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मृदा

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पृथ्वी के ऊपरी सतह पर मोटे, मध्यम और बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक मिश्रित कणों को 'मृदा' मिट्टी कहते हैं। मृदा की ऊपरी सतह पर से मिट्टी हटाने पर प्राय:जो परत प्राप्त होती है उसे चट्टान [शैल]कहते है। कभी कभी थोड़ी गहराई पर ही चट्टान मिल जाती है। 'मृदा विज्ञान' (Pedology) भौतिक भूगोल की एक प्रमुख शाखा है जिसमें मृदा के निर्माण, उसकी विशेषताओं एवं धरातल पर उसके वितरण का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं। पृथ्वी की ऊपरी सतह के कणों को ही ( छोटे या बडे) soil कहा जाता है। मृदा को ही मिट्टी कहा जाता हैं ।

भारत में छः प्रकार के मृदा पाए जाते हैं

1.जलोढ़ मृदा

2. काली मिट्टी/रेगुर मृदा

3.लाल मिट्टी और पीली मृदा तथा पर्वा या राकर

4.लैटेराइट मृदा

5.मरुस्थली मृदा

6.वन मृदा

नदियों के किनारे तथा पानी के बहाव से लाई गई मिट्टी जिसको 'कछार मिट्टी'(जलोढ़ मिट्टी) कहते हैं, खोदने पर चट्टान नहीं मिलती। वहाँ नीचे के स्तर में जल का स्रोत मिलता है। सभी मिट्टियों की उत्पत्ति चट्टान से हुई है। जहाँ प्रकृति ने मिट्टी में अधिक हेर-फेर नहीं किया और जलवायु का प्रभाव अधिक नहीं पड़ा, वहाँ यह संभव है कि हम नीचे की चट्टानों से ऊपर की मिट्टी का संबंध क्रमबद्ध रूप से स्थापित कर सकें। यद्यपि ऊपर की सतह की मिट्टी का रंग-रूप नीचे की चट्टान से बिलकुल भिन्न है, फिर भी दोनों में रासायनिक संबंध रहता है और यदि प्राकृतिक क्रिया द्वारा, अर्थात् जल द्वारा बहाकर, अथवा वायु द्वारा उड़ाकर, दूसरे स्थल से मिट्टी नहीं लाई गई है, तब यह संबंध पूर्ण रूप से स्थापित किया जा सकता है। चट्टान के ऊपर एक स्तर ऐसा भी पाया जा सकता है जो चट्टान से ही बना है और अभी प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा पूर्णत: मिट्टी के रूप में नहीं आया है, सिर्फ चट्टान के मोटे-मोटे टुकड़े हो गए हैं, जो न तो मिट्टी कहे जा सकते हैं और न चट्टान। इन्हीं की ऊपरी सतह में मिट्टी की बनावट पाई जाती है। इसी स्तर की मिट्टी में हमें नीचे की चट्टान के रासायनिक और भौतिक गुणों का संचय मिल सकता है। यदि चट्टान क्रिस्टलीय है, तो इसकी संभावना शत प्रतिशत पक्की है। नीचे की चट्टान के अत्यंत निकटवर्ती, पार्श्व भाग में चट्टान के समान रासायनिक और भौतिक गुण प्राप्त हो सकते हैं। जैसे-जैसे ऊपर की ओर दूरी बढ़ती जाएगी चट्टान की रूपरेखा भी बदलती जाएगी। अंत में हम वह मिट्टी पाते हैं, जो कृषि के लिये अत्यन्त अनुकूल सिद्ध हुई है और जिसपर आदि काल से कृषि होती आ रही है तथा मनुष्य फसल पैदा करता रहा है। कोई-कोई मिट्टी दूसरी जगह की चट्टानों से बनकर प्राकृतिक कारणों से आ जाती है। ऐसे स्थानों में यह सम्भावना नहीं है कि ऊपर की मिट्टी का भौतिक तथा रासायनिक सम्बन्ध नीचे के संचय से स्थापित किया जाय, पर यह निश्चित है कि मिट्टी की उत्पत्ति चट्टानों से हुई है। खेतों की मिट्टी में चट्टानों के खनिजों के साथ-साथ, पेड़ पौधों के सड़ने से, कार्बनिक पदार्थ भी पाए जाते हैं।

सूक्ष्मदर्शी द्वारा तथा रासायनिक विश्लेषण से पता चलता है कि चट्टानों की छीजन क्रिया प्रकृति में पाए जानेवाले रासायनिक द्रव्यों के प्रभाव से धीरे-धीरे होती है। चट्टानों के रासायनिक अवयव बदल जाते हैं और मिट्टी की रूपरेखा बिलकुल भिन्न प्रतीत होती है। यदि चट्टान का छीजना ही मिट्टी के बनने में एक प्रधान क्रिया होती तो हम आज खेतों की मिट्टी को पौधों के पनपाने के लिये अनुकूल नहीं पाते। मिट्टी की तुलना पीसी हुई बारीक चट्टान से नहीं की जा सकती। यद्यपि चट्टानों के खनिज मिट्टी के ऊपरी भाग में बहुत पाए जाते हैं और उनके टुकड़े भी बड़े परिमाण में वर्तमान रहते हैं, फिर भी मिट्टी में जीव-जंतु क्रियाएँ होती रहती हैं, जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई हैं। जीवजंतु तथा उनसे संबंध रखनेवाले पदार्थो के, जैसे पेड़ पौधों की सड़ी हुई वस्तुओं और सड़े हुए जीव जंतुओं के, प्रभाव से कलिल अवस्था में प्राप्त चट्टानों के छोटे छोटे कणों पर प्रतिक्रिया होती रहती है और मिट्टी का रंग रूप बदल जाता है। यह रूप चट्टानों के सिर्फ कणों का नहीं रहता, मिट्टी का एक नवीन प्रणाली की भूषा से सुसज्जित हो जाती है। हम सूक्ष्मदर्शी से मिट्टी के एक टुकड़े की परीक्षा करें और फिर उसी यंत्र द्वारा इन चट्टानों के कणों की परीक्षा करें तो हम दोनों में जमीन आसमान का अंतर पावेंगे। यह अंतर उन अकार्बनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से होता है जो जीव-जंतु और पौधों से प्राप्त होते हैं।

