इच्छा-मृत्यु
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इच्छा-मृत्यु अर्थात् यूथनेशिया (Euthanasia)[1] मूलतः ग्रीक (यूनानी) शब्द है। जिसका अर्थ Eu=अच्छी, Thanatos= मृत्यु होता है। यूथेनेसिया, इच्छा-मृत्यु या मर्सी किलिंग (दया मृत्यु) पर दुनियाभर में बहस जारी है। इस मुद्दे से क़ानूनी के अलावा मेडिकल और सामाजिक पहलू भी जुड़े हुए हैं। यह पेचीदा और संवेदनशील मुद्दा माना जाता है। दुनियाभर में इच्छा-मृत्यु की इजाज़त देने की मांग बढ़ी है। मेडिकल साइंस में इच्छा-मृत्यु यानी किसी की मदद से आत्महत्या और सहज मृत्यु या बिना कष्ट के मरने के व्यापक अर्थ हैं। क्लिनिकल दशाओं के मुताबिक़ इसे परिभाषित किया जाता है।
voluntary (स्वैच्छिक) एक्टिव यूथेनेसिया
मरीज़ की मंज़ूरी के बाद जानबूझकर ऐसी दवाइयां देना जिससे मरीज़ की मौत हो जाए. यह केवल नीदरलैंड और बेल्जियम में वैध है।
involuntary एक्टिव यूथेनेसिया
मरीज़ मानसिक तौर पर अपनी मौत की मंज़ूरी देने में असमर्थ हो तब उसे मारने के लिए इरादतन दवाइयां देना. यह भी पूरी दुनिया में ग़ैरक़ानूनी है।
Passive यूथेनेसिया
मरीज़ की मृत्यु के लिए इलाज बंद करना या जीवनरक्षक प्रणालियों को हटाना. इसे पूरी दुनिया में क़ानूनी माना जाता है। यह तरीक़ा कम विवादास्पद है।
Active यूथेनेसिया
अफ़ीम से बनने वाली या कुछ अन्य दवाइयां देना ताक़ि मरीज़ को राहत मिले लेकिन बाद में उसकी मौत हो जाए. यह तरीक़ा भी दुनिया के कुछ देशों में वैध माना जाता है।
Assisted Suicide आत्महत्या के लिए मदद
पहले हुई सहमति के आधार पर डॉक्टर मरीज़ को ऐसी दवाइयां देता है जिन्हें खाकर आत्महत्या की जा सकती है। यह तरीक़ा नीदरलैंड, बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड और अमेरिका के ओरेगन राज्य में वैद्य है।
टेरी शियावो की मौत – यूथेनेसिया पर दुनियाभऱ में 'चर्चा'
अमेरिकी महिला टेरी शियावो के मामले ने इस मुद्दे को गरमा दिया था। 41 साल की टेरी शियावो पिछले साल चल बसीं। फ़्लोरिडा की इस महिला को 1990 में दिल का दौरा पड़ा था। उनका दिमाग़ तब से मौत आने तक सुन्न ही रहा। टेरी की जीवन-मृत्यु को लेकर सात साल तक क़ानूनी लड़ाई चली थी। टेरी के पति चाहते थे कि उनकी पत्नी त्रासदायी जीवन से मुक्ति पाकर मौत की गोद में आराम करे. लेकिन टेरी के माता-पिता अपनी बेटी को जीवित रखना चाहते थे। आख़िरकार टेरी के पति को अदालत से मंज़ूरी मिल गई। इसके बाद टेरी की आहार नली को हटा लिया गया था।
भारत में यूथेनेसिया की मांग से जुड़े कुछ मामले
•टेरी शियावो के मामले पर बहस की प्रतिध्वनि भारत में सुनाई देने लगी है। यहां भी कुछ ऐसे मामले सामने आए जहां मरीज़ के रिश्तेदार या स्वयं मरीज़ ने अपनी मौत की इच्छा जताई. बिहार पटना के निवासी तारकेश्वर सिन्हा ने 2005 में राज्यपाल को यह याचिका दी कि उनकी पत्नी कंचनदेवी, जो सन् 2000 से बेहोश हैं, को दया मृत्यु दी जाए.
