सुदर्शन चक्र
सुदर्शन चक्र भगवान श्री विष्णु का अंश तथा शस्त्र है।[1] इसको उन्होंने स्वयं तथा उनके कृष्ण तथा परशुराम अवतार ने धारण किया है। किंवदंती है कि इस चक्र को विष्णु ने गढ़वाल के श्रीनगर स्थित कमलेश्वर शिवालय में तपस्या कर के प्राप्त किया था। भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक असुरों ( दानव , दैत्य और राक्षस ) का वध किया था। त्रेतायुग में सुदर्शन चक्र ने अयोध्या के राजकुमार शत्रुघन के रूप में जन्म लिया था तथा मूल रूप से अवतार महिष्मति नरेश विश्वसम्राट श्री कार्तवीर्य अर्जुन के रूप में लिया।
सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति
[संपादित करें]भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति की कहानी हिन्दू पौराणिक कहानीओं में एक महत्वपूर्ण और रोचक प्रसंग है। इसकी प्राप्ति के बारे में विभिन्न पुराणों और ग्रंथों में कई कहानी मिलती हैं। सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति और प्राप्ति के बारे में लोगों में बहुत गलत धारणा है कि सुदर्शन चक्र समुद्र मन्थन के समय सागर से निकला था। ऐसा किसी भी पुराण या ग्रंथ में नहीं लिखा मिलता। सुदर्शन चक्र का सबसे पहले नाम महर्षि वेदव्यासप्रणीत लिङ्ग पुराण के सत्तानबेवाँ अध्याय जालन्धर दैत्य वध की कहानी में आता है। जलन्धर नाम का असुर जलमण्डल से उत्पन्न हुआ था। उसके साथ युद्ध करते हुए यक्ष, गन्धर्व, उरग, देवता और ब्रह्मा जी भी हार गये थे। कई दिन के युद्ध के पश्चात दानव जलन्धर ने भगवान विष्णु को भी हरा दिया। उसके पश्चात जलन्धर लाखों घोड़ों, हाथियों और रथों को लेकर शिव से लड़ने के लिए चल पड़ा। दैत्य जलन्धर को दूसरे असुरों के साथ आता देख कर महादेव हँसते हुए बोले-“हे असुरेश्वर ! अब इस युद्ध से तुम कौन सा कार्य सिद्ध करना चाहते हो? मेरे बाणों से मरने के लिए तुम तैयार हो जाओ।”
तब त्रिनेत्रधारी भगवान विष्णु से पूछने लगे- “विष्णो ! आपने दैत्यराज जलन्धर को युद्ध में क्यों नहीं मारा और क्यों आप वैकुण्ठ का त्याग करके भाग गये।” तब भगवान विष्णु बोले- “हे कैलाशपति ! पहला कारण तो ये है कि ये दानव आपके अंश से उत्पन्न है और दूसरा कारण कि यह लक्ष्मीजी का भाई है। मैं चाहता हूँ कि आप इसका वध करें।” उधर दैत्यराज अभिमान से भरा हुआ था। वह उन की बात सुन कर हँसने लगा।
चन्द्रांशुसन्निभैः शस्त्रैर्हर योद्धुमिहागतः । निशम्यास्य वचः शूली पादाङ्गुष्ठेन लीलया । महाम्भसि चकाराशु रथाङ्गं रौद्रमायुधम् ॥ १६ ॥
करोड़ों दैत्यों के संग युद्ध के लिये आया जान कर भगवान महादेव ने शीघ्र ही अपने पैर के अँगूठे से महासागर में अपने योग बल से एक बहुत भयानक चक्ररूपी अस्त्र उत्पन्न किया, जो बाद में ‘सुदर्शन चक्र’ के नाम से जाना जाता है। भगवान नीलकंठ हँसते हुए बोले-“हे दैत्य ! हे असुरों के राजा जलन्धर ! ये जो महासागर में मेरे पैर के अंगूठे से अस्त्र पैदा हुआ है अगर तुम ने इस को उठा लिया तो मैं तुम से युद्ध करूँगा।” तब उधर अभिमान के कारण उद्दण्ड स्वभाववाला जलन्धर भगवान शिव को मारने के अभिप्राय से वे रुद्र द्वारा निर्मित सुदर्शन चक्र को उठाने लगा। बहुत बल लगा कर जैसे ही असुरों के राजा जलन्धर ने कैलाशपति द्वारा बनाये सुदर्शन चक्र को अपने कंधे पर उठाया तो उसी समय उस दुर्धर चक्र से उस जलन्धर के दो टुकड़े हो गये। ये सुदर्शन चक्र के पहली बार प्रकट होने की घटना है। इस सारी घटना का विवरण पद्मपुराण के पंचम खण्ड के सौवें अध्याय[2] में भी बहुत विस्तार से बताया गया है।
नायमेभिर्महातेजाः शस्त्रास्त्रैर्वध्यते मया । देवैः सर्वैः स्वतेजोऽशः शस्त्रार्थे दीयतां मम ॥ ९ ॥
