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पूर्वी समस्या

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इतिहास में पूर्वी समस्या या प्राच्य समस्या से आशय उस्मानी साम्राज्य व तुर्को ने अपने साम्राज्य में यूरोप के भिन्न भिन्न जाति के लोगो का शोषण करते रहे । जिसमे तुर्की के पतन के फलस्वरूप यूरोपिय इतिहास में एक नई समस्या का जन्म हुआ , जिसे पूर्वी समस्या कहते है । १८वीं शताब्दी के अन्त से लेकर २०वीं शताब्दी के अन्त तक उस्मानी साम्राज्य राजनैतिक एवं आर्थिक अस्थिरता से जूझ रहा था। इसे 'यूरोप का रोगी' (sick man of Europe) कहते थे। 'पूर्वी समस्या' के अन्तर्गत एक-दूसरे से जुड़ी अनेकों समस्याएँ थीं, जैसे उस्मानी साम्राज्य की सैनिक पराजय, संस्थानों का दिवाला, उस्मानी साम्राज्य के राजनैतिक एवं आर्थिक आधुनीकरण का अभाव, प्रान्तों में सामाजिक-धार्मिक राष्ट्रीयता का उदय, तथा महाशक्तियों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता।

पूर्वी समस्या यूरोप के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित तुर्की साम्राज्य की ईसाई जनता की आजादी की समस्या थी। वस्तुतः पतनोन्मुख तुर्की साम्राज्य ने यूरोप के इतिहास में 19वीं शताब्दी में जिस समस्या को जन्म दिया उसे पूर्वी समस्या कहते हैं। यह बहुत ही जटिल, उलझी हुई तथा विभिन्न देशों के परस्पर विरोधी हितों से सम्बन्धित थी। इस समस्या ने प्रथम युद्ध की पृष्ठभूमि का कार्य किया। इतिहासकार सी.डी. हेजन के अनुसार, "पूर्वी समस्या प्रमुखतः यूरोपीय क्षेत्र में स्थित तुर्की साम्राज्य के भाग्य की समस्या थी।" इसी प्रकार इतिहासकार लिस्टन ने कहा कि, "पूर्वी समस्या सदैव से एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बनी रही जो किसी न किसी रूप में सदियों से यूरोपीय राजनीति की पृष्ठभूमि को प्रभावित करती रही है।'

16वीं शताब्दी के आते-आते तुर्क या ऑटोमन साम्राज्य ने यूरोप के दक्षिण-पूर्व में स्थित बाल्कन प्रायद्वीप के सभी देशों पर कब्जा जमा लिया था। इसी यूरोपीय बाल्कन प्रदेश में रूमानिया, बुल्गारिया, मकदूनिया, अलबानिया तथा यूनान के प्रदेश शामिल थे और इन पर तुर्कों का आधिपत्य था। बाल्कन प्रदेश की बहुसंख्यक जनता स्लाव प्रजाति की थी जो ईसाई धर्म से सम्बन्धित थी और ग्रीक चर्च के सिद्धान्तों का पालन करती थी।

ऑटोमन साम्राज्य इन ईसाइयों पर अत्याचार करता था। 18वीं शताब्दी तक तुर्की समाज अति विशाल था और शक्तिशाली बना रहा किन्तु तुर्की सुल्तानों की विलासी प्रवृति, अत्याचार के कारण यह विशाल साम्राज्य पतन की और अग्रसर हो चला था। बाल्कन प्रदेश में रहने वाली विभिन्न जातियाँ अपनी स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन करने लगी। 19वीं शताब्दी में साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ती गई। धीरे-धीरे तुर्की की हालत इतनी खराब हो गई कि उसे "यूरोप का मरीज" कहा जाने लगा। फलतः यूरोप के प्रमुख राष्ट्र जैसे रूस, फ्रांस आदि उसकी पतनोन्मुख अवस्था से लाभ उठाने का प्रयत्न करने लगे। यूरोप के प्रमुख राष्ट्रों- रूस, ब्रिटेन, आस्ट्रिया, फ्रांस की ऑटोमन साम्राज्य में विविध कारणों से रूचि थी-

