अलखनामी

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अलखनामी १[संपादित करें]

एक प्रकार के गोरखपंथी साधु जिनके सिर पर जटा और शरीर पर भस्म एवं गेरुआ वस्त्र हो तथा जो ऊन की सेली बांधते हों जिसमें प्राय: घुंघुरू अथवा घंटी लगी हो। भिक्षा मांगते समय ये लोग बहुधा दरियाई खप्पर फैलाकर 'अलख अलख' पुकारा करते हैं और एक द्वार पर अधिक नहीं अड़ा करते (अलखिया)।

अलखनामी २[संपादित करें]

भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों, विशेषकर बीकानेर तथा अंबाला जिले के एक प्रकार के साधु जो अपने को अलखनामी, अलखधारी या अलखगीर कहा करते हैं और किसी लालबेग का अनुयायी भी बतलाते हैं जिसे वे शिव का अवतार मानते हैं। ये अधिकतर ढेढ़ जाति के होते हैं, मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते ओर अलख अगोचर तत्त्व का ध्यान करते हैं। इनके लिए दृश्यमान संसार के अतिरिक्त परलोक जैसा कोई स्थान नहीं है और यहीं रहकर ये अहिंसा, परोपकरादि का जीवनयापन करना श्रेयस्कर मानते हैं। इनके आडंबरहीन जीवन में ऊँच-नीच का सामजिक भेद नहीं है और न पूजा की कोई विस्तृत, व्यवस्थित विधि ही है। ये टोपी ओर मोटे कपड़े धारण करते हैं और एक दूसरे से मिलने पर 'अलख कहो' कहा करते हैं तथा विशुद्ध योगियों के रूप में समादृत होते हैं।

अलखनामी ३[संपादित करें]

१९वीं शताब्दी के एक साधु जो अयोध्या, नेपाल और हिमालय की तराइयों में कोपीन बांधे तथा चिमटा लिए भ्रमण करते ओर बीच-बीच में आकाश की ओर देखकर चिल्लाते हुए 'अलख्य अलख्य' कहते रहते थे। इन्हें 'अलख्य स्वामी' भी कहा जाता था और ये अंत तक कटक के निकटवर्ती पर्वतीय कुंभवर्त्री जातियों में धर्मप्रचारकस्वरूप प्रसिद्ध थे।

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • क्षितिमोहन सेन: मिडीवल मिस्टीसिज्म (लंदन, १९३५ ई.);
  • परशुराम चतुर्वेदी: उत्तरी भारत की संतपरंपरा (प्रयाग, सं. २००८);
  • हिंदी शब्दसागर,
  • बंगला विश्वकोश।