•बहुचर्चित व्यंकटेश का प्रकरण अधिक पुराना नहीं है। हैदराबाद के इस 25 वर्षीय शख़्स ने इच्छा जताई थी कि वह मृत्यु के पहले अपने सारे अंग दान करना चाहता है। इसकी मंज़ूरी अदालत ने नहीं दी।
•इसी प्रकार केरल हाईकोर्ट द्वारा दिसम्बर 2001 में बीके पिल्लई जो असाध्य रोग से पीड़ित था, को इच्छा-मृत्यु की अनुमति इसलिए नहीं दी गई क्योंकि भारत में ऐसा कोई क़ानून नहीं है।
•2005 में काशीपुर उड़ीसा के निवासी मोहम्मद युनूस अंसारी ने राष्ट्रपति से अपील की थी कि उसके चार बच्चे असाध्य बीमारी से पीड़ित हैं। उनके इलाज के लिए पैसा नहीं है। लिहाज़ा उन्हें दया मृत्यु की इजाज़त दी जाए. किंतु अपील नामंज़ूर कर दी गई।
क्या कहता है भारतीय क़ानून
भारत में इच्छा-मृत्यु और दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक कृत्य हैं क्योंकि मृत्यु का प्रयास, जो इच्छा के कार्यावयन के बाद ही होगा, वह भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 309 के अंतर्गत आत्महत्या (suicide) का अपराध है।
इसी प्रकार दया मृत्यु, जो भले ही मानवीय भावना से प्रेरित हो एवं पीड़ित व्यक्ति की असहनीय पीड़ा को कम करने के लिए की जाना हो, वह भी भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 304 के अंतर्गत सदोष हत्या (culpable homicide) का अपराध माना जाता है।
•जीने का अधिकार है तो मरने का क्यों नहीं?
पी. रथीनम् बनाम भारत संघ (1984) के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 की संवैधानिकता पर इस आधार पर आक्षेप किया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण है। यानी जीने का अधिकार है तो मरने का भी अधिकार होना चाहिए। लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञानकौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में उक्त निर्णय को उलट दिया और साफ़ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत 'जीवन के अधिकार' में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। अतः धारा 306 और 309 संवैधानिक और मान्य हैं।
यूथेनेसिया के पक्ष में तर्क
यूथेनेसिया आज विश्व में चर्चित विषय है। यह मृत्यु के अधिकार पर केंद्रित है। यूथेनेसिया समर्थक इसके लिए 'सम्मानजनक मौत' की दलील देकर ऐसे व्यक्ति को मृत्यु का अधिकार देने के पक्ष में हैं, जो पीड़ाजनक असाध्य रोगों से पीड़ित है अथवा नाममात्र को ज़िंदा है। भारतीय विधि आयोग (Law Commission) ने पिछले साल संसद को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में दया मृत्यु (mercy killing) को क़ानूनी जामा पहनाने की सिफ़ारिश की है। हालांकि आयोग ने यह माना है कि इस पर लंबी बहस की गुंज़ाइश अभी बाक़ी है और निकट भविष्य में इसे मंज़ूरी देने की कोई संभावना नज़र नहीं आती.