रूस के व्यापारिक हित तथा विस्तारवादी लाभ ऑटोमन साम्राज्य से जुड़े हुए थे। रूस के पास व्यापार करने के लिए समुद्री तट नहीं था। उसके उत्तरी सीमा का समुद्री तट लगभग पूरे वर्ष बर्प से जमा रहता था। अतः वहाँ नौका चालन सम्भव नहीं था। अतः रूस काला सागर पर प्रभाव जमाना चाहता था। साथ ही तुर्की साम्राज्य में स्थित डार्डेनलीज एवं बासफोसर के जलडमरूमध्य पर अधिकार चाहता था। इस कारण रूस तुर्की साम्राज्य का विघटन करना चाहता था। इसके अलावा बाल्कन क्षेत्र के स्लाव-प्रजाति के निवासी ग्रीक चर्च के अनुयायी थे और रूस का राजधर्म भी ग्रीक चर्च था और वहाँ स्लाव जाति का बाहुल्य था। इस तरह रूस का बाल्कन निवासियों के साथ गहरा प्रजाति और धार्मिक सम्बन्ध था। वह इन्हें तुर्की के विरूद्ध भड़काकर अपना प्रभाव जमाना चाहता था। 1844 में रूस के जार निकोलस प्रथम ने ब्रिटेन के विदेश मंत्री लाईएबर्डीन से कहा कि "तुर्की यूरोप का बीमार आदमी है। अतः उसके मरने से पहले सम्पत्ति का बंटवारा कर लेना चाहिए।"

ब्रिटेन

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तुर्की साम्राज्य को रूस के प्रभाव क्षेत्र से दूर रखना ही ब्रिटेन की प्रमुख नीति रही। अतः वह तुर्की साम्राज्य की प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखना चाहता था। ब्रिटेन भलीभांति जानता था कि यदि रूस का प्रभाव तुर्की पर पड़ता है तो उससे ब्रिटेन के अफ्रीका स्थित उपनिवेश तथा भारतीय उपनिवेश को खतरा उत्पन्न हो सकता है। यही वजह है कि ब्रिटेन ने अधिकांश अवसरों पर रूस का विरोध किया तथा तुर्की का समर्थन किया। इंग्लैण्ड की नजर में भारतीय साम्राजय की सुरक्षा के लिए ऑटोमन साम्राज्य के अस्तित्व का बना रहना आवश्यक था। इस कारण इंग्लैण्ड किसी भी कीमत पर “यूरोप के मरीज” को जीवित रखने के लिए कटिबद्ध था।

ऑस्ट्रिया

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ऑस्ट्रिया पूर्वी क्षेत्र में रूस को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानता था। ऑस्ट्रिया का साम्राज्य चारों ओर जमीन से घिरा हुआ था। समुद्री व्यापार के लिए उसके पास एड्रियाटिक सागर का छोटा-सा कोना था। रूस की तरह ऑस्ट्रिया भी डार्डेनलीज एवं बासफोरस के जलमार्गों पर अपना अधिकार चाहता था।

फ्रांस को दो कारणों से तुर्की साम्राज्य में दिलचस्पी थी। एक कैथोलिक धर्म का अनुयायी फ्रांस ऑटोमन तुर्की साम्राज्य में स्थित कैथोलिक धर्म केन्द्रों पर अपना नियंत्रण चाहता था। दूसरा तुर्की साम्राज्य एवं उसके अधिकार क्षेत्रों में आने वाले प्रदेशों में फ्रांस अपने व्यापार की वृद्धि चाहता था। फ्रांस मुख्यतः मिस्त्र और सीरिया में व्यापार बढ़ाने का इच्छुक था। इन प्रदेशों में तुर्की सुल्तान के प्रतिनिधि राज्य करते थे जो पाशा कहलाते थे। फ्रांस सदैव इन पाशाओं को तुर्की के खिलाफ सहायता और समर्थन देकर मजबूत करता रहता था। पाशा का साथ देने का मतलब था, तुर्की साम्राज्य के विघटन को बढ़ावा देना।