प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा चट्टानों का छोटे-छोटे कणों में परिवर्तन होने से मिट्टी के बनने में जो सहायता होती है, उस क्रिया को अपक्षय (weathering) कहते हैं। यह क्रिया महत्वपूर्ण है और इसके कारण ही हम पृथ्वी पर मिट्टी को कृषि के अनुकूल पाते हैं। इस क्रिया में जल, हवा में स्थित ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, जीवाणुओं तथा अन्य अम्लीय रासायनिक द्रव्यों से बहुत सहायता मिलती है।

मिट्टी का पार्श्व दृश्य और उसके संस्तर

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यह मानी हुई बात है कि 📒जिस मिट्टी पर प्राकृतिक क्रियाएँ होती है, जल का प्रपात तथा वायु और सूर्यकिरण का संसर्ग होता रहता है, वह कुछ वर्षो में ऐसा रूप धारण कर लेती है जिससे उसके नीचे की भिन्न रूप रंग और गुणवाली मिट्टियों के बहुत से संस्तर हो जाते हैं।📒 यदि हम मिट्टी की ऊपरी सतह पर १० या १२ फुट गहरा गड्ढा खोदें और मिट्टी के पार्श्व का अवलोकन करें, तो हमें नियमित रूप से कई भिन्न रूप रंग, रचना की मिट्टी एक स्तर से दूसरे स्तर तक मिलती जाएगी। वैज्ञानिकों ने इसके तीन ही प्रधान स्तर माने हैं और वे किन-किन कारणों से और किन-किन परिस्थितियों में पाए जाते हैं, इसका भी वर्णन किया है।

जल मिट्टी के ऊपरी संस्तर पर से होते हुए और बहुत से रासायनिक द्रव्यों को लेते हुए नीचे के संस्तर में जाता है और वहाँ मिट्टी के साथ मिलकर अनेक रासायनिक क्रियाओं द्वारा मिट्टी के रंग रूप को बदल देता है। इस तरह ऊपर से द्रव्य आकर नीचे के संस्तर में जमा हो जाते हैं।

इनमें एक है ऊपरी संस्तर, जिसमें से जल द्वारा विलयन होकर द्रव्य नीचे की ओर जाते हैं, अथवा अवक्षेपण क्रिया द्वारा नीचे के स्तर में जमा हो जाते हैं। इस ऊपरी संस्तर को हम (अ) संस्तर कहते हैं। दूसरा वह संस्तर है, जिसमें ऊपर वर्णन की गई क्रिया द्वारा द्रव्य आकर जमा होते हैं इसे (ब) संस्तर कहते हैं। तीसरा संस्तर उसके नीचे है, जिसमें ऊपर की मिट्टी बनती है, इसे (स) संस्तर कहते है। इस संस्तर को दूसरे शब्दों में पैतृक संस्तर (parent horizon) भी कहा जाता है। यह नाम इसलिये सार्थक है कि इसी संस्तर से ऊपर वाली मिट्टी की उत्पति हुई है। इस संस्तर में चट्टान और उससे बने बड़े-बड़े मलबे (debris) पाए जाते हैं। हर एक संस्तर में [प्राय: (अ) और (ब) संस्तर में] भिन्न-भिन्न संस्तर सम्मिलित रहते हैं। संस्तरों का क्रमबद्ध संबंध दिखलाना अति कठिन समस्या है। इस समस्या को पहले रूस के वैज्ञानिकों ने हल किया था। सबसे कठिन समस्या तब प्रकट होती है जब मिट्टी के ऊपरी संस्तर का कुछ अंश अपरदन (erosion) द्वारा कट जाता है। कभी-कभी तो संपूर्ण (अ) संस्तर का कटाव हो जाता है और (स) संस्तर रह जाता है।

इन संस्तरों के आंतरिक संबंध पर जिस विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान होता है, उसे मृदाविज्ञान (Pedology) कहते हैं। इस विज्ञान से मिट्टी के वर्गीकरण में अधिक सहायता मिलती है। यह आधुनिक विज्ञान है और इसकी उत्तरोतर उन्नति होती जा रही है। अब यह प्राय: सिद्ध हो गया है कि मिट्टी की ऊपरी सतह के भौतिक और रासायनिक गुणों को जान लेने से ही कृषि को लाभ नहीं हो सकता। पौधों की बढ़ती को जानने के लिये तथा कृषकों को सलाह देने के लिए यह आवश्यक है कि मिट्टी के विभिन्न संस्तरों के भौतिक और रासायनिक गुण तथा इनका परस्पर संबंध जान लिया जाय।

📒मिट्टी में विभिन्न प्रकार के कण रहते हैं। इनमें जो औसतन न्यून मात्रा के कण हैं, वे ही मिट्टी को उर्वरा बनाने के लिये आवश्यक हैं। इनके कारण मिट्टी की मृदुकण रचना (crumb structure) की उत्पति होती है। इस रचना द्वारा मिट्टी में जल अवशोषण की क्रिया बढ़ जाती है तथा पौधों के लिये अन्य विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ भी अवशोषित होते हैं।📒