कुछ समय के पश्चात देवताओं और असुरों के बीच फिर से बहुत भयानक युद्ध हुआ। सभी देवता हार गये और भागकर विष्णु भगवान से प्रार्थना करने लगे कि आप हमारी रक्षा कीजिए। तब देवता आगे बोले- “हे जगद्गुरो ! आप किसी प्रकार से त्रिपुरारी, भोलेनाथ से वही अस्त्र मांग लें जिससे उन्होंने असुर जलन्धर का संहार किया था।” तब श्रीविष्णु बोले- “हे देवताओं ! मैं महादेव के पास जाकर वे शस्त्र प्राप्त करूंगा और सभी असुरों एवं दैत्यों को मारकर आप सबका उद्धार करूँगा।” उसके बाद विष्णु भगवान ने सुरश्रेष्ठ रुद्रदेव की पूजा करनी शुरू की। तब सदाशिव भगवान ने विष्णु जी की परीक्षा लेने के अभिप्राय से विष्णु जी की पूजा में से एक कमल छिपा लिया। एक कमल को कम पा कर विष्णुजी ने अपने नेत्र को भगवान गंगाधर को ‘सर्वसत्त्वावलम्बन’ कहते हुए अर्पण कर दिया।
तदा प्राह महादेवः प्रहसन्निव शङ्करः । सम्प्रेक्ष्य प्रणयाद्विष्णुं कृताञ्जलिपुटं स्थितम् ॥ १६९ ॥ ज्ञातं मयेदमधुना देवकार्यं जनार्दन । सुदर्शनाख्यं चक्रं च ददामि तव शोभनम् ॥ १७० ॥[3]
ये देख कर महादेव शंकर लिङ्ग से अपने करोड़ों सूर्यों के समान तेजसम्पन्न जटारूपी मुकुट से मण्डित रूप में प्रकट हो गये और हँस कर बोले- “हे जनार्दन ! मैं आपके द्वारा देवताओं के लिए होने वाले कार्यों को जानता हूँ और आपको सुदर्शन नामक चक्र को प्रदान करता हूँ।” और ऐसा कहते हुए भगवान शिव ने विष्णुजी सुदर्शन चक्र को दे दिया तथा कमलसदृश एक नेत्र भी उन्हें प्रदान किया। तभी उसी समय से विष्णु भगवान को कमलनयन भी कहा जाने लगा।
परशुराम से प्राप्ति एक अन्य कहानी के अनुसार, सुदर्शन चक्र भगवान् परशुराम से भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त हुआ था, इस का पूर्ण विवरण श्रीहरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के उनतालीसवें अध्याय में दिया गया है। नर्मदा नदी के तट पर बसा हुआ वह नगर यदुवंशियों से भरा हुआ था। वहाँ पर श्रीकृष्ण और बलराम जी ने एक मुनि को बैठे हुए देखा। कृष्ण बोले- “भगवन ! मैं जानता हूँ कि आप मुनिश्रेष्ठ परशुराम हैं। हम यादव हैं और हम कंस के भय के साये में रहते हुए बड़े हुए हैं। अब हम जरासन्ध से युद्ध नहीं करना चाहते, इसके लिए आप हमें कोई सलाह दें।” ये सब सुन कर वीरों के वीर क्षत्रियान्तक महान ऋषि हंसने लगे। और हँसते हुए बोले- “हे मधुसूदन ! मैं आप को अच्छी तरहं से जानता हूँ। और हे रौहिणेय ! आपको भी मैं पहचानता हूँ। तुम्हारे लिए कुछ भी जानना असम्भव नहीं है।”
तत्र चकं हलं चैव गदां कौमोदकीं तथा॥ सौनन्दं मुसलं चैव वैष्णवान्यायुधानि च ॥ ७३ ॥ दर्शयिष्यंति संग्रामे पास्यन्ति च महीक्षिताम्। रुधिरं कालयुक्तानां वपुभिः कालसन्निभैः ॥ ७४ ॥[4]
“हे माधव! वहाँ जाने पर तुमको सुदर्शन चक्र, सौनन्द नामक मुसल, संवर्तक हल और कौमोदकी गदा मिलेंगे। ये विष्णु से सम्बन्धित आयुध हैं। और अपने-अपने काल स्वरूपों से उन राजाओं का रक्तपान करेंगे जो राजा काल के अधीन हो चुके होंगे। देवताओं का रचा हुआ ये चक्र-मुसल नाम का युद्ध पहले से ही निर्धारित कर रखा है। इस युद्ध का स्थान भी वहीं पर निर्धारित किया हुआ है।”
परशुराम जी आगे कहते हैं-“हे ब्राह्मण ! समस्त देवताओं की वृद्धि और उत्पत्ति करने वाले श्रीकृष्ण ! तुम तब अपने वास्तविक रूप में आने के लिए चिरकाल से भूले कौमोदकी गदा और सुदर्शन चक्र को धारण कर लेना। हे कृष्ण, यह तुम्हारा प्रथम युद्ध है, जो पृथ्वी के राजाओं के साथ धर्म की रक्षा के लिए इस भूमि पर हो रहा है। अतः तुम श्रेष्ठ पर्वत गिरिराज गोमन्त पर चलो।” परशुराम जी ने भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र पाने का रहस्य बताते समय कहा कि यह चक्र सदैव धर्म की रक्षा के लिए उपयोग होगा और अधर्म का नाश करेगा।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Dalal, R. (2014). Hinduism: An Alphabetical Guide. Penguin Books Limited. पृ॰ 1184. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-8475-277-9. अभिगमन तिथि 18 July 2024.
- ↑ https://gyaandweep.com/purana/shivapurana/rudra-samhita-yuddha-khanda/20/
- ↑ https://www.ebharatisampat.in/read_chapter?bookid=NjM0MTU3MTE3NzM4MjYy
- ↑ https://www.ebharatisampat.in/read_chapter?bookid=NjM0MTU3MTE3NzM4MjYy