जर्मनी का एकीकरण 1871 में सम्पन्न हुआ। एकीकरण के पश्चात भी जर्मनी के चान्सलर बिस्मार्क ने आरंभ में पूर्वी समस्या में कोई रूचि प्रकटन नहीं की। बिस्मार्क कहता था कि तुर्की से आने वाली डाक मैं खोलता ही नहीं लेकिन 1878 में बर्लिन कांगे्रस में उसने पूर्वी समस्या का समाधान खोजने का प्रयास किया तथा कहा ““मैंने इसमें ईमानदार दलाल”” की भूमिका का निर्वाह किया है।

इटली के कावूर ने पूर्वी समस्या में रूचि ली तथा क्रीमिया के युद्ध में फ्रांस का साथ दिया और इस तरह के एकीकरण में अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल किया।

यूनान की स्वतंत्रता

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प्रजातंत्र और राष्ट्रवादी की भावना से पे्ररित होकर यूनानी प्रजा ने टर्की के विरूद्ध आवाज उठायी और अपनी स्वतंत्रता की मांग की। यूनानियों ने 1821में टर्की के खिलाफ विद्रोह कर दिया। यह घटना यूनान के स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत थी। इस संग्राम में यूनानियों को इंग्लैण्ड और रूस का समर्थन मिला। 1832 में यूनान एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया।

क्रीमिया का युद्ध (1854-56 ई.)

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क्रीमिया का युद्ध भी पूर्वी समस्या से संबंधित था। वस्तुतः रूस, बीमार तुर्की का विघटन कर उसका एक बड़ा भाग स्वयं पाना चाहता था। 1740 ई. के एक समझौते के अनुसार यरूशलम के पवित्र स्थल के रोमन चर्च को फ्रांस के संरक्षण में रखा गया था। किन्तु इस समझौते का उल्लंघन कर ग्रीक चर्च के पादरियों ने रोमन पादरियों का हक छीन लिया था। ग्रीक चर्च का संरक्षक रूसी जार था। इस कारण नेपोलियन तृतीय ने रोमन पादरियों का पक्ष लेते हुए मामले में हस्तक्षेप किया। वस्तुतः फ्रांस के नेपोलियन तृतीय का उद्देश्य फ्रांस को यूरोप का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाकर गौरव और कीर्ति हासिल करना था। फ्रांस में नेपोलियन तृतीत का उद्देश्य फ्रांस को यूरोप का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाकर गौरव और कीर्ति हासिल करना था। फ्रांस में नेपोलियन तृतीय के प्रबल समर्थक रोमन कैथोलिक चर्च के लोग थे जिन्हें वह हर कीमत पर खुश करना चाहता था। इसके अलावा नेपोलियन तृतीय अपने पूर्वज नेपोलियन प्रथम की मास्को पराजय को भूला नहीं था और वह इस पराजय का बदला लेना चाहता था। इन सभी कारणों से फ्रांस ने रूस के विरूद्ध युद्ध किया।