📒मिट्टी के भौतिक गुण मिट्टी की संरचना, जलवायु मिट्टी में स्थित ऊष्मा एवं खनिज पदार्थो पर निर्भर हैं। मिट्टी के कण भिन्न-भिन्न आकार प्रकार के, कोई बड़े तो कोई छोटे और कोई अति सूक्ष्म, होते हैं। बड़े आकार के कण छोटे-छोटे पत्थरों के टुकड़े होते हैं। जैसे जैसे इनपर प्राकृतिक क्रियाएँ होती जाती हैं, बड़े टुकड़े छोटे होते जाते हैं और अंत में बालू, सिल्ट, चिकनी मिट्टी अथवा दोमट मिट्टी के आकार के हो जाते हैं। मिट्टी के बड़े आकार के कण अधिकांश बलुई मिट्टी में पाए जाते हैं और छोटे आकार के कण मटियार मिट्टी में मिलते हैं। इन्हीं दोनों आकार के कणों के मिश्रण से भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टियाँ बनती हैं और उनके भिन्न-भिन्न भौतिक गुण भी हुआ करते हैं। मिट्टी में स्थित भौतिक गुणों का कृषि विज्ञान से अत्यंत गहरा संबंध है।📒

मिट्टी के कुछ भौतिक गुण, जैसे आपेक्षिक गुरुत्व, कणविन्यास (structure), कण आकार, (texture), मिट्टी की सुघट्यता और संसंजन, रंग, भार कणांतरिक छिद्र, समूह आदि महत्व के हैं, मिट्टी का आपेक्षिक गुरुत्व दो प्रकार का, एक आभासी (apparent) और दूसरा निरपेक्ष (absolute) होता है।

आभासी आपेक्षिक गुरुत्व मिट्टी के भीतरी भाग में जल तथा वायु के समावेश से प्राप्त होता है, अर्थात् यह मिट्टी के भीतरी स्थित खनिज से मिश्रित जल और वायु का गुरुत्व है। इसलिये इस गुरुत्व की मात्रा निरपेक्ष आपेक्षिक गुरुत्व से कम होती है। किसी ज्ञात आयतन वाली शुष्क मिट्टी के भार और उसी आयतनवाले जल के भार का यह अनुपात है। यह १.४० से १.६८ तक होता है। चिकनी मिट्टी और सिल्ट के कण बहुत छोटे और हल्के होते हैं, इसलिये वे एक दूसरे के साथ सघन नहीं हो पाते। ऐसी मिट्टी का भार कम होता है। मटियार, दोमट तथा सिल्ट मिट्टी का भार जानने के लिये उसे शुष्क बना दिया जाता है, क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टी में नमी भिन्न प्रकार की होती है। निरपेक्ष आपेक्षिक गुरुत्व मिट्टी के उन भागों से संबंध रखता है जो खनिज तत्व है। इस कारण इसका मान अधिक होता है। निरपेक्ष आपेक्षिक गुरुत्व १.४ से २.६ के बीच में होता है।

मिट्टी के कण समूह बनाते हैं। भिन्न-भिन्न समूह भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टी उत्पन्न करते हैं। ये कण एक दूसरे के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार से मिले हुए हैं और इनका पारस्परिक संबंध दृढ़ तथा व्यवस्थित होता है। कण किसी भी रूप और आकार के हो सकते हैं। मिट्टी की उर्वरता कणों के विन्यास पर निर्भर है। पौधों को हवा और पानी की आवश्यकता होती है और हवा तथा पानी का मिट्टी में रहना कणों के विन्यास पर निर्भर है। ये कण समूह हैं-

  • (१) एककणीय (single grain),
  • (२) स्थूलकणीय (massive),
  • (३) मृदुकणीय (crumb),
  • (४) दानेदार (granular),
  • (५) खंडात्मक (fragmentary),
  • (६) पलवार (mulch),
  • (७) गिरिदार (nut)
  • (८) प्रिज़्मीय (prismatic),
  • (९) स्तंभाकार (columnar),
  • (१०) परतदार (platy),
  • (११) गोलाकार (shot) और
  • (१२) वज्रसारीय (orstein)

हो सकते हैं।

  • (१) एककणीय विन्यास में कण अधिकांश अलग-अलग रहते हैं। इसमें पानी अधिक देर तक नहीं ठहरता। रेतीली मिट्टी में ऐसा होता है।
  • (२) स्थूलकणीय में छोटे-छोटे कण मजबूती से इकट्ठे होकर बहुत बड़े बड़े हो जाते हैं। इसमें कणांतरिक छिद्र बहुत कम होते हैं।
  • (३) मृदुकणीय विन्यास में छोटे-छोटे कणों के परस्पर मिल जाने से मिट्टी बनती है। यह उर्वरा होती है। इसमें जल देर तक ठहरता है।
  • (४) कणों के परस्पर मिलकर कंकर बनने से दानेदार मिट्टी बनती है। पौधों की वृद्धि के लिये यह विन्यास अच्छा नहीं है।
  • (५) खंडात्मक बनावट में छोटे-छोटे कण बहुत बड़े ढेलों के समान हो जाते हैं और अनियमित रूप से वितरित रहते हैं। यह बनावट पौधों के लिये अच्छी नहीं है।
  • (६) पलवार विन्यास कार्बनिक पदार्थों के साथ कणों के मिश्रित होने से बनता है। इसमें कणों की पारस्परिक दूरी कम रहती है और पानी का अवशोषण अधिक होता है।
  • (७) गिरिदार रचना में छोटे-छोटे कण पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े के आकार को प्राप्त होते हैं। कण आपस में मिलकर बड़े ठोस हो जाते हैं और अनियमित रूप से वितरित रहते हैं। इस रचना में पानी नहीं ठहरता और कार्बनिक पदार्थ की कमी होने के कारण मिट्टी की उर्वरता कम रहती है।
  • (८) प्रिज्म़ीय बनावट कणों के त्रिकोणिक वितरण पर निर्भर है। वायु और जल की न्यूनता के कारण यह उतनी उपजाऊ नहीं है।
  • (९) स्तंभाकार रचना में कण एक दूसरे से मिलकर गोलाकार रूप धारण करते हैं और बहुत कठोर मिट्ट बनाते हैं।
  • (१०) परतदार मिट्टी की रचना अभ्रक में पाई गई परत का रूप धारण करती हैं। मिट्टी के कण परत के रूप में अभ्रक के सट्टश रहते हैं। यह रचना भी पौधों के लिये लाभदायक नहीं है, क्योंकि इसमे जल एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलता से नहीं जा पाता।
  • (११) गोलाकार रचना कणों के गेंद के समान गोल आकार होने पर बनती है। इसमें कार्बनिक पदार्थ की कमी होने से मिट्टी की उर्वरता कम रहती है।
  • (१२) वज्रसार विन्यास में मिट्टी के सभी कण एक दूसरे से आकर्षित होकर, परस्पर बहुत मजबूती से बँध जाते हैं। इसके बनने में मिट्टी का लोहा और कैल्सियम बहुत सहायक होते हैं। यह विन्यास पौधों के लिये हानिकारक है, क्योंकि इसमें न तो पौधों की जड़ें बढ़ सकती हैं, न जल का ही संचारण सरलता से हो सकता है तथा न हवा का प्रवेश ही स्वच्छंदता से हो सकता है।
मृदा गठन त्रिकोण (soil texture triange)

