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अष्टछाप

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अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित 8 भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया।[1] अष्टछाप की स्थापना 1565 ई० में हुई थी।[2]

अष्टछाप कवि

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अष्टछाप कवियों के अंतर्गत पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्य कीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी चार शिष्य थे। आठों ब्रजभूमि के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को "अष्टछाप" कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्रायें है। उन्होने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्ण भक्त कवि ब्रजभाषा में ही कविता रचने लगे। अष्टछाप के कवि जो हुए हैं, वे इस प्रकार से हैं:-

केते दिन जु गए बिनु देखैं।
तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं।।
वह सोभा, वह कांति बदन की, कोटिक चंद बिसेखैं।
वह चितवन, वह हास मनोहर, वह नटवर बपु भेखैं।।
स्याम सुँदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं।
‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातों 'सूर' सगुन लीला पद गावै॥
बृंदावन क्यों न भए हम मोर।
करत निवास गोबरधन ऊपर, निरखत नंद किशोर॥
क्यों न भये बंसी कुल सजनी, अधर पीवत घनघोर।
क्यों न भए गुंजा बन बेली, रहत स्याम जू की ओर॥
क्यों न भए मकराकृत कुण्डल, स्याम श्रवण झकझोर।
‘परमानन्द दास‘ को ठाकुर, गोपिन के चितचोर॥
देख जिऊँ माई नयन रँगीलो।
लै चल सखी री तेरे पायन लागौं, गोबर्धन धर छैल छबीलो॥
नव रंग नवल, नवल गुण नागर, नवल रूप नव भाँत नवीलो।
रस में रसिक रसिकनी भौहँन, रसमय बचन रसाल रसीलो॥
सुंदर सुभग सुभगता सीमा, सुभ सुदेस सौभाग्य सुसीलो।
‘कृष्णदास‘ प्रभु रसिक मुकुट मणि, सुभग चरित रिपुदमन हठीलो॥
प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सूत को उबटिन्हवावति।
करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति॥
छुटे बंद बागे अति सोभित,बिच बीच चोव अरगजा लावति।
सूथन लाल फूँदना सोभित,आजु कि छबि कछु कहति न आवति॥
विविध कुसुम की माला उर धरि श्री कर मुरली बेंत गहावति।
लै दर्पण देखे श्रीमुख को, 'गोविंद' प्रभु चरननि सिर नावति॥
धन्य श्री यमुने निधि देनहारी ।
करत गुणगान अज्ञान अध दूरि करि, जाय मिलवत पिय प्राणप्यारी ॥
जिन कोउ सन्देह करो बात चित्त में धरो, पुष्टिपथ अनुसरो सुखजु कारी ।
प्रेम के पुंज में रासरस कुंज में, ताही राखत रसरंग भारी ॥
श्री यमुने अरु प्राणपति प्राण अरु प्राणसुत, चहुजन जीव पर दया विचारी ।
‘छीतस्वामी‘ गिरिधरन श्री विट्ठल प्रीत के लिये अब संग धारी ॥
तब ते और न कछु सुहाय।
सुन्दर श्याम जबहिं ते देखे खरिक दुहावत गाय।।
आवति हुति चली मारग सखि, हौं अपने सति भाय।
मदन गोपाल देखि कै इकटक रही ठगी मुरझाय।।
बिखरी लोक लाज यह काजर बंधु अरु भाय।
‘दास चतुर्भुज‘ प्रभु गिरिवरधर तन मन लियो चुराय।।
नंद भवन को भूषण माई ।
यशुदा को लाल, वीर हलधर को, राधारमण सदा सुखदाई ॥
इंद्र को इंद्र, देव देवन को, ब्रह्म को ब्रह्म, महा बलदाई ।
काल को काल, ईश ईशन को, वरुण को वरुण, महा बलजाई ॥
शिव को धन, संतन को सरबस, महिमा वेद पुराणन गाई ।
‘नंददास’ को जीवन गिरिधर, गोकुल मंडन कुंवर कन्हाई ॥


इन कवियों में सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्चल भक्ति के कारण ये लोग भगवान कृष्ण के सखा भी माने जाते थे। परम भागवत होने के कारण यह लोग भगवदीय भी कहे जाते थे। यह सब विभिन्न वर्णों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास राजपूत थे, लेकिन खेती का काम करते थे। सूरदासजी किसी के मत से सारस्वत ब्राह्मण थे और किसी किसी के मत से ब्रह्मभट्ट थे। गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण थे और छीत स्वामी माथुर चौबे थे। नंददास जी सोरों सूकरक्षेत्र के सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के चचेरे भाई थे। अष्टछाप के भक्तों में बहुत ही उदारता पायी जाती है। "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" तथा "दो सौ वैष्ण्वन की वार्ता" में इनका जीवनवृत विस्तार से पाया जाता है।[3]

सन्दर्भ

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  1. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ॰ बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, २00२, पृष्ठ- १२८, ISBN: 81-7119-785-X
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक डॉ॰ नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशंग हाउस, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण १९७६ ई०, पृष्ठ २१७
  3. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, २00५, पृष्ठ- १२५-४१, ISBN: 81-7714-083-3