हेमन्तकुमारी देवी चौधुरानी

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हेमन्तकुमारी देवी चौधुरानी (१८६८ - १९५३) हिंदी पत्रकार एवं लेखिका थीं। वे हिन्दी की आद्य महिला संपादक हैं। उनका हिंदी पत्रकारिता में यशस्वी अवदान है। उनका पूरा जीवन हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और शिक्षा की सेवा में व्यतीत हुआ। वे कुशल पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रधानाचार्य और कुशल प्रशासक भी थीं। वे बंग-महिला थीं, किंतु उन्हें पिता से हिंदी-सेवा के संस्कार मिले । सन् 1888 में उन्होंने मध्य प्रदेश के रतलाम से हिंदी मासिक पत्रिका ' सुगृहिणी ' का संपादन-प्रकाशन किया। [1]

जीवन परिचय[संपादित करें]

हेमंतकुमारी चौधुरानी का जन्म लाहौर में वर्ष 1868 में हुआ था।[2] ये बाबू नवीन चंद्र राय की पुत्री थीं। बाबू नवीन चंद्र राय भी हिंदी के बड़े लेखक और समाज सुधारक थे। वे स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे। जब वह मात्र 7 वर्ष की थीं तो उनकी माता का देहान्त हो गया। उनके पिता ने अपनी बेटी को मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी। हेमन्तकुमारी देवी की शिक्षा-दीक्षा लाहौर, आगरा एवं कोलकाता में हुई। प्रारंभिक शिक्षा के लिए उन्हें आगरा के रोमन कैथेलिक कान्वेंट में पढ़ने के लिए भेज दिया परन्तु थोड़े ही दिनों में अपनी पुत्री पर ईसाई धर्म का प्रभाव पड़ते देख उन्हें वापस लाहौर ले आए और वहाँ के क्रिश्चयन गर्ल्स स्कूल में भर्ती करा दिया तथा घर पर स्वयं ही धार्मिक शिक्षा देने लगे। ब्रह्मसमाजी बाबू नवीनचन्द्र राय स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। यही कारण है कि उन्होंने हेमंतकुमारी की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। स्कूल में अंग्रेज़ी की शिक्षा के साथ-साथ उन्हें अलग से हिंदी, बांग्ला और संस्कृत की शिक्षा भी दिलाई गई।

हेमंतकुमारी ने कोलकाता के बेथुन स्कूल से सन 1883 में एंट्रेंस की परीक्षा पास किया और लाहौर लौट आईं और पिता के सार्वजनिक गतिविधियों में हाथ बँटाने लगीं। वे पिता के साथ सभाओं-समितियों में जाया करती थीं। इस दौरान उन्होंने आम महिलाओं की दशा भी देखी और उन्हें समझ में आ गया कि उनके लिए काम करने की बड़ी ज़रुरत है। उन्होंने लाहौर में सन 1885 में हर देवी के साथ मिलकर ‘वनिता बुद्धि विकासिनी सभा’ का गठन किया। उन्होंने इस सभा के द्वारा स्त्री शिक्षा के प्रश्न को बड़े जोरदार ढंग से उठाया था। वहीं 1886 में 'भगिनी समाज' की स्थापना भी की और बालिकाओं के लिए एक पुस्तकालय भी खुलवाया। वहाँ की स्त्रियों से अच्छी तरह संवाद हो सके, इसलिए पंजाबी भाषा भी सीख ली। उनके द्वारा बनाई गई स्त्री सभा की गतिविधियाँ इतनी अधिक थी कि लाहौर की कई स्त्रियाँ उनसे जुड़ गईं। उनके द्वारा गठित स्त्री सभा की बैठकें प्रति सप्ताह हुआ करती थी।[3]

2 नवंबर 1885 को उनका विवाह सिलहट के रामचंद्र चौधुरी से हुआ। विवाह के बाद वह पति के घर चली गई थी। ससुराल जाकर भी उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए अपना काम जारी रखा। सिलहट में उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए दो स्कूल खुलावाए। साथ ही वहां महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए महिला चिकित्सक की भी व्यवस्था की।

वर्ष 1887 में पति की रतलाम रियासत में नौकरी के सिलसिले में हेमंतकुमारी देवी अपने पति साथ मध्यप्रदेश के रतलाम में रहने आ गईं। उन्होंने स्वयं को कभी भी घर की सीमाओं तक सीमित नहीं रखा। वह घर के काम के बाद सामाजिक उत्थान के कामों में हमेशा खुद को व्यस्त रखा करती थीं। रतलाम में आकर भी उन्होंने जन-सरोकार कार्य में अपनी सक्रियता जारी रखी। उन्होंने रतलाम की महारानी को पढ़ाना शुरू कर दिया और महारानी की अवैतनिक शिक्षिका बन गईं।