कणों के आकार का प्रभाव मिट्टी के अन्य भौतिक गुणों पर भी पड़ता है। बड़े आकार के कणोंवाली मिट्टी के कणांतरिक छिद्र बड़े होते हैं। ऐसी मिट्टी में जल बड़ी तीव्रता से नीचे बह जाता है, जिससे नमी का सदा अभाव रहता है। ऐसी मिट्टी में शीघ्र गरम और ठंडा हो जाने का गुण रहता है तथा ऐसी मिट्टी ऊसर होती है। छोटे छोटे कणवाली मिट्टियों में विशेषत: चिकनी मिट्टी में, विपरीत गुण होते हैं।

मिट्टी की सुघट्यता और संसंजन (Plasticity and Cohesion)

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मिट्टी के साथ जल के मिलने से

  • (१) गुरुत्व, दबाव, प्रणोद (thrust) और खिंचाव (pull) पर प्रभाव पड़ता है,
  • (२) मिट्टी में अन्य पदार्थो के साथ सट जाने की शक्ति हो जाती है और
  • (३) उँगली से कुरेदने पर सुघट्यता का अनुभव होता है।

कार्बनिक पदार्थों की उपस्थिति से भी मिट्टी में सुघट्यता आती हैं। छोटे-छोटे कणों के कारण सुघट्यता बढ़ती है। ऐटबर्ग (Atberg) ने सुघट्यता की चार अवस्थाएँ बतलाई हैं, जो जल की मात्रा पर निर्भर करती हैं।

मिट्टी के विभिन्न कणों पर एक दूसरे से विद्युत् शक्ति द्वारा खिंचाव उत्पन्न होता है, जिसे संसंजन कहते हैं। संसंजन और सुघट्यता का परस्पर संबंध है। एक के अधिक होने से दूसरा भी अधिक हो जाता है।

मिट्टी की ऊपरी परत का रंग

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मिट्टियों के रंग भिन्न भिन्न होते हैं। कुछ मिट्टियाँ सफेद होती है, कुछ लाल, कुछ भूरी, कुछ काली तथा कुछ राख के रंग की। कहीं कहीं पीली मिट्ट भी पाई जाती है। विभिन्न द्रव्यों की उपस्थिति के कारण मिट्टी में ये रंग आ जाते हैं। मिट्टी के रंग पर भी जलवायु का प्रभाव पड़ता है। जहाँ वर्षा अधिक होती है वहाँ की मिट्टी रंगीन होती है। उष्ण प्रदेशों में लौहयुक्त मिट्टी पाई जाती है, जिसका रंग भूरा तथा पीला होता है। लौह के आक्सीकरण से यह रंग प्राप्त होता है। काली मिट्टी का रंग कार्बनिक पदार्थ तथा ह्यूमस (humus) के रहने के कारण काला होता है। ऐसी मिट्टी अधिक वर्षा वाले स्थानों में पाई जाती है।

मिट्टी का अधिकांश भाग खनिज पदार्थों द्वारा बना हुआ है। आपेक्षिक गुरुत्व (लगभग २.५) से भार का ज्ञान होता है। कार्बनिक पदार्थ तथा जीवाश्म अधिक होने से मिट्टी हल्की हो जाती है।

कणांतरित छिद्र

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मिट्टी के कणों के बीच कुछ जगह छूटी रहती है। इन जगहों को कणांतरिक छिद्र कहते हैं। यह कणों के विन्यास पर निर्भर करता है।

प्रतिशत कणांतरिक छिद्र = (१ - (आभासी आपेक्षिक गुरुत्व)/(आभासी निरपेक्ष गुरुत्व)) x १००

इससे कणांतरिक प्रतिशत छिद्रों के आयतन का पता लगाया जा सकता है, पर छिद्रों के आकार और रूप का पता नहीं लगता। मटियार मिट्टी में कणांतरिक छिद्र छोटे होते हैं, जबकि बलुई मिट्टी में वे बड़े होते हैं। इससे मटियार मिट्टी जल अधिक सोखती है और बलुई मिट्टी कम सोखती है। पहले प्रकार की मिट्टी केशिकीय (capillary) होती है और दूसरे प्रकार की अकेशिकीय। कणांतरिक छिद्र के कारण मिट्टी जलावशोषण क्षमता आती है।

मिट्टी की संरचना कणों की संरचना पर निर्भर करती है। कण विद्युच्छक्ति से बँधकर समूह बनाते हैं। समूहों में बँध जाने से बंधन और मजबूत हो जाता है। समूहों के बाँधने में लौह और कार्बनिक पदार्थो का विशेष हाथ रहता है। छोटे छोटे कणों के मिलने से मृदुकण विन्यास (crumb structure) प्राप्त होता है। इससे पानी का ठहराव अधिक होता है और जुताई भी अधिक सुगमता से होती है।

