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नाथ साहित्य

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भगवान शिव के उपासक नाथों के द्वारा जो साहित्य रचा गया, वही नाथ साहित्य कहलाता है। राहुल संकृत्यायन ने नाथपंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथपन्थ या नाथ सम्प्रदाय को 'सिद्ध मत', 'सिद्ध मार्ग', 'योग मार्ग', 'योग संप्रदाय', 'अवधूत मत' एवं 'अवधूत संप्रदाय' के नाम से पुकारा है।[1]

वर्गीकरण की दृष्टि से हिंदी के आदिकालीन साहित्य को तीन वर्गों में बाँटा जाता है - धार्मिक, लौकिक एवं इतर साहित्य; नाथ साहित्य इनमें से धार्मिक साहित्य के वर्ग में आता है, और इस वर्ग में अन्य हैं - सिद्ध साहित्य और जैन साहित्य।[2]

सिद्धों के महासुखवाद के विरोध में नाथ पंथ का उदय हुआ। नाथों की संख्या नौ है। इनका क्षेत्र भारत का पश्चिमोत्तर भाग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाये गये पंचमकारों का नकार किया। नारी भोग का विरोध किया। इन्होंने बाह्याडंबरों तथा वर्णाश्रम का विरोध किया और योगमार्ग तथा कृच्छ साधना का अनुसरण किया। ये ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं। ये गुरु को ईश्वर मानते हैं। नाथ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गोरखनाथ हैं। इनकी रचना गोरखबाणी नाम से प्रकाशित है। इस साहित्य की सबसे बड़ी कमी इसका रूखापन और गृहस्थ जीवन की उपेक्षा का भाव है।[3]

नाथ सम्प्रदाय

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नाथ सम्प्रदाय का उल्लेख विभिन्न क्षेत्र के ग्रंथों में जैसे- योग (हठयोग), तंत्र (अवधूत मत या सिद्ध मत), आयुर्वेद (रसायन चिकित्सा), बौद्ध अध्ययन (सहजयान तिब्बती परम्परा 84 सिद्धों में), हिन्दी (आदिकाल के कवियों के रूप) में चर्चा मिलती हैं।

यौगिक ग्रंथों में नाथ सिद्ध : हठप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम और इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार ब्रह्मानंद ने हठ प्रदीपिका ज्योत्स्ना के प्रथम उपदेश में 5 से 9 वे श्लोक में 33 सिद्ध नाथ योगियों की चर्चा की है। ये नाथसिद्ध कालजयी होकर ब्रह्माण्ड में विचरण करते है। इन नाथ योगियों में प्रथम नाथ आदिनाथ को माना गया है जो स्वयं शिव हैं जिन्होंने हठयोग की विद्या प्रदान की जो राजयोग की प्राप्ति में सीढ़ी के समान है।

आयुर्वेद ग्रंथों में नाथ सिद्धों की चर्चा : रसायन चिकित्सा के उत्पत्तिकर्ता के रूप प्राप्त होता है जिन्होंने इस शरीर रूपी साधन को जो मोक्ष में माध्यम है इस शरीर को रसायन चिकित्सा पारद और अभ्रक आदि रसायानों की उपयोगिता सिद्ध किया। पारदादि धातु घटित चिकित्सा का विशेष प्रवर्तन किया था तथा विभिन्न रसायन ग्रंथों की रचना की उपरोक्त कथन सुप्रसिद्ध विद्वान और चिकित्सक महामहोपाध्याय गणनाथ सेन ने लिखा है।

तंत्र गंथों में नाथ सम्प्रदाय: नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ शिव है, मूलतः समग्र नाथ सम्प्रदाय शैव है। शाबर तंत्र में कपालिको के 12 आचार्यों की चर्चा है- आदिनाथ, अनादि, काल, वीरनाथ, महाकाल आदि जो नाथ मार्ग के प्रधान आचार्य माने जाते है। नाथों ने ही तंत्र गंथों की रचना की है। षोड्श नित्यातंत्र में शिव ने कहा है कि - नव नाथों- जडभरत मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, , सत्यनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ नागार्जुन आदि ने ही तंत्रों का प्रचार किया है।