अवदान[संपादित करें]

'सुगृहिणी' का सम्पादन[संपादित करें]

‘सुगृहिणी’ पत्रिका का पहला अंक फरवरी 1888 में निकला था। उस समय आसपास की महिलाओं की स्थिति को देखकर उन्हें ऐसी पत्रिका की जरूरत महसूस हुई, जो उन्हें जागरूक कर सके। जिस समय उन्होंने पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था उस समय उनकी आयु मात्र 20 वर्ष थी। इसके दृष्टिगत उन्हें देश की सबसे कम उम्र की महिला संपादक भी कह सकते हैं। नवजागरणकालीन यह पत्रिका सुखसंवाद प्रेस, लखनऊ में पण्डित बिहारी लाल के द्वारा मुद्रित होती थी। इस पत्रिका में कुल बारह पृष्ठ होते थे। ‘सुगृहिणी’ का पहला और आखिरी पृष्ट रंगीन होता था।‘सुगृहिणी’ पत्रिका की ये टैगलाइन होती थी, विद्या और साध्विता के भूषण से जब नारी अलंकृत होती है तब मैं उसे अंलकृता समझती हूँ; सोने से भूषिता होने से ही अंलकृत नही होती।

‘सुगृहिणी’ के प्रथम अंक में उन्होंने संपादकीय में एक विशेष संवाद लिखा था जो महिलाओं के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। जो निम्नलिखित है-

ओ मेरी प्रिय बहन, अपने दरवाजें को खोलो और देखो कि कौन आया है? यह आपकी बहन ‘सुगृहिणी’ है। यह आपके पास इसलिए आई है क्योंकि आप पर अत्याचार हो रहा है, आप अशिक्षित हो और एक बंधन में बंधी हो... इसका स्वागत करो और इसे आशीर्वाद दो। मां तुम्हारी और सुगृहिणी की सहायता करें।

हेमंतकुमारी देवी जब रतलाम में रहती थीं तब वहां शिक्षा का ज्यादा प्रसार नहीं था और हिंदी प्रिंटिंग की कोई सुविधा नहीं थी। पत्रिका को छपवाने के लिए उसे राज्य से बाहर भेजना पड़ता था। सबसे पहले सुख संवाद प्रेस, लखनऊ और बाद में लाहौर तक भेजना पड़ा था। वर्ष 1889 में वह दोबारा पति के साथ शिलांग चली गईं थीं किन्तु वहाँ भी उन्होंने 'सुगृहिणी' का प्रकाशन जारी रखा। प्रकाशन के चौथे वर्ष में यह पत्रिका आर्थिक कारणों से बंद हो गई।[4]

महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर अपनी राय रखने के लिए पत्रिका ने अपना एक विशेष स्थान बना लिया था। हेमंत कुमारी देवी ने पत्रिका में पर्दा प्रथा, महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और शारीरिक स्वायत्ता को लेकर प्रमुख लेख लिखे। उनकी पत्रिका के मुख्य पेज पर महिलाओं को शिक्षा की ओर प्रेरित करने के लिए हमेशा एक संदेश प्रकाशित हुआ करता था।

'सुगृहिणी' पत्रिका के बंद होने के बाद हेमन्तकुमारी देवी ने महिलाओं के सरोकार की दिशा में अपना काम जारी रखा। वर्ष 1899 में वह सिलहट वापस आकर रहने लगीं। उन्होंने एक महिला समिति का गठन किया। साथ ही वहां जाकर उन्होंने बांग्ला में 'अन्तःपुर' नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। बढ़ती उम्र के साथ भी हेमंतकुमारी देवी ने सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपना काम हमेशा जारी रखा। समाज सेवा के लिए जो भी अवसर उन्हें मिलता वह उससे जुड़ने में कभी पीछे नहीं हटीं।

इन्होंने 'अंतःपुर' (बांग्ला में) पत्रिका का भी तीन साल तक संपादन कार्य किया था। इन पत्रिकाओं के द्वारा इन्होंने घर के भीतर कैद स्त्री की पीड़ा को बाहर लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इसके अलावा हेमन्त कुमारी देवी ने ‘आदर्श माता’, ‘माता और कन्या’ और ‘नारी पुष्पावाली’ किताब लिखकर स्त्री और हिन्दी की सेवा की।

स्त्री शिक्षा के लिये कार्य[संपादित करें]