कणों की माप ISSS

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कणों को मापकर उनका वर्गीकरण किया गया है। माप से मिट्टी के गुणों और उर्वरता का बहुत कुछ पता लगता है। यह वर्गीकरण अंतरराष्ट्रीय है:

मोटी बालू में २ मिमी० से ०.२ मिमी० व्यास तक,
महीन बालू में ०.२ मिमी० से ०.०२ मिमी० व्यास तक,
सिल्ट (silt) में ०.०२ मिमी० से ०.००२ मिमी० व्यास तक तथा
चिकनी मिट्टी (clay) में ०.००२ मिमी० से कम व्यास के कण होते हैं।

इन कणों की माप स्टोक्स (Stokes) नामक वैज्ञानिक के निर्धारित समीकरण से प्राप्त होती है।

मिट्टी में जल

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मिट्टी में जल का बहुत बड़ा महत्व है। यह जल चार प्रकार का होता है:

(१) आर्द्रतावशोषी (hygroscopic) जल
(२) अंत:शोषित (imbibitional) जल,
(३) केशिका (capillary) जल तथा
(४) गुरुत्वीय (gravitational) जल
  • (१) आर्द्रतावशोषी जल मिट्टी के कणों में आर्कषण द्वारा मिला रहता है। इसे हटाना कठिन है।
  • (२) अंत:शोषित जल मिट्टी में स्थित कोशिकाओं द्वारा अवशोषित होकर रहता है।
  • (३) केशिका जल पौधों को प्राप्त होता है तथा
  • (४) गुरुत्वीय जल वह जल है जो नालियों के भर जाने के बाद जमा हो जाता है। यह जल बहाव द्वारा बाहर निकल जाता है।

पौधों का जल से संबंध

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जब तक पानी पर्याप्त रहता है, पौधे की जड़ अपना काम करती रहती है। धीरे-धीरे पानी जब कम हो जाता है तब ऐसी अवस्था आ जाती है कि पौधे की जड़े पानी का अवशोषण करने में असमर्थ हो जाती है और पौधे सूखने लगते हैं। ऐसी अवस्था में मिट्टी में जल बहुत कम रहता है और उसको मिट्टी से प्रेषित करने के लिये अधिक मात्रा में शक्ति की आवश्यकता होती है। ऐसी अवस्था में जो जल मिट्टी में है, उसे म्लानिगुणांक (wilting coefficient) कहते है। इसकी उपयोगिता अधिक है, क्योकि इससे मिट्टी के कॉलॉयड (colloid) पदार्थ की मात्रा ज्ञात होती है। इसके अतिरिक्त इससे निष्क्रिय जल की मात्रा का भी ज्ञान होता है। उस अधिकतम जल को, जिसे मिट्टी संतृप्त वायुमंडल के किसी एक ताप पर अवशोषित करती है, आर्द्रताग्राही गुणांक (hygroscopic coefficient) अथवा आर्द्रतावशोषी क्षमता (hygroscopic capacity) कहते हैं। आर्द्रताग्राही गुणांक का ज्ञान निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त किया जाता है।

आर्द्रतावशोषी गुणांक = म्लानि गुणांक * ०.६८
= (नमी निर्धारण क्षमता - २१) * ०.२३४
= ०.००७ रेत + ०.०८२ सिल्ट + ०.३९ चिकनी मिट्टी + जैव पदार्थ।

मिट्टी में स्थित वायु

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मिट्टी में कणांतरिक छिद्र रहते हैं। उन छिद्रों में जब जल नहीं रहता तब वायु प्रवेश करती है। यह वायु मिट्टी में स्थित जल में भी विलयन की अवस्था में पाई जाती है। इस वायु में ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड भी रहता है। ऑक्सीजन पौधों की जड़ों के लिये लाभदायक है। कार्बन डाइऑक्साइड से पौधों की वृद्धि होती है।

मिट्टी में ऊष्मा

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पौधों की वृद्धि मिट्टी के जल, वायु और ताप पर निर्भर करती है। मिट्टी की ऊपरी सतह पर पाँच प्रकार से गरमी पहुँचती है:

  • (१) सूर्य की किरणों द्वारा,
  • (२) ग् वर्षा के गरम पानी द्वारा,
  • (३) गरम वायु के जलवाष्प द्वारा,
  • (४) मिट्टी के नीचे गरमी ऊपर को संचालित होने पर मिट्टी की ऊपरी सतह पर ताप के बढ़ने से तथा
  • (५) कार्बनिक पदार्थो के सड़ने से।

मिट्टी की ऊपरी सतह पर ताप दो प्रकार से घटता है:

  • (क) मिट्टी पर जमे पानी के भाप बनकर वायु में उठने से तथा
  • (ख) ऊपरी हवा के ताप के कम रहने से।

मिट्टी का ताप उसकी गहराई और जलवायु पर निर्भर करता है। गहराई से ऊष्मा बढ़ती है। ग्रीष्म ऋतु में ताप ऊँचा होता है और शरतु में नीचा।

मिट्टी में स्थित अकार्बनिक पदार्थ

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लीबिग (Liebig) ने १८४० ई० में पहले पहल यह सिद्धांत स्थापित किया कि मिट्टी में पौधों को उपजाने के लिये अकार्बनिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। इसके बाद इस विषय पर अनेकानेक अनुसंधान होते रहे और आज हम निश्चित रूप से जानते हैं कि मिट्टी में निम्नलिखित तत्त्वों का न्यूनाधिक मात्रा में रहना अत्यावश्यक है:

