अनुमान

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अनुमान, दर्शन और तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। भारतीय दर्शन में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का नाम प्रमाण है। अनुमान भी एक प्रमाण है। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्रायः सभी दर्शन अनुमान को ज्ञानप्राप्ति का एक साधन मानते हैं। अनुमान के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसका नाम अनुमिति है।

'न्यायदर्शन' पद में न्याय शब्द का अर्थ है अनुमान। न निर्णीते अर्थे न्यायः प्रवर्तते अपितु सन्दिग्धे - इस पंक्ति से इस पद के 'अनुमान' अर्थ होने का ही बोध होता है। न्यायशास्त्र में इसके द्वारा स्वीकृत प्रमाणादि सोलह पदार्थों में से प्रथम पदार्थ प्रमाण का ही विस्तृत विवेचन हुआ है। प्रमाणों में भी अनुमान प्रमाण का विवेचन बहुत विस्तार से हुआ है। अनुमान प्रमाण के विस्तृत विवेचन के कारण ही न्यायदर्शन भारतीय तर्कशास्त्र का आधार माना जाता है।

प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है। इस प्रक्रिया का सरलतम उदाहरण इस प्रकार है-किसी पर्वत के उस पार धुआँ उठता हुआ देखकर वहाँ पर आग के अस्तित्व का ज्ञान अनुमिति है और यह ज्ञान जिस प्रक्रिया से उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, केवल धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। पर पूर्वकाल में अनेक बार कई स्थानों पर आग और धुएँ के साथ-साथ प्रत्यक्ष ज्ञान होने से मन में यह धारणा बन गई है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहीं-वहीं आग भी होती है। अब जब हम केवल धुएँ का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और हमको यह स्मरण होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग होती है, तो हम सोचते हैं कि अब हमको जहाँ धुआँ दिखाई दे रहा हैं वहाँ आग अवश्य होगी: अतएव पर्वत के उस पार जहाँ हमें इस समय धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है अवश्य ही आग वर्तमान होगी।

इस प्रकार की प्रक्रिया के मुख्य अंगों के पारिभाषिक शब्द ये हैं:

  • जिस वस्तु का हमको प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा हैं और जिस ज्ञान के आधार पर हमें अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान होता है उसे लिंग कहते हैं।
  • जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान होता हैं उसे साध्य कहते हैं।
  • पूर्व-प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उन दोनों के सहअस्तित्व अथवा साहचर्य के ज्ञान को, जो अब स्मृति के रूप में हमारे मन में है, व्याप्ति कहते हैं।
  • जिस स्थान या विषय में लिंग का प्रत्यक्ष हो रहा हो उसे पक्ष कहते हैं।
  • ऐसे स्थान या विषय जिनमें लिंग और साघ्य पूर्वकालीन प्रत्यक्ष अनुभव में साथ साथ देखे गए हों समक्ष उदाहरण कहलाते है। *ऐसे उदाहरण जहाँ पूर्वकालीन अनुभव में साध्य के अभाव के साथ लिंग का भी अभाव देखा गया हो, विपक्ष उदाहारण कहलाते हैं।
  • पक्ष में लिंग की उपस्थिति का नाम है पक्षधर्मता और उसका प्रत्यक्ष होना पक्षधर्मता ज्ञान कहलाता है। पक्ष-धर्मता ज्ञान जब व्याप्ति के स्मरण के साथ होता है तब उस परिस्थिति को परामर्श कहते हैं। इसी को लिंगपरामर्श भी कहते हैं क्योकि पक्षधर्मता का अर्थ है लिंग का पक्ष में उपस्थित होना। इसके कारण इसी के आधार पर पक्ष में साध्य के अस्तित्व का जो ज्ञान होता है उसी का नाम अनुमिति हैं। साध्य को लिंगी भी कहते हैं क्योंकि उसका अस्तित्व लिंग के अस्तित्व के आधार पर अनुमित किया जाता हैं। लिंग को हेतु भी कहते हैं क्योंकि इसके कारण ही हमको लिंगी (साध्य) के अस्तित्व का अनुमान होता है। इसलिए तर्कशास्त्रों में अनुमान की यह परिभाषा की गई है-लिंगपरामर्श का नाम अनुमान है और व्याप्ति विशिष्ट पक्षधर्मता का ज्ञान परामर्श हैं।

पाश्चात्य तर्कशास्त्र में अनुमान (इनफरेन्स) का अर्थ भारतीय तर्कशास्त्र में प्रयुक्त अर्थ से कुछ भिन्न और विस्तृत हैं। वहाँ पर किसी एक वाक्य अथवा एक से अधिक वाक्यों की सत्यता को मानकर उसके आधार पर क्या-क्या वाक्य सत्य हो सकते हैं, इसको निश्चित करने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है और विशेष परिस्थितियों के अनुभव के आधार पर सामान्य व्याप्तियों का निर्माण भी अनुमान ही है।

