घोटुल

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घोटुल एक बड़े 'कुटीर' को कहते हैं जिसमें पूरे गाँव के बच्चे या किशोर सामूहिक रूप से रहते हैं। यह छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और महाराष्ट्रआंध्र प्रदेश के पड़ोसी क्षेत्रों के गोंड के माड़िया उपजाति के ग्रामों में विशेष रूप से मिलते हैं। दूसरे शब्दों में, घोटुल जनजातीय गाँवों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र होता है।

अलग-अलग क्षेत्रों में घोटुल सम्बन्धी परम्पराओं में अन्तर होता है। कुछ में जवान लड़के-लड़कियां घोटुल में ही सोते हैं तो कुछ में वे दिन भर वहां रहकर रात को अपने-अपने घरों में सोने जाते हैं। कुछ में नौजवान लड़के-लड़कियां आपस में मिलकर जीवन-साथी चुनते हैं। हालांकि यह परम्परा अब धीरे-धीरे कम हो रही है। घोटुल में उस जाति से सम्बन्धित आस्थाएं, नाच-संगीत, कला और कहानियां भी बताई जाती हैं।[1][2]

घोटुल, गांव के किनारे बांस या मिट्टी की बनी झोंपड़ी होती है। घोटुल को सुन्दर बनाने के लिए उसकी दीवारों में रंगरोगन करके उस पर चित्रकारी भी की जाती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मंडप होता है।

यह परम्परा इस जनजाति के किशोरों को शिक्षा देने के उद्देश्य से शुरू किया गया अनूठा अभियान है। इसमें दिन में बच्चे शिक्षा से लेकर घर–गृहस्थी तक के पाठ पढ़ते हैं तो शाम के समय मनोरंजन और रात के समय आनन्द लिया जाता है। मुरिया बच्‍चे जैसे ही 10 साल के होते है घोटुल के सदस्‍य बन जाते हैं। घोटुल में शामिल लड़कियों को 'मोटीयारी' और लड़कों को 'चेलिक' कहते हैं। लड़कियों के प्रमुख को 'बेलोसा' और लड़कों के प्रमुख को 'सिलेदार' कहते हैं। घोटुल में व्यस्कों की भूमिका केवल सलाहकार की होती है, जो बच्‍चों को सफाई, अनुशासन व सामुदायिक सेवा के महत्व से परिचित करवाते हैं। घोटुल में किशोर-किशोरियां के अलावा केवल उनके शिक्षक ही प्रवेश कर सकते हैं।

हर शाम बजने वाला नगाड़ा इस बात का संकेत होता है कि मोतियारियों और चेलिकों के घोटुल में जाकर मनोरंजन करने का समय हो गया है। वहां देर रात तक नाचने-गाने, मिलने-जुलने, छेड़छाड़-चुहल, अंत्याक्षरी और दूसरे तरह के खेल चलते रहते हैं। तम्‍बाकू और ताड़ी सबके के लिए उपलब्‍ध होता है। मनोरंजन और कामकाज की शिक्षा के अलावा घोटुल का उद्देश्य नौजवानों को व्‍यापक गोंड समुदाय का हिस्‍सा बनाना भी होता है, जिससे उन्हें अपनी परंपराओं और जिम्‍मेदारियों का समय रहते अहसास हो सके। अंतिम संस्कार समेत आदिवासी समाज के सभी संस्कारों में घोटुल के सदस्य जरूर शामिल होते हैं।

घोटुल समुदाय के लोग मुगल और ब्रिटिश काल के मध्य 1750 ई में बस्तर छोड़कर भाग कर नालन्दा बस गए। आज कल इन्हें सायद 'घमाइला' उपजाति के नाम से जाना जाता है लेकिन ये पूरी तरह प्रमाणित नहीं है। इन्होंने पानीपत के युद्ध मे मराठों का साथ भी दिया। ये एक अच्छे योद्धा हुआ करते थे।

लिंगो देव[संपादित करें]

यह प्रथा लिंगो पेन अर्थात् लिंगो देव ने शुरू की थी। लिंगो देव को गोंड जनजाति का देवता माना जाता है। समस्त गोंड समुदाय को पहांदी कुपार लिंगो ने कोया पुनेम के मध्यम से एक सूत्र में बंधने का काम किया।