मिट्टी में अधिक मात्रा में रहने वाले तत्त्व

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(१) नाइट्रोजन, (२) पोटैशियम, (३) फॉस्फोरस, (४) कैल्सियम, (५) मैग्नीशियम, (६) सोडियम, (७) कार्बन, (८) ऑक्सीजन और (९) हाइड्रोजन।

न्यून मात्रा में रहनेवाले तत्त्व

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(१) लौह, (२) गंधक, (३) सिलिका, (४) क्लोरीन (५) मैंगनीज, (६) जस्ता, (७) निकल, (८) कोबल्ट (९) मोलिब्डेनम, (१०) ताम्र, (११) बोरन तथा (१२) सैलिनियम हैं।

नाइट्रोजन मिट्टी में कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों रूपों में रहता है, अकार्बनिक रूप में नाइट्रेट और अमोनिया के रूप में। कार्बनिक पदार्थो के सड़ने से अमोनिया बनता है। अमोनिया पर जीवाणुओं की क्रिया से पहले नाइट्राइट और पीछे नाइट्रेट बनते हैं। जीवाणुओं से एंजाइम बनते है, जो मिट्टी को अपघटित करते रहते हैं। फॉस्फेट ऐपेटाइट से आता है। यह पौधों के फूल और फल के लिये लाभदायक होता है। पोटैशियम सल्फेट और कार्बोनेट के रूप में मिट्टी में रहता है तथा पौधों की रासायनिक क्रिया में सहायक होता है। इससे पौधों के पत्ते स्वस्थ रहते हैं और प्रोटीन और शर्करा की मात्रा बढ़ती है। कैल्सियम मिट्टी में, फॉस्फेट, कार्बोनेट और सल्फेट के रूप में रहता है। इससे पौधों के तने मजबूत होते हैं। यह मिट्टी की अम्लता को कम करता है और उससे पौधों को लाभ पहुँचता है। मैग्नीशियम कार्बोनेट के रूप में मिट्टी में रहता है। यह पौधों में क्लोरोफिल के बनाने में सहायता पहुँचाता है। कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ और जल द्वारा प्राप्त होते हैं। पौधे मिट्टी से ये तत्व कार्बोनेट के रूप में पाते हैं, लेकिन अधिकांश कार्बन पौधों को वायु द्वारा प्राप्त होता है। पौधे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिट्टीश् से जल के रूप में प्राप्त करते है। सोडियम क्षारीय तत्व है और मिट्टी में सल्फेट तथा कार्बोनेट के रूप में पाया जाता है।

न्यून तत्वों में लौह अत्यंत आवश्यक है। यह मिट्टी में ऑक्साइड के रूप में रहता है और क्लोरोफिल के बनने में सहायता पहुँचाता है। गंधक मिट्टी में सल्फेट के रूप में रहता है। यह पौधों में प्रोटीन को बढ़ाता है। क्लोरीन मिट्टी में कैल्सियम, मैग्नीशियम और सोडियम क्लोराइड के रूप में पाया जाता है। यह तत्व पौधों के पत्तों को बढ़ाता और मोटा करता है। अन्य तत्व पौधों की क्रियाओं को संतुलित रखकर फूलों और फलों के बनने में सहायक होते हैं।

मिट्टी में स्थित जैव और कार्बनिक पदार्थ

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मिट्टी में अनेक जीवाणु, कीटाणु और जीवजंतु पाए जाते है, जो अनेक रासायनिक अभिक्रियाएँ संपन्न कर मिट्टी के गुण में परिवर्तन करते हैं। ये है:

  • (क) सूक्ष्म जंतुसमूह (microfauna), जैसे प्रोटोजोआ (protozoa), सूत्रकृमि (nematodes) तथा अन्य कृमि कीट इत्यादि,
  • (ख) सूक्ष्म वनस्पतिसमूह (microflora) जैसे काई या शैवाल (algae), डायटम (diatom), कवक, (fungi) ऐक्टिनोमाइसीज (actinomyces) आदि,
  • (ग) जीवाणु (bacteria), जिनमें स्वजीवी (autotropic), नाइट्रीकारी, गंधककारी, लौह, परजीवी (heterotrophic), सहजीवी (symbiotic) स्वतंत्रजीवी, वातजीवी, ऐजोटोबैक्टर (azotobacter), अवातजीवी अमोनीकारक तथा सेलुलोज उत्पादक सम्मिलित है,
  • (घ) कीटों में कृंतक (rodent), इंसेक्टिवोरा, मिलिपीड (millipede), सो बग (sow bugs), माइट्स (mites), घोघा, सितुआ शतपद, (centipedes), मकड़ी और केचुआ हैं।

मिट्टी में जीवाणुओं का स्थान बड़े महत्व का है। इनसे मिट्टी के भौतिकगुण बदलते हैं और उसकी उर्वरता और उत्पादकता बढ़ती है।।

मिट्टी में स्थित कलिल पर विनिमय क्रिया

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मिट्टी में बारीक कण कलिल (colloid) के रूप में रहते हैं। उन पर आयनों (ions) की विनिमय क्रिया होती है। यह क्रिया पौधों की जड़ों को पोषक द्रव्य पहुंचाने में सहायक होती है। इसलिये यह क्रिया बड़े महत्व की है। कलिल कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों हो सकते हैं। ये दोनों परस्पर मिले रहते हैं। अकार्बनिक कलिल ऐल्यूमिना और सिलिका के योग से बनते हैं। सिलिका कलिल पर ऋण विद्युत् रहता है। ये धन आयन का अवशोषण करते है। धन आयन पोषक तत्व होता है। कार्बनिक कलिल जल और पोषक तत्व का अधिक अवशोषण करता है। कलिल ऋण आयन का भी अवशोषण करते हैं।

