नागरीदास

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नागरीदास ब्रज-भक्ति-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्धि पानेवाले कवि एवं किशनगढ़ राज्य (अजमेर-राजस्थान) के राजा थे। इनका मूल नाम राजा सांवतसिँह था। नागरीदास बल्लभकुल के गोस्वामी श्री रणछोड़ जी के शिष्य थे। इनके इष्टदेव श्री कल्याणराय जी तथा श्री नृत्यगोपाल जी थे। ये दोनों भगवत् विग्रह किशनगढ़ में आज भी विराजमान हैं।

श्री नागरीदासजी का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनके पिता थे किशनगढ़ नरेश राजा राजसिँहजी और माता उनकी पटरानी रानी राजावतजी (कछवाहीजी) चतुर कँवरजी पुत्री राजा उदय सिँहजी राजावत कामवन (भरतपुर) थीं। इनका सर्वप्रथम विवाह भानगढ़-जयपुर राज्य के राजावत सरदार राजा जसवंत सिंहजी की पुत्री लाल कँवरजी के साथ संपन्न हुआ तथा चार संताने हुई पहला पुत्र जो जन्म से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हुआ दूसरे पुत्र कुंवर सरदार सिँहजी हुए जो इनके स्वर्गवासी होने के उपरांत राजा बने और दो कन्याएं जेष्ठ बाईजी लाल किशोर कँवरजी जिनका विवाह इनकी मृत्यु उपरांत उनके काका राजा बहादुर सिँहजी ने बूंदी के कुंवर दीप सिँहजी और महाराव उमेद सिंहजी के पुत्र के साथ संपन्न करवाया और छोटी पुत्री बाईजी लाल गोपाल कँवरजी जिनका विवाह संबंध जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिँहजी के साथ तय हुआ था परंतु विवाह से पूर्व ही महाराजा का देहांत हो जाने से बाईजी लाल आजीवन अविवाहित रहीं तथा पिता के ही भाती कृष्णभक्त होकर ब्रजवास ले लिया और वहीं से देवधाम पहुंची उनकी समाधि आजभी कृष्ण नगरी मथुरा में स्तिथ है। राजा सावंतसिँहजी ने १३ वर्ष की अवस्था में ही बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। यह बड़े शूरवीर थे। राजा राजसिँहजी के स्वर्गवासी होने पर बादशाह अहमदशाह ने इन्हें किशनगढ़ की राजगद्दी पर बिठाना चाहा


ब्रज में ह्वै ह्वै, कढ़त दिन, कितै दिए लै खोय।
अबकै अबकै, कहत ही, वह 'अबकै' कब होय॥

राजकाज छोड़कर नागरीदास जी वृन्दावन को चल दिए। इनके रचे पद ब्रजमंडल में पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, अत: ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया। नागरीदास जी ने स्वयं लिखा है -

इक मिलत भुजनि भरि दौरि दौरि,
इक टेरि बुलावत और औरि;
कोउ चले जात सहजै सुभाय,
पद गाय उठत भोगहिं सुनाय।
अतिसहय विरक्त जिनके सुभाव,
जे गनत न राजा रकं राव;
ते सिमिटि सिमिटि फिरि आय आय,
फिरि छांड़त पद पढ़वाय गाय॥

सर्वस्व त्यागकर अब ब्रज की रज को ही सर्वस्व मान लिया-

सर्वस के सिर धूरि दे, सर्वस कै ब्रज धूरि

रचनाएँ[संपादित करें]

नागरीदास ने छोटी बड़ी कुल ७५ रचनाएँ की हैं। ७३ रचनाओं का संग्रह 'नागरसमुच्चय' के नाम से ज्ञानसागर यंत्रालय से प्रकाशित हुआ है। इन रचनाओं को तीन भागों में विभक्त किया गया है - वैराग्यसागर, सिंगारसागर और पदसागर। पद, कवित्त, सवैए, दोहे, मांझ, अरिल्ल आदि छंदों में नागरीदास ने प्रेम, भक्ति और वैराग्य पर सरस रचनाएँ की हैं; जो टकसाली हैं। हिंडोला, साँझी, दीवाली, फाग आदि त्यौहारों, छह ऋतुओं और अनेक कृष्ण लीलाओं का इन्होंने सुंदर चित्रण किया है। शिखनख एवं नखशिख पर भी लिखा है। ब्रजभूमि के प्रति नागरीदास जी के भक्ति उद्गार अत्यंत अनूठे हैं। भाषा है ब्रजभाषा। कहीं-कहीं पर फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। अष्टछाप तथा हितहरिवंश और स्वामी हरिदास के संप्रदाय के भक्तकवियों के ललित पदों से नागरीदास के पद बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं।

अन्य नागरीदास[संपादित करें]

नागरीदास नाम के चार और भक्त कवि हुए हैं -