धर्म के लक्षण
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वाल्मीकि रामायण : क्षमा दानं क्षमा सत्यं क्षमा यज्ञश्च पुत्रिकाः। क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमयाविष्टितं जगत्॥ अर्थ: क्षमा दान है, क्षमा सत्य है, क्षमा यज्ञ है। क्षमा यश है, क्षमा ही धर्म है, वास्तव में यह जगत् पूर्णतः क्षमा से ही घिरा हुआ है।।
मनुस्मृति
[संपादित करें]मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
- धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
- धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।
याज्ञवल्क्य
[संपादित करें]याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं:
- अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
- दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत
[संपादित करें]श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :
- सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
- अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
- संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
- नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
- अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
- तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
- श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
- सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
- नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
- त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )
महात्मा विदुर
[संपादित करें]महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं -
- इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।
महाकवि तुलसीदास जी द्वारा वर्णित धर्मरथ
[संपादित करें]- सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई सो स्यन्दन आना।
- सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।
- बल बिबेक दम पर-हित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।
- ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म संतोष कृपाना।
- दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।
- अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।
- कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
- सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न कतहूँ रिपु ताकें।
- महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
- जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-धीर।। (लंकाकांड)
पद्मपुराण
[संपादित करें]- ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
- दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
- अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
- एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)
धर्मसर्वस्वम्
[संपादित करें]जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल' या 'एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है:
- श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
- आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]जैन धर्म के दिगम्बर अनुयायियों द्वारा आदर्श अवस्था में अपनाये जाने वाले गुणों को दश लक्षण धर्म कहा जाता है। इसके अनुसार जीवन में सुख-शांति के लिए उत्तम क्षर्मा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य आदि दशलक्षण धर्मों का पालन हर मनुष्य को करना चाहिए
जैन ग्रन्थ, तत्त्वार्थ सूत्र में १० धर्मों का वर्णन है। यह १० धर्म है:
· उत्तम क्षमा
· उत्तम मार्दव
· उत्तम आर्जव
· उत्तम शौच
· उत्तम सत्य
· उत्तम संयम
· उत्तम तप
· उत्तम त्याग
· उत्तम आकिंचन्य
· उत्तम ब्रह्मचर्य
दसलक्षण पर्व पर इन दस धर्मों को धारण किया जाता है।जैन धर्म में इन दस धर्मों की पूजा उपासना की जाती है और नियम रूप से मन दिन के हिसाब से माना भी जाता है जो क्रमशः इस प्रकार मनाये जाते है| (आशीष जैन)
उत्तम क्षमा
[संपादित करें]· (क) हम उनसे क्षमा मांगते हैं, जिनके साथ हमने बुरा व्यवहार किया हो और उन्हें क्षमा करते हैं, जिन्होंने हमारे साथ बुरा व्यवहार किया हो॥
सिर्फ इन्सानों के लिए ही नहीं, बल्कि हर एक- इन्द्रिय से पांच- इन्द्रिय जीवों के प्रति, भी ऐसा ही क्षमा-भाव रखते हैं ॥
· (ख) उत्तम क्षमा धर्म हमारी आत्मा को सही राह खोजने में और क्षमा को जीवन और व्यवहार में लाना सिखाता है!
जिससे सम्यक दर्शन प्राप्त होता है ॥
सम्यक दर्शन वो चीज है, जो आत्मा को कठोर तप त्याग की कुछ समय की यातना सहन करके परम आनंद मोक्ष को पाने का प्रथम मार्ग है ॥
इस दिन बोला जाता है-
सबको क्षमा :: सबसे क्षमा ॥
उत्तम मार्दव
भाद्रमाह के सुद छठ को दिगंबर जैन समाज के पर्वाधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का दूसरा दिन होता है!
· (क) अकसर धन, दौलत, शान और शौकत इन्सान को अहंकारी और अभिमानी बना देता है, ऐसा व्यक्ति दूसरों को छोटा और अपने आप को सर्वोच्च मानता है॥
ये सभी चीजें नाशवान हैं! ये सभी चीजें एक दिन आप को छोड देंगी या फिर आपको एक दिन मजबूरन इन चीजों को छोडना ही पडेगा ॥
नाशवंत चीजों के पीछे भागने से बेहतर है कि अभिमान और परिग्रह (सभी बुरे कर्मों में बढोतरी करते हैं ) को छोडा जाये और सभी से विनम्र भाव से पेश आएँ! सभी जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखें, क्योंकि सभी जीवों को अपना जीवन जीने का अधिकार है ॥
· (ख) मार्दव धर्म हमें अपने आप की सही वृत्ति को समझने का जरिया है!
