और भी ग़म हैं ज़माने में

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और भी ग़म हैं ज़माने में १९८० के दशक के आरम्भिक सालों में एक भारतीय टेलिविज़न धारावाहिक था जो दूरदर्शन पर प्रसारित किया जाता था। इसकी ३२ कड़ियाँ प्रसारित हुई जिनमें मनोरंजन और सामाजिक शिक्षा का मिश्रण हुआ करता था।[1] हर दो सप्ताह में एक बार प्रसारित होने वाले इस धारावाहिक की हर किश्त में एक सामाजिक बुराई लेकर उसपर आधारित कहानी बनाई जाती थी।[2] इस टी वी शृंखला का नाम कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की प्रसिद्ध कृति 'और भी दुख हैं ज़माने में' के शीर्षक में एक शब्द बदलकर रखा गया था जिसमें शायर अपनी प्रेमिका को समझाता है कि वह उसपर पूरा ध्यान नहीं दे पा रहा क्योंकि आसपास के दुख और अन्याय को देखकर उसका मन विचलित हो उठता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Lok Sabha Debates Archived 2016-12-22 at the वेबैक मशीन, Parliament of India, Government of India, 1983, ... 'Aur Bhi Gham Hain Zamane Mein' which fulfil the twin objectives of education and entertainment ...
  2. Parliamentary debates: official report, Volume 120, Issues 9-13, Rajya Sabha, Parliament of India, Government of India, 1981, ... 'Aur Bhi Gam Hain Zamane Mein' a serial is telecast on fortnightly basis highlighting social problems, behaviour and attitudes ...