बौद्ध अध्ययन में नाथ सिद्ध 84 सिद्धों में आते है। राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में बौद्ध तिब्बती परम्परा के 84 सहजयानी सिद्धों की चर्चा की है जिसमें से अधिकांश सिद्ध नाथसिद्ध योगी हैं जिनमें लुइपाद मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षपा गोरक्षनाथ, चैरंगीपा चैरंगीनाथ, शबरपा शबर आदि की चर्चा है जिन्हें सहजयानीसिद्धों के नाम से जाना जाता है।

हिन्दी में नाथसिद्ध : हिन्दी साहित्य में आदिकाल के कवियों में नाथ सिद्धों की चर्चा मिलती है। अपभ्रंश, अवहट्ट भाषाओं की रचनाऐं मिलती है जो हिन्दी की प्रारंभिक काल की है। इनकी रचनाओं में पाखंड़ों आडंबरो आदि का विरोध है तथा चित्त, मन, आत्मा, योग, धैर्य, मोक्ष आदि का समावेश मिलता है जो साहित्य के जागृति काल की महत्वपूर्ण रचनाऐं मानी जाती है। जो जनमानस को योग की शिक्षा, जनकल्याण तथा जागरूकता प्रदान करने के लिए था।

हिंदीतर भाषाओं में नाथ साहित्य

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कुछेक भाषाओं के छोड़कर, नाथ साहित्य संपूर्ण भारतीय वांग्मय में प्राप्त होता है। दक्षिण भारत में नाथ साहित्य की रचना कम हुई है क्योंकि वहाँ शैव लोगों में शिव भक्त ही अधिक थे योगी नहीं।[4] मराठी, बंगाली।[5]

विशेषताएँ

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  • इसमें ज्ञान निष्ठा को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है,
  • इसमें मनोविकारों की निंदा की गई है,
  • इस साहित्य में नारी निन्दा का सर्वाधिक उल्लेख प्राप्त होता है,
  • इसमें सिद्ध साहित्य के भोग-विलास की भर्त्सना की गई है,
  • इस साहित्य में गुरु को विशेष महत्व प्रदान किया गया है,
  • इस साहित्य में हठयोग का उपदेश प्राप्त होता है,
  • इसका रूखापन और गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव इस साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जाती है,[6]
  • मन, प्राण, शुक्र, वाक्, और कुण्डलिनी- इन पांचों के संयमन के तरीकों को राजयोग, हठयोग, व

ज्रयान, जपयोग या कुंडलीयोग कहा जाता है।इसमे भगवान शिव की उपासना उदात्तता के साथ मिलती है। नाथ साहित्य में साधनात्मक शब्दावली का प्रयोग भी बहुलता से मिलता है

इन्हें भी देखें

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स्रोत ग्रंथ

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  • रमेश, गौतम; प्रभा; रचना, सिंह (2006). काव्य सुधा. नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-8143-602-4. अभिगमन तिथि 31 दिसम्बर 2021.
  • हजारीप्रसाद, द्विवेदी (2009). हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास. राजकमल प्रकाशन. पपृ॰ 31~. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-267-0035-6. अभिगमन तिथि 31 दिसम्बर 2021.
  • शर्मा, राजमणि (2009). अपभ्रंश भाषा और साहित्य. भारतीय ज्ञानपीठ. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1711-0. अभिगमन तिथि 31 दिसम्बर 2021.
  • रामछबीला, त्रिपाठी (2017). हिंदी और भारतीय भाषा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन. Vāṇī Prakāśana. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-86799-14-2. अभिगमन तिथि 31 दिसम्बर 2021.
  • गौतम, मूलचंद (2009). भारतीय साहित्य. नई दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-8361-352-1. अभिगमन तिथि 31 दिसम्बर 2021.