया जाता है । बिरहा के अंग निम्नलिखित प्रकार के होते है :

वंदना

बिरहा का आरंभ किसी वंदना से होता है जिसमें ईश वंदना, सरस्वती वंदना या गुरु वंदना कुछ भी हो सकती है । वंदना में दोहा छंद का प्रयोग किया जाता है । बिरहा के कवियों का दोहा लय पर आधारित होता है; हिंदी की तरह मात्रा पर नहीं । अर्थात् भोजपुरी दोहा के प्रथम और तृतीय चरण में 13-13 मात्राएं में तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएं होना अनिवार्य नहीं ।

भूमिका

बिरहा जगत में भूमिका की अहम भूमिका है । बिरहा के कवियों में जो जितनी ही अच्छी भूमिका लिखता है, वह उतना ही बड़ा (श्रेष्ठ) कवि होता है । भूमिका बिरहा का आधार होती है; जिस प्रकार मकान की नींव । भूमिका में बिरहा में प्रयुक्त कथा की संक्षिप्त कथावस्तु होती है । बिरहा की भूमिका 8 पंक्ति की होती है, जिसमें पंक्तिगत मात्रा निश्चित नहीं होती है । भूमिका लिखने का ढंग एक ही होता है जबकि गाने का ढंग अनेक होता है ।

ग़ज़ल या कव्वाली

बिरहा में भूमिका के तुरंत बाद एक गजल या कव्वाली रखने का उपक्रम है । बिरहा का कवि किसी ग़ज़ल या कव्वाली की तर्ज पर बिरहा की कहानी से संबंधित कोई ग़ज़ल या कव्वाली रचता है । जिसमें मात्र मुखड़ा (बोल) ही होता है, अंतरा नहीं ।

दौड़ शेर  (नज़्म)

ग़ज़ल या कव्वाली के पश्चात् दौड़ शेर होता है, जिसे नज़्म भी कहते हैं । दौड़ शेर के द्वारा बिरहा की कहानी का आरंभ होता है । वैसे तो दौड़ शेर आठ पंक्ति का निश्चित किया गया है, किंतु कुछ मनमाने कवि 16 से 20 पंक्ति का भी दौड़ शेर प्रयोग करते हैं । ऐसे ही कवि बिरहा की कहानी का आरंभ भी दौड़ शेर की बजाय किसी गीत या पद से ही कर देते हैं । दौड़ शेर (नज़्म) उर्दू साहित्य की विधा है, जिसमें मात्रा नहीं बहर (बहाव) का ध्यान रखा जाता है ।

जौ़हरी

जौहरी भी एक नज़्म ही है, किंतु इसका प्रयोग केवल वीर रस के बिरहा में किया जाता है । जौहरी के लिए निश्चित पंक्ति का कोई बंधन नहीं, अर्थात इसमें 8 से अधिक पंक्तियां हो सकती हैं ।

गीत

बिरहा में गीतों के प्रयोग की भी अनिवार्यता है । नज्म़ या जौ़हरी के पश्चात् एक गीत होती है । गीत किसी लोकगीत या हिंदी गीत की तर्ज पर होती है, जो बिरहा की कहानी में बाधक न होकर साधक होती है । कविवर प्रबुद्ध नारायण बौद्ध  के अनुसार - " बिरहा में अधिक से अधिक पांच गीत होनी चाहिए । " गीत अंतरा सहित होती है, जिसमें एक या दो अंतरा होता है ।

टेरी

बिरहा में टेरी दो बार होती है । एक टेरी बिरहा के मध्य में और एक टेरी बिरहा के अंत में होती है । कुछ कवि मनमाने और मनचाहे ढंग से टेरी का प्रयोग करते हैं । कविवर प्रबुद्ध नारायण बौद्ध जी के अनुसार - " टेरी दौड़ शेर के पश्चात तथा विदेशिया के पूर्व होनी चाहिए । " टेरी समुद्र के ज्वार - भाटा की भांति चढ़ाव और उतराव से युक्त होती है । टेरी हिंदी में भी होती है और भोजपुरी में भी ।

विदेशिया

विदेशिया एक करुण रस का पद होता है । 'विदेशिया' शब्द विदेश का रूपांतरण है, जिसका आशय वियोग से है । विदेशिया की कोई प्रतिबंधित पंक्ति नहीं होती । कुछ कवियों द्वारा विदेशिया की जगह कोई अन्य करुण पद या गीत भी प्रयोग किया जाता है । बिरहा में विदेशिया का प्रयोग करुण स्थान पर ही किया जाता है ।

पोहपट

एक गीत की भांति अंतरा सहित पद होता है । पोहपट रचते समय अनुप्रास अलंकार का विशेष ध्यान रखा जाता है ।

आल्हा

बिरहा का आल्हा, मूल आल्हा से भिन्न होता है और लय भी भिन्न होती है । बिरहा में आल्हा दो तरह से गाया जाता है । दोनों तरह के आल्हा में केवल भैया, बाबू जुड़ने या ना जुड़ने का ही अंतर होता है । आल्हा की पंक्ति निश्चित नहीं ।

खड़ी

पोहपट की तरह ही खड़ी की भी लय निश्चित नहीं है । खड़ी में भी पोहपट की तरह एक या दो अंतरा होता है । वैसे, बिरहा की कहानी आल्हा में ही पूरी हो जाती है और खड़ी द्वारा कहानी का उद्देश्य और संदेश प्रकट किया जाता है, किंतु कुछ कवि बिरहा की कहानी को खड़ी तक खींचकर ले आते हैं ।

छापा

बिरहा को समाप्त करने से पूर्व बिरहा कवि उसमें एक छापा जोड़ते हैं । छापा में बिरहा कवि के अखाड़े और उससे संबंधित मुख्य कवियों का नाम होता है । अंतिम की टेरी छापा के साथ ही जुड़ी होती है । जिसकी अंतिम पंक्ति में गायक और रचयिता कवि का नाम जुड़ा होता है । इस प्रकार छापा के साथ ही बिरहा का अंत हो जाता है ।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "बिरहा सम्राट हीरा लाल यादव का निधन, पीएम नरेंद्र मोदी ने जताया दुख". आज तक. मूल से 10 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 जून 2020.
  2. "बिरहा". Kashikatha. मूल से 24 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 जून 2020.