सदियों पहले जब लिंगो देव ने देखा कि गोंड जाति में किसी भी तरह की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है तो उन्होंने एक अनोखी प्रथा शुरू की। उन्होंने बस्ती के बाहर बांस की कुछ झोंपडि़यां बनवाई और बच्चों को वहां पढ़ाना शुरू कर दिया। यही झोंपडियां बाद में 'घोंटुल' के नाम से प्रसिद्ध हुईं। इनमें बच्चों को जीवन से जुड़ी हर शिक्षा दी जाती थी।

जीवनसाथी का चुनाव[संपादित करें]

जैसे ही कोई लड़का घोंटुल में आता है और उसे लगता है कि वह शारीरिक रूप से परिपक्व हो गया है, उसे बांस की एक कंघी बनानी होती है। यह कंघी बनाने में वह अपनी पूरी शक्ति और कला झोंक देता है, क्योंकि यही कंघी तय करती है कि वह किस लड़की को पसंद आएगा। घोंटुल में आई लड़की को जब कोई लड़का पसंद आता है तो वह उसकी कंघी चुरा लेती है। यह संकेत होता है कि वह उस लड़के को चाहती है। जैसे ही वह लड़की यह कंघी अपने बालों में लगाकर निकलती है, सबको पता चल जाता है कि वह किसी को चाहने लगी है। लड़के–लड़की की जोड़ी बन जाती है तो वे दोनों मिलकर अपने घोटुल को सजाते–संवारते हैं और दोनों एक ही झोंपड़ी में रहने लगते हैं। इस दौरान वे वैवाहिक जीवन से जुड़ी विभिन्न शिक्षाएँ स्वयं प्राप्त करते हैं। इसमें एक-दूसरे की भावनाओं को समझने से लेकर शारीरिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करना तक शामिल होता है। यहां विशेष बात यह है कि केवल वही लड़के–लड़कियां एक साथ एक घोटुल में जा सकते हैं, जो सार्वजनिक हो चुके हों कि वे एक–दूसरे से प्रेम करते हैं।

वर्तमान समय में घोटुल प्रथा[संपादित करें]

बस्तर के आंतरिक क्षेत्रों में घोटुल आज भी अपने बदले हुए रूप में देखा जा सकता है। किन्तु बस्तर में बाहरी दुनिया के कदम पड़ने से घोटुल का असली चेहरा बिगड़ा है। बाहरी लोगों के यहां आने और फोटो खींचने, वीडियो फिल्म बनाने के कारण ही यह परम्परा बन्द होने की कगार पर है।

यह परम्परा माओवादियों को भी पसन्द नहीं है। इसके लिए उन्होंने बकायदा कई जगह 'आदेश' जारी कर इस पर प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश की है। उनकी नजर में यह एक तरह का स्वयंवर है और जवान लड़के-लड़कियों को इतनी आजादी देना ठीक नहीं है। उनका यह भी मानना है कि कई जगह पर इस परम्परा का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है और लड़कियों का शारीरिक शोषण भी किया जा रहा है। कई इलाकों में यह परम्परा पूरी तरह बंद तो नहीं हुई है, लेकिन कम जरूर हो रही है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Tribes of India: Ongoing Challenges, pp. 44, M.D. Publications Pvt. Ltd., 1996, ISBN 9788175330078, ... The Muria Gond or the Ghotul Muria, found in around Narainpur tahsil of Bastar, became famous after Elwin's magnum-opus, The Muria and Their Ghotul, was published. The Muria Gonds still have the institution of ghotul but it is dying fast ...
  2. The Gonds Of Vidarbha, Shashishekhar Gopal Deogaonkar, pp. 95, Concept Publishing Company, 2007, ISBN 9788180694745, ... However, the nature and functions of the Ghotuls on Maharashtra side and on the Bastar side do differ largely. The Bastar Ghotuls are known for the free mixing of Gond girls and boys, their singing, dancing and sleeping in the Ghotul and ultimate pairing resulting in marriages ...