मिट्टी में अम्लता और क्षारीयता

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मिट्टी में अम्लता और क्षारीयता कलिल से उत्पन्न होती है। जब कलिल में क्षारीय तत्व अधिक रहता है तब क्षारीयता और हाइड्रोजन अधिक अवशोषित रहता है तब अम्लता, उत्पन्न होती है। अम्लता और क्षारीयता दोनों पौधों के लिये हानिकारक हैं। पौधों की अम्लता और क्षारीयता हाइड्रोजन आयन के सांद्रण से मापी जाती है। इसे पीएच द्वारा प्रकट करते हैं। यदि पीएच १ से ६ है, तो मिट्टी अम्लीय और ७ से ८.५ हो, तो लवणीय मिट्टी ८.५ से १४ है, तो मिट्टी क्षारीय होती है। विभिन्न पीएच पर तत्वों का अवशोषण विभिन्न होता है। अम्लता को दूर करने के लिये चूने या जिप्सम का प्रयोग होता है।

मिट्टी का विश्लेषण

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मिट्टी के रासायनिक और भौतिक विश्लेषण किए जाते हैं। रासायनिक विश्लेषण से मिट्टी के पोषक द्रव्यों का पता लगता है और भौतिक विश्लेषण से मिट्टी के कणों की स्थिति का ज्ञान होता है। रासायनिक विश्लेषण नाइट्रोजन, फॉस्फेट (पूर्ण और प्राप्य), पोटाश (पूर्ण और प्राप्य) और जल की मात्रा निर्धारित की जाती है।

मृदा के प्रकार

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सर्वप्रथम 1879 ई० में डोक शैव ने मिट्टी का वर्गीकरण किया और मिट्टी को सामान्य और असामान्य मिट्टी में विभाजित किया। भारत की मिट्टियाँ स्थूल रूप से पाँच वर्गो में विभाजित की गई है:

  1. जलोढ़ मिट्टी या कछार मिट्टी (Alluvial soil),
  2. काली मिट्टी या रेगुर मिट्टी (Black soil),
  3. लाल मिट्टी (Red soil),
  4. लैटराइट मिट्टी (Laterite) तथा
  5. मरु मिट्टी (desert soil)।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने भारत की मिट्टी को आठ समूहों में बांटा है:

(1) जलोढ़ मिट्टी
(2) काली मिट्टी
(3) लाल एवं पीली मिट्टी
(4) लैटराइट मिट्टी
(5) शुष्क मृदा (Arid soils)
(6) लवण मृदा (Saline soils)
(7) पीटमय मृदा (Peaty soil) तथा जैव मृदा (Organic soils
(8) वन मृदा (Forest soils)

जल को अवषोषण करने की क्षमता सबसे अधिक दोमट मिट्टी में होती है। मृदा संरक्षण के लिए 1953 में केन्द्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड की स्थापना की गयी थी। मरूस्थल की समस्या के अध्ययन के लिए राजस्थान के जोधपुर में अनुसंधान केन्द्र बनाये गये हैं।

जलोढ़ मिट्टी (दोमट मिट्टी)

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क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भारत में सबसे अधिक क्षेत्रफल पर जलोढ़ मिट्टी पाये जाते है। भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 40 प्रतिशत भाग पर जलोढ़ मिट्टी मिलते है। जलोढ़ मिट्टी का निर्माण नदियों के निक्षेपण से होता है। जलोढ़ मिट्टी में नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है। यह कारण है कि जलोढ़ मिट्टी में यूरिया खाद डालना फसल के उत्पादन के लिए आवश्यक होता है। जलोढ़ मिट्टी में पोटाश एवं चूना की पर्याप्त मात्रा होती है। भारत में उत्तर का मैदान (गंगा का मैदान) सिंध का मैदान, ब्रह्मपुत्र का मैदान गोदावरी का मैदान, कावेरी का मैदान नदियों जलोढ़ मिट्टी के निक्षेपण से बने है। जलोढ़ की मिट्टी गेहूँ के फसल के लिए उत्तम माना जाता है। इसके अलावा इसमें धान एवं आलू की खेती भी की जाती है। जलोढ़ मिट्टी का निर्माण बलुई मिट्टी एवं चिकनी मिट्टी के मिलने से हुई है। जलोढ़ मिट्टी में ही बांगर एवं खादर मिट्टी आते है। बांगर पुराने जलोढ़ मिट्टी को एवं खादर नये जलोढ़ मिट्टी को कहा जाता है। जलोढ़ मिट्टी का रंग हल्के धूसर रंग का होता है।

काली मिट्टी

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काली मिट्टी क्षेत्रफल की दृष्टिकोण से भारत में दूसरा स्थान रखता है। भारत में सबसे ज्यादा काली मिट्टी महाराष्ट्र में एवं दूसरे स्थान पर गुजरात प्रांत है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी के उदगार के कारण बैसाल्ट चट्टान के निर्माण होने से हुई। बैसाल्ट के टूटने से काली मिट्टी का निर्माण होता है। दक्षिण भारत में काली मिट्टी को 'रेगूर' (रेगूड़) कहा जाता है। केरल में काली मिट्टी को 'शाली' कहा जाता है। उत्तर भारत में काली मिट्टी को 'केवाल' के नाम से जाना जाता है।

काली मिट्टी में भी नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है। इसमें लोहा, चूना, मैग्नीशियम एवं एलूमिना की मात्रा अधिक हाती है। काली मिट्टी में पोटाश की मात्रा भी पर्याप्त होती है।

काली मिट्टी कपास के उत्पादन के लिए सबसे उत्तम मानी जाती है। इसके अलावा काली मिट्टी में चावल की खेती भी अच्छी होती है। काली मिट्टी में मसूर, चना, खेसाड़ी की भी अच्छी उपज होती है।