अनुमान के भेद[संपादित करें]

अनुमान दो प्रकार का होता हैं-- स्वार्थ अनुमान और परार्थ अनुमान

स्वार्थ अनुमान अपनी वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें बार-बार के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपने मन में व्याप्ति का निश्चय हो गया हो और फिर कभी पक्षधर्मता ज्ञान के आधार पर अपने मन में साध्य के अस्तित्व की अनुमिति का उदय हो गया है जैसा कि ऊ पर पर्वत पर अग्नि के अनुमिति ज्ञान में दिखलाया गया है। यह समस्त प्रक्रिया अपने को समझने के लिए अपने ही मन की है।

किंतु जब हमको किसी दूसरे व्यक्ति को पक्ष में साध्य के अस्तित्व का नि:शंक निश्चय कराना हो तो हम अपने मनोगत को पाँच अंगों में, जिनको अवयव कहते हैं, प्रकट करते हैं। वे पाँच अवयव ये हैं:

प्रतिज्ञा - अर्थात् जो बात सिद्ध करनी हां उसका कथन। उदाहरण : पर्वत के उस पार आग है।

हेतु - क्यों ऐसा अनुमान किया जाता हैं, इसका कारण अर्थात् पक्ष में लिंग की उपस्थिति का ज्ञान कराना। उदाहरण : कयोंकि वहाँ पर धुआँ है।

उदाहरण - सपक्ष और विपक्ष दृष्टांतों द्वारा व्याप्ति का कथन करना, उदाहराण : जहाँ-जहाँ धुआँ होता हैं, वहाँ-वहाँ आग होती हैं, जैसे चूल्हे में और जहा-जहाँ आग नहीं होती, वहाँ-वहाँ धुआँ भी नहीं होता, जैसे तालाब में।

उपनय - यह बतलाना कि यहाँ पर पक्ष में ऐसा ही लिंग उपस्थित है जो साध्य के अस्तित्व का संकेत करता है। उदाहरण : यहाँ भी धुआँ मौजूद है।

निगमन - यह सिद्ध हुआ कि पर्वत के उस पार आग है।

भारत में यह परार्थ अनुमान दार्शनिक और अन्य सभी प्रकार के वाद-विवादों और शास्त्रार्थों में काम आता है। यह यूनान देश में भी प्रचलित था और यूक्लिद ने ज्यामिति लिखने में इसका भली भाँति प्रयोग किया था। अरस्तू को भी इसका ज्ञान था। भारत के दार्शनिकों और अरस्तू ने भी पाँच अवयवों के स्थान पर केवल तीन को ही आवश्यक समझा क्योंकि प्रथम (प्रतिज्ञा) और पंचम (निगमन) अवयव प्राय: एक ही हैं। उपनय तो मानसिक क्रिया है जो व्याप्ति और पक्षधर्मता के साथ सामने होने पर मन में अपने आप उदय हो जाती हैं। यदि सामनेवाला बहुत मंदबुद्धि न हो, बल्कि बुद्धिमान हो, तो केवल प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवों के कथन मात्र की आवश्यकता है। इसलिए वेदांत और नव्य न्याय के ग्रंथों में केवल दो ही अवयवों का प्रयोग पाया जाता है।

भारतीय अनुमान में आगमन और निगमन दोनों ही अंश है। सामान्य व्याप्ति के आधार पर विशेष परिस्थिति में साध्य के अस्तित्व का ज्ञान निगमन है और विशेष परिस्थितियों के प्रत्यक्ष अनुभव आधार पर व्याप्ति की स्थापना आगमन है। पूर्व प्रक्रिया को पाश्चात्य देशों में डिडक्शन और उत्तर प्रक्रिया को इंडक्शन कहते हैं। अरस्तू आदि पाश्चात्य तर्कशास्त्रियों ने निगमन पर बहुत विचार किया और मिल आदि आधुनिक तर्कशास्त्रियों ने आगमन का विशेष मनन किया।

भारत में व्याप्ति की स्थापनाएँ (आगमन) तीन या तीनों में से किसी एक प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर होती थीं। वे ये हैं :

(1) केवलान्वय, जब लिंग और साध्य का साहचर्य मात्र अनुभव में आता है, जब उनका सह-अभाव न देखा जा सकता हो।

(2) केवल व्यतिरेक जब साध्य और लिंग और लिंग का सह-अभाव ही अनुभव में आता है, साहचर्य नहीं।

(3) अन्वयव्यतिरेक- जब लिंग और साध्य का सहअस्तित्व और सहअभाव दोनों ही अनुभव में आते हों। आँग्ल तर्कशास्त्री जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने ग्रंथों में आगमन की पाँच प्रक्रियाओं का विशद वर्णन किया है। आजकल की वैज्ञानिक खोजों में उन सबका उपयोग होता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]