इन परिस्थिति में नोपोलियन तृतीय ने रोमन पादरियों का पक्ष लेते हुए यरूशलम से उनके अतिक्रमित अधिकारियों को लौटाने की मांग की ओर तुर्की के सुल्तान पर दबाव डालने लगा कि वह इस सम्बन्ध में उचित कारवाही करें क्योंकि यरूशलम तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत पड़ता था। रूस ने इस मांग का विरोध किया और कहा कि ग्रीक पादरियों के अधिकारों में कोई कटौती न हो तथा तुर्की सुल्तान अपनी सारी ईसाई प्रजाओं का संरक्षक रूसी जार को मान ले। ब्रिटेन भी इस विवाद में शामिल हो गया। ब्रिटेन का प्रोत्साहन पाकर तुर्की ने रूसी मांगों को अस्वीकृत कर दिया। इस पर रूस ने तुर्की पर आक्रमण किया और तुर्की का पक्ष लेते हुए ब्रिटेन और फ्रांस भी युद्ध में शामिल हो गए। अंततः दोनों पक्षों के बीच 1856 में पेरिस की सन्धि हुई जिसके तहत टर्की साम्राज्य की प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखने का वादा किया। काला सागर में रूस के युद्धपोतों को रखे जाने पर पाबन्दी लगा दी गई।

क्रीमिया युद्ध के परिणाम

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ब्रिटिश नेता सर राबर्ट मारिया के अनुसार यह एक ऐसा आधुनिक युद्ध था जो पूर्णतः बेकार लड़ा गया। फ्रांसीसी लेखक थीए ने कहा कि "क्रीमिया का युद्ध घटिया, शोक संतप्त और मनहूस पादरियों को एक धार्मिक गुफा की चाबियाँ सौंपने का युद्ध था।"

इस युद्ध को व्यर्थ और बेकार इसलिए माना जाता है क्योंकि इससे न तो तुर्की साम्राज्य को विघटन से बचाया जा सका और न रूस की साम्राज्यवादी मंसूबे को सदा के लिए नियंत्रित किया जा सका। तुर्की साम्राज्य की ईसाई प्रजा पर अत्याचार होता रहा। बाल्कन और काला सागर में रूस की दिलचस्पी में कोई कमी नहीं आई। सर्बिया को स्वशासन मिलने की बात ने इस क्षेत्र की जनता के मन में अपनी स्थिति को और अधिक बेहतर बनाने अर्थात् पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने की अभिलाषा जागृत कर दी। फलतः ऑटोमन साम्राज्य के विघटन को प्रोत्साहन मिला।

मुद्दों के दृष्टिकोण से यह युद्ध चाहे व्यर्थ का माना जाए किन्तु परिणामों की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। पीडमान्ट-सार्डीनिया को क्रिमिया युद्ध से लाभ हुआ। उसने फ्रांस और इंग्लैण्ड का पक्ष लेकर पेरिस शान्ति सम्मेलन में अपना स्थान सुरक्षित किया और इटली के एकीकरण के प्रश्न को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। फ्रांस की मदद से इटली ने अपने एकीकरण के चरण को पूरा किया। इतना ही नहीं क्रीमिया युद्ध ने 1815 की वियना व्यवस्था की नींव को हिला दिया। युद्ध के बाद परिवर्तन का विरोध करने वाली शक्तियाँ बहुत कमजोर पड़ गई थी।

इस युद्ध से रेडक्रॉस जैसी संस्थाओं का जन्म हुआ। इस सम्बन्ध में फ्लोरेंस नाइटेंगल का नाम उल्लेखनीय है। उसने घायल सैनिकों की सेवा की। यह पहला युद्ध था जिसमें महिलाओं ने युद्ध सैनिक नर्सों के रूप में स्थान पाया। यह पहला युद्ध था जिसमें तार तथा छापेखाने ने घटनाक्रम पर असर डाला। यह पहला युद्ध था जिसका पूरा लेखा-जोखा संवाददाताओं द्वारा अखबारों में प्रस्तुत किया गया। यह पहला युद्ध था जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस एक साथ एक पक्ष की ओर से लड़े क्योंकि वह समझते थे कि पूर्वी भूमध्यसागर में उनके हितों को रूस से खतरा है।