महिला की शिक्षा के लिए किए गए उनको कामों की चर्चा सुनकर ही 1906 में उन्हें पटियाला में बालिकाओं के विद्यालय को संभालने का मौका मिला। उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर, सिलहट से पटिलाया आकर यह जिम्मेदारी संभाल ली। विक्टोरिया हाई स्कूल की सुपरिटेंडेंट के तौर पर काम करने बाद 1907 में वह स्कूल की प्रधानाचार्या नियुक्त की गईं। स्कूल में शिक्षण कार्य संभालने के बावजूद देवी लगातार पत्र-पत्रकाओं के लिए लिखती रहीं।

जब हेमंत कुमारी विक्टोरिया कन्या महाविद्यालय की प्रधानाचार्या थीं तो वह घर-घर जाकर माता-पिता को समझाती थीं कि अपनी कन्याओं को स्कूल के लिए भेजें। हेमंतकुमारी देवी के स्त्री शिक्षा के योगदान में इसी कॉलेज के अध्यापिका ने 1927 में एक लेख लिखा, जिसमें वह कहती है कि ‘इस विद्यालय को 1906 में स्थापित किया गया था, इस विद्यालय वाटिका में 500 बालिकाएं अठखेलियां करती है, विद्यालय के कार्यकर्ता भी प्रसन्न होते हैं।

इन्होंने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ा कार्य किया कि सरकार से प्रार्थना करके हिंदू कन्याओं के लिए सिलहट में बड़े यत्न के बाद एक विद्यालय खुलवाया जो अभी तक है और जिसमें हर साल कन्याएं परीक्षा पास करती हैं। इतना ही नहीं हेमंत कुमारी देवी ने स्त्रियों के स्वास्थ्य को लेकर भी अपनी चिंता व्यक्त की और शिलांग में एक पृथक स्त्री चिकित्सालय स्थापना की मांग की उस समय आप सोच सकते हैं कि प्रथम महिला अस्पताल की मांग करना हेमंत कुमारी देवी के लिए कितना कठिन रहा होगा और इस अस्पताल के लिए उन्हें अंग्रेजों के विरोध का भी सामना करना पड़ा परंतु हेमंत कुमारी देवी ने हार नहीं मानी और स्वयं आसाम के चीफ कमिश्नर की पत्नी के साथ जाकर सारा वृत्तांत निवेदन करके उनसे सहायता मांगी उनके प्रयास से वहां पर स्त्रियों के लिए एक पृथक चिकित्सालय खोला गया।

हिन्दी प्रेम[संपादित करें]

हेमन्तकुमारी देवी मूलतः बांग्ला भाषी थीं परन्तु हिंदी भाषा से उन्हें अतिरिक्त अनुराग था। वो अपनी पत्रिका में हिंदी भाषा के पक्ष में माहौल तैयार करती दिखाई देतीं थीं। जब सन् 1888 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रशासन ने बड़ा विचित्र निर्णय लिया कि एंट्रेंस की परीक्षा हिंदी और उर्दू की जगह अंग्रेजी भाषा में होगी। तब यूनिवर्सिटी के इस फैसले की चर्चा पूरे देश में हुई थी। हेमंत कुमारी देवी ने प्रशासन द्वारा हिन्दी भाषा को हटाए जाने का विरोध किया। इन्होंने कहा था कि हिंदी भाषा में ही यूनिवर्सिटी की प्रवेश परीक्षा कराई जानी चाहिए, क्योंकि स्त्रियों को अंग्रेजी भाषा नहीं आती है। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान ना होने के कारण स्त्रियां प्रवेश पाने से वंचित हो जाएंगी।

हेमंतकुमारी देवी का शिक्षा में कितना बड़ा योगदान था, इसका आकलन राम शंकर शुक्ल रसाल की इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘‘जिस प्रकार भारतेंदु बाबू के समय से खड़ी बोली के गद्य और पद्य में नवीन उत्थान प्रारंभ होता है उसी प्रकार स्त्री साहित्य में हेमंत कुमारी देवी चौधरानी नवोउन्नति का प्रारंभ देखते है। स्त्री शिक्षा की जागृति और उन्नति का श्रेय पंजाब प्रांत में यदि किसी न किसी महिला रत्न को मिल सकता है तो वह इन्ही को है।’' [5]

निधन[संपादित करें]

एक कुशल पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रधानाचार्य के बाद वह एक कुशल प्रशासक भी साबित हुईं। वे 1906 से 1924 तक पटियाला में रहीं। वर्ष 1924 में उन्हें देहरादून नगरपालिका की कमिश्नर नियुक्त किया गया। दस वर्षों तक उन्होंने इस पद पर काम किया। वहीं 1953 में इनका देहान्त हुआ।[6]

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]