सभी को एक न एक दिन जाना ही है, तो फिर यह सब परिग्रहों का त्याग करें और बेहतर है कि खुद को पहचानों और परिग्रहों का नाश करने के लिए खुद को तप, त्याग के साथ साधना रूपी भट्टी में झोंक दो, क्योंकि इनसे बचने का और परमशांति व मोक्ष को पाने का साधना ही एकमात्र विकल्प है ॥
उत्तम आर्जव
भाद्रमाह के सुद सप्तमी को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का तीसरा दिन होता है!
· (क) हम सब को सरल स्वभाव रखना चाहिए, बने उतना कपट को त्याग करना चाहिए॥
· (ख) कपट के भ्रम में जीना दुखी होने का मूल कारण है॥
आत्मा ज्ञान, खुशी, प्रयास, विश्वास जैसे असंख्य गूणों से सिंचित है! उस में इतनी ताकत है कि *कैवल्य- ज्ञान* को प्राप्त कर सके॥
उत्तम आजॅव धर्म हमें सिखाता है कि मोह-माया, बुरे कमॅ सब छोड -छाड कर सरल स्वभाव के साथ परम आनंद मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ॥
उत्तम शौच
भाद्रमाह के सुद अष्टमी को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का चौथा दिन होता है!
· (क) किसी चीज़ की इच्छा होना इस बात का प्रतीक है कि हमारे पास वह चीज नहीं है! तो बेहतर है कि हम अपने पास जो कुछ है, उसके लिए परमात्मा का शुक्रिया अदा करें और संतोषी बनकर उसी में काम चलायें ॥
· (ख) भौतिक संसाधनों और धन- दौलत में खुशी खोजना यह महज आत्मा का एक भ्रम है।
उत्तम शौच धमॅ हमें यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना मिला है, उसी में खुश रहो! परमात्मा का हमेशा शुक्रिया मानों और अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥
उत्तम सत्य
भाद्रमाह के सुद नवमी को दिगंबर जैन समाज के पर्वाधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का पाँचवाँ दिन होता है
· (क) झूठ बोलना बुरे कर्म में बढोतरी करता है ॥
· (ख) सत्य जो 'सत' शब्द से आया है जिसका मतलब है वास्तविक होना॥
उत्तम सत्य धर्म हमें यही सिखाता है कि आत्मा की प्रकृति जानने के लिए सत्य आवश्यक है और इसके आधार पर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥ अपने मन आत्मा को सरल और शुद्ध बना लें तो सत्य अपने आप ही आ जाएगा ॥
उत्तम संयम
भाद्रमाह के सुद दशमी को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का छठा दिन होता है! इस दिन को धूप दशमी के रूप में मनाया जाता है!
लोग इस दिन बैंड बाजों के साथ घर से धूप लेकर जाते हैं और मंदिर में भगवान के दर्शन के साथ धूप चढा कर खूशबू फैलाते हैं और कामना करते हैं कि इस धूप की तरह ही हमारा जीवन भी हमेशा महकता रहे॥
पसंद नापसंद ग़ुस्से का त्याग करना। इन सब से छुटकारा तब ही मुमकिन है जब अपनी आत्मा को इन सब प्रलोभनों से मुक्त करें और स्थिर मन के साथ संयम रखें ॥ इसी राह पर चलते परम आनंद मोक्ष की प्राप्ति मुमकिन है ॥
उत्तम तप
भाद्रमाह के सुद ग्यारस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का सातवाँ दिन होता है!
· (क) तप का मतलब सिर्फ उपवास में भोजन नहीं करना, सिफॅ इतना ही नहीं, बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सभी क्रिया-कलापों के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना! ऐसा तप अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है ॥
· (ख) साधना इच्छाओं की वृद्धि नहीं करने का एकमात्र मागॅ है ॥
पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने करीब छह महीनों तक ऐसी तप-साधना (बिना खाए बिना पिए) की थी और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त किया था ॥
हमारे तीर्थंकरों जैसी तप-साधना करना इस जमाने में शायद मुमकिन नहीं है, पर हम भी ऐसी ही भावना रखते हैं और पर्यूषण पवॅ के 10 दिनों के दौरान उपवास (बिना खाए बिना पिए), एकाशन (एकबार खाना-पानी) करतें हैं और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करने की राह पर चलने का प्रयत्न करते हैं ॥
उत्तम त्याग
भाद्रमाह के सुद बारस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का आठवाँ दिन होता है!