1878 की बर्लिन कांगे्रस

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सन् 1878 की बर्लिन कांगे्रस तुर्की साम्राज्य के बिखराव तथा रूस एवं ऑस्ट्रिया की समाजवादी नीति का परिणाम थी। 'यूरोप का मरीज' तुर्की साम्राज्य आन्तरिक कलह एवं विद्रोह का शिकार था जिससे साम्राज्यवादी देश लाभ उठाना चाहते थे। रूस ने बाल्कन क्षेत्र के विद्रोह के समय हस्तक्षेप किया और तुर्की पर सानस्टिफेनो की सन्धि लाद दी किन्तु यह सन्धि यूरोप के अन्य साम्राज्यवादी देशों को मान्य नहीं थी फलतः उन्होंने रूस को बर्लिन व्यवस्था कबूल करने के लिए बाध्य किया।

बर्लिन कांगे्रस की पृष्ठभूमि

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1870 ई. के फ्रांस-प्रशा युद्ध से लाभ उठाते हुए रूस ने पेरिस की उस व्यवस्था को मानने से इन्कार कर दिया जिसके द्वारा काला सागर में उसकी सैनिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। अब रूस ने यह निश्चित किया कि वह काला सागर को रूसी झील के रूप में तब्दील कर देगा।

अभी तक ऑस्ट्रिया बाल्कन क्षेत्र की राजनीतिक में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा था किन्तु जब इटली और जर्मनी की राजनीति से उसे अलग कर दिया गया तब उसने बाल्कन क्षेत्र में साम्राज्यवादी प्रसार करना चाहा। ऐसी हालत में बाल्कन क्षेत्र में रूस के विरूद्ध एक नया प्रतिद्वन्द्वी खड़ा हो गया। फलतः टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई। रूस ने क्रीमिया युद्ध में हारने के बाद अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए स्लाव जाति का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया। उसने बाल्कन राज्यों के सभी स्लावों को संगठित करने के उद्देश्य से मास्को में एक सर्व-स्लाव सम्मेलन 1867 ई. में आयोजित किया, इसका उद्देश्य सभी स्लाव लोगों को संगठित कर तुर्की साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह करवाना था। इस आन्दोलन से प्रभावित होकर 1875 ई. में बोस्निया, बुल्गारिया के लोगों ने टर्की शासन के विरूद्ध विद्रोह किया। फलतः तुर्की ने निर्दयतापूर्वक इस विद्रोह को कुचलने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में रूस ने बोस्निया के पक्ष में हस्तक्षेप किया और युद्ध की घोषणा कर दी। रूस ने तुर्की को पराजित कर सान-स्टेफिनों की सन्धि लाद दी। इसके तहत टर्की के कुछ क्षेत्रों पर रूस अधिकार हुआ। सर्बिया और रूमानिया को पूर्ण स्वतंत्र राज्य मान लिया गया और एक नए स्वतंत्र राज्य बुल्गारिया का निर्माण हुआ।

लेकिन सा-स्टिफेनों की सन्धि की शर्तें इंग्लैण्ड और ऑस्ट्रिया को मान्य नहीं थी क्योंकि इससे उनके हितों को चोट पहुँचती थी। अतः उन्होंने इस सन्धि को रद्द करने की मांग इस आधार पर की कि किसी एक राष्ट्र को बलपूर्वक पेरिस की सन्धि (1856 ई.) द्वारा स्थापित व्यवस्था को समाप्त करने का अधिकार नहीं है। अतः पूरी समस्या पर विचार करने के लिए संबंधित राज्यों का एक सम्मेलन बुलाया जाए। रूस ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया। अंततः बिस्मार्क की मध्यस्था में जून 1878 ई. में बर्लिन में सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में हुई सन्धि के निम्नलिखित प्रावधान थे-

  • (क) सर्बिया, रूमानिया, मांटिनिग्रो को पूर्ण स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया।
  • (ख) ऑस्ट्रिया को बोस्निया-हर्जेगोविना का प्रशासन सौंप दिया गया।
  • (ग) ब्रिटेन को साइप्रस द्वीप प्राप्त हुआ।
  • (घ) विशाल बुल्गारिया को विभाजित किया गया तथा उसे स्वतंत्रता दे दी गई।

