पातिव्रत धर्म

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हिंदू पत्नी के द्वारा अपने पति के प्रति निष्ठा को पातिव्रत धर्म कहा जाता है। पतिव्रत के ही भांति पत्नीव्रत भी होता है। शास्त्रों में पतिव्रत धर्म की महिमा को मुक्त कण्ठ से में वर्णन किया गया है और बताया गया है कि पतिपरायणा नारी वह सद्गति सहज में प्राप्त कर लेती है जो योगी - यती एवं ज्ञानी ध्यानी बड़ी कठिनाइयाँ सहते हुए प्राप्त करते हैं ।[1]

इतिहास[संपादित करें]

पतिव्रता नारियों के गौरवमय चरित्रों से भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है । अन्धे पति से अपनी स्थिति अच्छी रहने देने की अनिच्छुक धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने आँखों में आजीवन पट्टी बाँधे रहने का व्रत लिया और उसे आजीवन निभाया । शैव्या ने हरिश्चन्द्र के साथ , दमयन्ती ने नल के साथ , सीता ने राम के साथ कठिन समय आने पर अपने त्याग और प्रेम का अद्भुत परिचय दिया । सत्यवती ने सत्यवान के साथ , सुकन्या ने वृद्ध च्यवन के साथ कितना उत्कृष्ट सम्बन्ध निवाहा ? अरुन्धती , अनुसूया , बेहुला , शकुन्तला , भारती , आदि कितनी ही नारियों के ऐसे दिव्य चरित्र मिलते हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि पतिपरायणता को इस देश का नारी समाज अत्यन्त उच्च भावनाओं के साथ निबाहता रहा है ।[1]

महाभारत में द्रौपदी सत्यभामा संवाद[संपादित करें]

महाभारत में पातिव्रत धर्म का द्रौपदी द्वारा सत्यभामा से संवाद का वर्णन किया गया है। उसका अनुवादित अंश इस प्रकार है -

द्रौपदी बोली - सखी ! इस जगत् में कभी सुखके द्वारा सुख नहीं मिलता । पतिव्रता स्‍त्री दु:ख उठाकर ही सुख पाती है। सेवा द्वारा प्रसन्‍न किये हुए पतिसे स्त्रियों को ( उत्‍तम ) संतान, भॉंति-भॉंति के भोग, शय्या, आसन, सुन्‍दर दिखायी देने वाले वस्‍त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ, स्‍वर्गलोक तथा महान् यशकी प्राप्ति होती है । तुम सौहार्द, प्रेम, सुन्‍दर वेश-भूषा-धारण, सुन्‍दर आसन समर्पण, मनोहर पुष्‍पमाला, उदारता, सुगन्धित द्रव्‍य एवं व्‍यवहार कुशलता से श्‍याम सुन्‍दर की निरन्‍तर आराधना करती रहो । उनके साथ ऐसा बर्ताव करो, जिससे वे यह समझकर ,कि सत्यभामा को मैं ही अधिक प्रिय हूँ। तुम्‍हें ही हृदयसे लगाया करें । जब महल के द्वार पर पधारे हुए प्राणवल्लभ का स्‍वर सुनायी पडे, तब तुम उठकर घरके आंगन में आ जाओ और उनकी प्रतीक्षा में खडी रहो । जब देखो कि वे भीतर आ गये, तब तुरंत आसन और पाद्यके द्वारा उनका यथावत् पूजन करो अत्‍यन्‍त ऊँचे कुलमें उत्‍पन्‍त्र और पापाचार से दूर रहने – वाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्‍हें सखी भाव स्‍थापित करना चाहिये । जो अत्‍यन्‍त क्रोधी, मद में चूर रहनेवाली, अधिक खानेवाली, चोरी की लत रखनेवाली, दुष्‍ट और चंचल स्वभाव की स्त्रियां हों, उन्‍हें दूर से ही त्‍याग देना चाहिये । तुम बहुमूल्‍य हार, आभूषण और अंगराग धारण करके पवित्र सुगन्धित वस्तुओं से सुवासित हो अपने प्राणवल्लभ श्‍यामसुन्‍दर श्रीकृष्‍ण की आराधना करो । इससे तुम्‍हारे यश और सौभाग्य की वृद्धि होगी । तुम्‍हारे मनोरथ की सिद्धि तथा शत्रुओं का नाश होगा । द्रौपदी बोली अत्‍यन्‍त ऊँचे कुलमें उत्‍पन्‍त्र और पापाचारसे दूर रहने – वाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्‍हें सखीभाव स्‍थापित करना चाहिये ।[2][3][4]

महत्व[संपादित करें]