· (क) 'त्याग' शब्द से ही पता लग जाता है कि इसका मतलब छोडना है और जीवन को संतुष्ट बना कर अपनी इच्छाओं को वश में करना है!
यह न सिर्फ अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है, बल्कि बुरे कर्मों का नाश भी करता है ॥
छोडने की भावना जैन धर्म में सबसे अधिक है, क्योंकि जैन-संत सिफॅ अपना घर-बार ही नहीं, बल्कि (यहां तक कि) :अपने कपडे भी त्याग देता है और पूरा जीवन दिगंबर मुद्रा धारण करके व्यतीत करता है ॥
इन्सान की शक्ति इससे नहीं परखी जाती है कि उसके पास कितनी धन -दौलत है, बल्कि इससे परखी जाती है कि उसने कितना छोडा है, कितना त्याग किया है !
· (ख) उत्तम त्याग धर्म हमें यही सिखाता है कि मन को संतोषी बनाकर के ही इच्छाओं और भावनाओं का त्याग करना मुमकिन है ॥ त्याग की भावना भीतरी आत्मा को शुद्ध बनाने पर ही होती है ॥
उत्तम आकिंचन्य
भाद्रमाह के सुद तेरस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का नौवाँ दिन होता है
· (क) आँकिंचन हमें मोह को त्याग करना सिखाता है ॥ दस शक्यता है, जिनके हम बाहरी रूप में मालिक हो सकते है; जमीन, घर, चाँदी, सोना, धन, अन्न, महिला नौकर, पुरुष नौकर, कपडे और संसाधन इन सब का मोह न रखकर ना सिफॅ इच्छाओं पर काबू रख सकते हैं बल्कि इससे गुणवान कर्मों मे वृद्धि भी होती है ॥
· (ख) आत्मा के भीतरी मोह जैसे गलत मान्यता, गुस्सा, घमंड, कपट, लालच, मजाक, पसंद-नापसंद, डर, शोक, और वासना इन सब मोह का त्याग करके ही आत्मा को शुद्ध बनाया जा सकता है ॥
सभी मोह, प्रलोभनों और परिग्रहों को छोडकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥
उत्तम ब्रह्मचर्य
भाद्रमाह के सुद चौदस को दिगंबर जैन समाज के पवाॅधिराज पर्यूषण दसलक्षण पर्व का दसवाँ दिन होता है!
इस दिन को अनंत चतुर्दशी कहते हैं! इस दिन को लोग परमात्मा के समक्ष अखंड दिया लगाते हैं!
· (क) ब्रह्मचर्य हमें सिखाता है कि उन परिग्रहों का त्याग करना, जो हमारे भौतिक संपर्क से जुडी हुई हैं!
जैसे जमीन पर सोना न कि गद्दे तकियों पर, जरुरत से ज्यादा किसी वस्तु का उपयोग न करना, व्यय, मोह, वासना ना रखते हुए सादगी से जीवन व्यतीत करना ॥
कई सन्त इसका पालन करते हैं और विशेषकर जैन-संत शरीर, जुबान और दिमाग से सबसे ज्यादा इसका ही पालन करते हैं ॥
· (ख) 'ब्रह्म' जिसका मतलब आत्मा, और 'चर्या' का मतलब "रखना", इसको मिलाकर ब्रह्मचर्य शब्द बना है, ब्रह्मचर्य का मतलब अपनी आत्मा में रहना है ॥
ब्रह्मचर्य का पालन करने से आपको पूरे ब्रह्मांड का ज्ञान और शक्ति प्राप्त होगी और ऐसा न करने पर, आप सिर्फ अपनी इच्छाओं और कामनाओं के गुलाम ही रहेंगे॥
मिच्छामी दूक्कडम
[संपादित करें]अनंत चतुर्दशी के दूसरे दिन मंदिर में सभी लोग, भक्त-जन एक साथ प्रतिक्रमण करते हुए पूरे साल मे किये गए पाप और कटु वचन से किसी के दिल को जाने-अनजाने ठेस पहुंची हो, तो उसके लिए एक-दूसरे को क्षमा करते हैं और एक-दूसरे से क्षमा माँगते है और हाथ जोड कर गले मिलकर मिच्छामी दूक्कडम कहते हैं। जो लोग उपस्थित नहीं होते, उनसे दूसरे दिन क्षमा-याचना करते हैं।
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- सनातन मानव-धर्म
- पूर्णता देता है धर्म Archived 2010-10-24 at the वेबैक मशीन (दैनिक जागरण)