अवहट्ठ

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अपभ्रंश के ही परवर्ती रूप को 'अवहट्ठ ' नाम दिया गया है। नवमीं से दसवीं शती लेकर के अपभ्रंश रचनाकारों ने अपनी भाषा को 'अवहट्ट' कहा जाता है। साधारणतः बांग्ला भाषा की उत्पत्ति का क्रम यह बताया जाता है- मागधी प्राकृत --> मागधी अपभ्रंश --> मागधी अवहट्ठ ---> बांग्ला ।।

हिन्दी व्युत्पत्ति काल क्रम –

शौरशेनी प्राकृत –> शौरशेनी अपभ्रंश – > शौरशेनी अवहट्ठ –> हिन्दी

शौरशेनी अवहट्ठ के कुछ मौलिक रूप ;

गया – गअ , गय , गयउ , गअउ ।

होता / होती है – होय , होत , होइ ।

करना – करण , करन ।

मैं – मयँ , मइँ ।


अपभ्रंश (अवहट्ठ ) व्याकरण के रूप :

अवहट्ठ काल में शतृ कृदन्तों का प्रयोग अधिक हुआ ।

वर्तमानकाल : खात अहै , चलत अहै , सोवत आदि ।

भूतकाल : चलल , गयल , मुअल , भणल आदि ।

भविष्यकाल : करब , हसब , चलब आदि ।

अपभ्हट्ठ उदाहरण ;

" भल्ला हुआ बहिणि जु मारिया म्हाराउ कंतु " ~ 10 वीं शती

।। भला हुआ बहन जो मारा गया मेरा कन्त ।।

अवहट्ठ में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के शब्द रूप :

पुल्लिंग ( राम )

प्रथमा/द्वितीया – राम रामा/रामओ/रामो

तृतीया/सप्तमी– रामेँ रामेहं

पंचमी/चतुर्थी/षष्ठी – रामह रामहं

स्त्रीलिंग ( लता )

प्रथमा/द्वितीया– लता लताओ

शेष विभक्ति – लताअ/इ लताहीं /लताहं





परिचय[संपादित करें]

कालक्रम से अपभ्रंश साहित्य की भाषा बन चुका था, इसे 'परिनिष्ठित अपभ्रंश' कह सकते हैं। यह परिनिष्ठित अपभ्रंश उत्तर भारत में राजस्थान से असम तक काव्यभाषा का रूप ले चुका था। लेकिन यहाँ यह भूल नहीं जाना चाहिए कि अपभ्रंश के विकास के साथ-साथ विभिन्न क्षेंत्रों की बोलियों का भी विकास हो रहा था और बाद में चलकर उन बोलियों में भी साहित्य की रचना होने लगी। इस प्रकार परवर्ती अपभ्रंश और विभिन्न प्रदेशों की विकसित बोलियों के बीच जो अपभ्रंश का रूप था और जिसका उपयोग साहित्य रचना के लिए किया गया उसे ही 'अवहट्ठ' कहा गया है।

डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी ने बतलाया है कि शौरसेनी अपभ्रंश अर्थात् अवहट्ठ मध्यदेश के अलावा बंगाल आदि प्रदेशों में भी काव्यभाषा के रूप में अपना आधिपत्य जमाए हुए था।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]