काली मिट्टी में लोहे की अंश अधिक होने के कारण इसका रंग काला होता है। काली मिट्टी में जल जल्दी नहीं सुखता है अर्थात इसके द्वारा अवषोषित जल अधिक दिनों तक बना रहता है, जिससे इस मिट्टी में धान की उपज अधिक होती है। काली मिट्टी सुखने पर बहुत अधिक कड़ी एवं भीगने पर तुरंत चिपचिपा हो जाती है। भारत में लगभग 5.46 लाख वर्ग किमी0 पर काली मिट्टी का विस्तार है।

लाल मिट्टी

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क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भारत में लाल मिट्टी का तीसरा स्थान है। भारत में 5.18 लाख वर्ग किमी0 पर लाल मिट्टी का विस्तार है। लाल मिट्टी का निर्माण ग्रेनाइट चट्टान के टूटने से हुई है। ग्रेनाइट चट्टान आग्नेय शैल का उदाहरण है। भारत में क्षेत्रफल की दृष्टिकोण से सबसे अधिक क्षेत्रफल पर तमिलनाडु राज्य में लाल मिट्टी विस्तृत है। लाल मिट्टी के नीचे अधिकांश खनिज मिलते हैं।

लाल मिट्टी में भी नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है। लाल मिट्टी में मौजूद आयरनर ऑक्साइड(Fe2O3) के कारण इसका रंग लाल दिखाई पड़ता है। लाल मिट्टी फसल के उत्पादन के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है। इसमें ज्यादा करके मोटे अनाज जैसे- ज्वार, बाजरा, मूँगफली, अरहर, मकई, इत्यादि होते है। कुछ हद तक धान की खेती इस मिट्टी में की जाती है, लेकिन काली मिट्टी के अपेक्षा धान का भी उत्पादन कम होता है। तमिलनाडु के बाद छतीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश एवं उड़ीसा प्राप्त में भी लाल मिट्टी मिलते है।

पीली मिट्टी - भारत में सबसे अधिक पीली मिट्टी केरल राज्य में है। जिस क्षेत्र में लाल मिट्टी होते है एवं उस मिट्टी में अधिक वर्षा होती है तो अधिक वर्षा के कारण लाल मिट्टी के रासायनिक तत्व अलग हो जाते है, जिसमें उस मिट्टी का रंग पीला मिट्टी दिखाई देने लगता है।

लैटेराइट मिट्टी

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भारत में क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से लैटेराइट मिट्टी को चौथा स्थान प्राप्त है। यह मिट्टी भारत में 1.26 लाख वर्ग किमी0 क्षेत्र पर फैला हुआ है। लैटेराइट मिट्टी में लौह ऑक्साइड एवं अल्यूमिनियम ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाष, चुना एवं कार्बनिक तत्वों की कमी पायी जाती है। लैटेराइट मिट्टी चाय एवं कॉॅफी फसल के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। भारत में लैटेराइट मिट्टी असम, कर्नाटक एवं तमिलनाडु राज्य में अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह मिट्टी पहाड़ी एवं पठारी क्षेत्र में पाये जाते है। यह मिट्टी काजू फसल के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। इसमें लौह अॉक्साइड एवं अल्यूमिनियम ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है, लेकिन इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटास एवं चूना की कमी होती है।

इस मिट्टी की भी रंग लाल होती है। जब वर्षा होती है तब इस मिट्टी से चूना-पत्थर बहकर अलग हो जाती है, जिसके कारण यह मिट्टी सुखने पर लोहे के समान कड़ा हो जाती है। नोट ये मिट्टी सबसे ज्यादा केरल में पाई जाती है

पर्वतीय मिट्टी

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पर्वतीय मिट्टी में कंकड़ एवं पत्थर की मात्रा अधिक होती है। पर्वतीय मिट्टी में भी पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है। पहाड़ी क्षेत्र में खास करके बागबानी कृषि होती है। पहाड़ी क्षेत्र में ही झूम खेती होती है। झूम खेती सबसे ज्यादा नागालैंड में की जाती है। पर्वतीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा गरम मसाले की खेती की जाती है।

शुष्क एवं मरूस्थलीय मिट्टी

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शुष्क एवं मरूस्थलीय मिट्टी में घुलनशील लवण एवं फास्फोरस की मात्रा अधिक होती है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन एवं कार्बनिक तत्व की मात्रा कम होती है। यह मिट्टी तेलहन के उत्पादन के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है। जल की व्यवस्था होने के बाद मरूस्थलीय मिट्टी में भी अच्छी फसल की उत्पादन होती है। इस मिट्टी में तिलहन के अलावा ज्वार, बाजरा एवं रागी की खेती होती है। यह सबसे कम उपजाऊ होती है |

लवणीय मिट्टी या क्षारीय मिट्टी

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लवणीय मिट्टी को क्षारीय मिट्टी, रेह मिट्टी, उसर मिट्टी एवं कल्लर मिट्टी के नाम से जाना जाता है। क्षारीय मिट्टी वैसे क्षेत्र में पाये जाते हैं, जहाँ पर जल की निकास की सुविधा नहीं होती है। वैसे क्षेत्र की मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम एवं मैग्नीशियम की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे वह मिट्टी क्षारीय हो जाती है। क्षारीय मिट्टी का निर्माण समुद्रतटीय मैदान में अधिक होती है। इसमें नाइट्रोजन की मात्रा कम होती है।

भारत में क्षारीय मिट्टी पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान एवं केरल के तटवर्ती क्षेत्र में पाये जात

जैविक मिट्टी (पीट मिट्टी)

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जैविक मिट्टी को दलदली मिट्टी के नाम से जाना जाता है। भारत में दलदली मिट्टी का क्षेत्र केरल, उत्तराखंड एवं पश्चिम बंगाल में पाये जाते है। दलदली मिट्टी में भी फॉस्फोरस एवं पोटाश की मात्रा कम होती है, लेकिन लवण की मात्रा अधिक होती है। दलदली मिट्टी भी फसल के उत्पादन के लिए अच्छी मानी जाती है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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