•1995 ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी राज्य में यूथेनेसिया बिल को मंज़ूरी दी गई।
•1994 में अमेरिकी के ओरेगन राज्य में यूथेनेसिया को मान्यता दी गई।
•अप्रैल 2002 में नीदरलैंड (हॉलैंड) में यूथेनेसिया को विशेष दशा में वैधानिक क़रार दिया गया।
•सितम्बर 2002 में बेल्जियम ने इसे मान्यता दी।
•1937 से स्विट्ज़रलैंड में डॉक्टरी मदद से आत्महत्या को मज़ूरी है।
भारत में इच्छा-मृत्यु, समाधि और संथारा
यूथेनेज़िया, आत्महत्या और संथारे में भेद को समझने के लिए हमें पहले मृत्यु के भेद को वर्गीकृत कर समझना होगा। मनुष्य की मृत्यु के चार मार्ग हैं:
1.प्रकृति द्वारा मारा जाना (दुर्घटना, बीमारी)
2.दूसरों द्वारा मारा जाना और (हत्या या हत्या का दुष्प्रेरण)
3.अपने आप को मार देना. (आत्महत्या, इच्छा मृत्यु)
4.यूथेनेसिया –पाश्चात्य प्रक्रिया (असाध्य बीमारी की दशा में चिकित्सकों द्वारा दी गई मौत या दया मृत्यु)
भारत में इच्छा-मृत्यु के कई उदाहरण हैं – महाभारत के दौरान महान योद्धा भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था। वे शर-शैया पर तब तक लेटे रहे। जब तक सूर्य उत्तरायण नहीं हो गया।
स्वामी विवेकानन्द ने स्वेच्छा से योगसमाधि की विधि से प्राण त्यागे थे। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी अपनी मृत्यु की तारीख और समय कई वर्ष पूर्व ही निश्चित कर लिया था।
आचार्य विनोबा भावे ने अपने अंतिम दिनों में इच्छा-मृत्यु का वरण किया जब उन्होंने स्वयं पानी लेने तक का त्याग कर दिया था। इंदिरा गांधी उन्हें देखने के लिए गईं थीं। तब वहां मौजूद पत्रकारों की यह मांग ठुकरा दी गई थी कि भावे जी को अस्पताल में दाख़िला किया जाए.
जैन मुनियों और जैन धर्मावलंबियों में संथारा की प्रथा भी इच्छा मृत्यु का ही एक प्रकार है। जो बरसों से प्रचलित है। हाल ही में जयपुर की महिला विमला देवी जी के संथारे लेने पर समाज में इस पर लंबी बहस खिंची थी।
यूथनेसिया का प्रतिरोध
•अमेरिका में एक डॉक्टर जेक क्रनोरनियन को तक़रीबन 130 व्यक्तियों को कई बरसों के अंतराल में ज़हर देकर मौत देने के आरोप में दोषी पाया गया और दूसरे दर्ज़े की हत्या की सज़ा दी गई।
•अमेरिका में ही डोनाल्ड हरबर्ट नामक एक फ़ायर-फ़ाइटर का प्रकरण सामने आया है जो पिछले दस साल तक कोमा में था लेकिन अचानक ही उसे होश आ गया।
•फ्रांस के एक 22 वर्षीय फ़ायर-फ़ाइटर विन्सेंट हम्बर्ट को उसकी मां ने जानबूझकर नींद का इंजेक्शन ओवरडोज़ दे दिया था। जिससे उसकी मौत हो गई थी। बाद में डॉक्टरों की टीम ने मामले में यह कहकर मोड़ ला दिया कि काउंसिल की मंज़ूरी के बाद उन्होंने ही हम्बर्ट की जीवनरक्षक प्रणाली हटा ली थी।
•इस तरह के प्रकरणों से इस संभावना को बल मिलता है कि ऐसे व्यक्ति ज़िंदा भी हो सकते हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में किडनी आदि के प्रत्यारोपण को लेकर जिस तरह क़ानून की आड़ में अवैध धंधा किया जाता है, उसी तरह यूथेनेसिया और मृत्यु के अधिकार का भी बेजा इस्तेमाल हो सकता है।
•चिकित्सकीय नीतिशास्त्र (medical ethics) में अपेक्षित है डॉक्टर मरीज़ को तब तक जीवित रखने की कोशिश करें जब तक संभव है।
•'जीवेम् शरदः शतम्' के ध्येय वाली भारतीय मनीषा तथा संस्कृति में प्रत्येक दशा में जीवन रक्षा करने का आदेश समाहित है। जिंदगी से पलायन वर्जित माना जाता है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ सोमाद्रि शर्मा (25 सितम्बर 2013). "जीवन की गरिमा बड़ी या खुद मौत को बुलावा". राजस्थान पत्रिका. मूल से 24 सितंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 सितम्बर 2013.