बर्लिन कांगे्रस की समीक्षा

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बर्लिन कांगे्रस ने बाल्कन समस्या का समाधान करने तथा यूरोपीय राज्यों के बीच युद्ध रोकने का दावा किया, लेकिन उनका यह दावा गलत था। वस्तुतः ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डिजरायली ने घोषणा की “"बर्लिन से मैं सम्मान सहित शान्ति लाया"। डिजरेली ने ऐसा कथन इस आधार पर कहा था कि इस सन्धि से बाल्कन क्षेत्र में रूस के बढ़ते प्रभाव को रोका गया। सान-स्टिफेनो की सन्धि को रद्द कर दिया गया जिसके फलस्वरूप रूस के बहुत सारे लाभ समाप्त हो गए और प्रभाव सीमित कर दिया। यूरोप में तुर्की के साम्राज्य को नवजीवन प्राप्त हुआ।

लेकिन डिजरायली का यह कथन सत्य से बहुत दूर था। बर्लिन कांगे्रस ने बाल्कन की जनता की राष्ट्रवादी इच्छा को नजरअन्दाज किया और महाशक्तियों की स्वार्थ के आगे उसकी बलि चढ़ा दी। बोस्निया तथा हर्जेगोविना के सर्ब बहुल प्रान्तों को आस्ट्रिया के अधीन कर दिया गया। जबकि राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के आधार पर इन प्रदेशों को सर्बिया को दिया जाना चाहिए था। इस गलती के चलते इन क्षेत्रों में राष्टवादी आन्दोलन शुरू हुआ जो प्रथम विश्वयुद्ध में परिणत हो गया।

बाल्कन क्षेत्र के ईसाइयों को पुनः तुर्की के दासत्व में ढकेल दिया गया, जिन्हें रूस ने सान-स्टिफेनाें द्वारा मुक्त करा दिया था। डिजरेली तुर्की के विघटन को भी नहीं बचा सका बल्कि विघटनकारी शक्तियों से मिलकर विघटन से लाभान्वित हुआ।

प्रत्येक बाल्कन राज्य बर्लिन के निर्णयों से असन्तुष्ट था। बुलगारिया के असन्तोष का कारण यह था कि उसका आकार छोटा कर दिया गया था। सर्बिया को इस बात का अफसोस था कि बोस्निया का क्षेत्र ऑस्ट्रिया को दे दिया गया। यूनान को भी यूनानी बहुल क्षेत्र नहीं मिले।

इस प्रकार बर्लिन सन्धि समस्याओं के समाधान करने में समक्ष नहीं रही बल्कि उसने नई समस्याओं को जन्म दिया जिसने न केवल यूरोप को बल्कि सारे विश्व को संकट में डाला। बर्लिन कांगे्रस में भाग लेने वाले देश अपने साम्राज्यवादी हितों के के लिए अंधे हो चुके थे और वे किसी भी हालत में रूस पर प्रतिबंध लगाकर अपने हितों की पूर्ति करना चाहते थे। बर्लिन कांगे्रस के बाद घटी घटनाओं ने डिजरेली के शान्ति के दावों को झुठला दिया। इतिहास गवाह है कि मात्र दस वर्ष बाद बाल्कन प्रदेश पुनः अशान्त हो गया और यह अशांति बढ़ती ही गई जिसने प्रथम विश्व युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया।

बिस्मार्क का दावा कि उसने 'ईमानदार दलाल' की भूमिका निभाई, गलत साबित हुआ। वह ऑस्ट्रिया के हित का बहुत ख्याल करता था और उसे बहुत प्रादेशिक लाभ पहुँचाया। साथ ही अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए रूसी हित के विरूद्ध कार्य किया। जिससे बाद के वर्षों में रूस ने जर्मनी का साथ छोड़ दिया और प्रथम विश्वयुद्ध में दोनों एक दूसरे के विरूद्ध लड़े।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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