पतिव्रत धर्म सुसंतति को जन्म देने के लिए नितान्त आवश्यक है । बालकों से ही किसी परिवार का भविष्य उज्ज्वल बनता है । अपने वंश , कुल और परिवार का गौरव बढ़ाने वाले बालक वहीं जन्मेंगे जहाँ माता ने पतिव्रत धर्म को उचित महत्व दिया होगा । यह तत्व जहाँ जितना ही कम होगा वहाँ उसी अनुपात से बालकों से शरीर और मन में अगणित विकृतियाँ भरी रहेगी । जो अभिभावक अपनी संतान में मनोवाँछित स्वास्थ्य सौंदर्य एक सद्गुण देखना चाहते हैं उन्हें उसकी सबसे बड़ी तैयारी यही करनी चाहिए कि पति - पत्नी के बीच अगाढ़ प्रेम और विश्वास बना रहे ।

पर-पुरुष से कुकर्म न करने का नाम ही पतिव्रत नहीं है । यह तो उसका एक छोटा सा अंग मात्र है । वस्तुतः आत्म समर्पण की भावना का नाम ही पतिव्रत धर्म है । उसका स्तर ईश्वर भक्ति जैसा होता है । इस आध्यात्मिक साधना को अपनाने वाली नारी अहंताजन्य अगणित पापदोषों से मुक्त होकर द्वैत की मंजिल पार करती हुई अद्वैत की ब्रह्म निर्वाण की जीवन स्थिति प्राप्त करती है और अपने सद्गुणों के कारण जिस घर में रहती है। वहाँ स्वर्गीय सुख - शाँति का वातावरण प्रस्तुत कर देती है । पातिव्रत का यह एक ही लाभ भौतिक दृष्टि से इतना बड़ा है कि उसे अन्य सफलताओं एवं सम्पन्नताओं से कहीं अधिक बढ़ - चढ़ कर माना जायगा । दो आत्माएँ एक बनकर जब जीवन यापन करती हैं तो उनका बल साहस एवं अन्तस्तल इतना अधिक विकसित होने लगता है जिसके माध्यम से अनेक कठिनाइयों से लड़ते हुए प्रगति पथ पर बढ़ते चलना और शक्तिमय सार्थक जीवनयापन कर सकना सहज ही संभव हो जाता है । प्रगतिशील लोगों के जीवन में उनकी धर्मपत्नियों का भारी सहयोग रहा है । यदि उन्हें ऐसी नारी न मिली होती जो मनोबल बढ़ाने और जीवन को व्यवस्थित रखने में सहायता कर सके तो सम्भवतः वे गिरी स्थिति में ही गुजर करते और महापुरुष एवं प्रगतिशील बनने के लाभ से वंचित हो रह जाते । पतिव्रता नारी किसी पति के लिए एक दैवी वरदान ही कही जा सकती है ।[1]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "पतिव्रत धर्म की गरिमा - Akhandjyoti March 1964 :: (All World Gayatri Pariwar)". literature.awgp.org. अभिगमन तिथि 2023-10-05.
  2. Joshi, Dr Dinkar (2020-01-01). Mahabharat : Ek Darshan: Bestseller Book by Dr. Dinkar Joshi: Mahabharat : Ek Darshan (ebook). Prabhat Prakashan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-84343-57-6. द्रौपदी बोली अत्‍यन्‍त ऊँचे कुलमें उत्‍पन्‍त्र और पापाचारसे दूर रहने – वाली सती स्त्रियों के साथ ही तुम्‍हें सखीभाव स्‍थापित करना चाहिये । जो अत्‍यन्‍त क्रोधी, नशेमें चूर रहनेवाली, अधिक खानेवाली, चोरीकी लत रखनेवाली, दुष्‍ट और चच्‍चल स्‍वभावकी स्त्रियां हों, उन्‍हें दूरसे ही त्‍याग देना चाहिये । तुम बहुमूल्‍य हार, आभूषण और अंगराग धारण करके पवित्र सुगन्धित वस्‍तुओंसे सुवासित हो अपने प्राणवळभ श्‍यामसुन्‍दर श्रीकृष्‍ण की आराधना करो । इससे तुम्‍हारे यश और सौभाग्‍यकी वृद्धि होगी । तुम्‍हारे मनोरथकी सिद्धि तथा शत्रुओंका नाश होगा ।
  3. सिन्हा, सुजाता; सिंह, उर्मिला; वर्मा, हेमा (2007). महाभारतकालीन भारतीय संस्कृति. Viśvabhāratī Pablikeśansa. पपृ॰ 203–205. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-89000-75-2.
  4. Dutt, Manmatha Nath; Datta, Manmathanatha (1895). A Prose English Translation of the Mahabharata: (tr. Literally from the Original Sanskrit Text) (अंग्रेज़ी में). H.C. Dass. पृ॰ 344.