सिद्ध साहित्य

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सिद्ध साहित्य ब्रजयानी सिद्धों के द्वारा रचा गया साहित्य है। इनका संबंध बौद्ध धर्म से है। ये भारत के पूर्वी भाग में सक्रिय थे। इनके ग्रंथों की संख्या 84 मानी जाती है सिद्ध साहित्य का प्रारंभ आठवीं सदी से लेकर तेरहवीं सदी मन जाती है जिनमें सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, डोम्भिप्पा, कुक्कुरिप्पा (कणहपा) आदि मुख्य हैं। इन सबके नाम के अंत में पा शब्द सम्मान सुचक है और वह इनका प्रयोग करते थे। इन्होंने अपभ्रंश मिश्रित पुरानी हिंदी तथा अपभ्रंश में रचनाएं की हैं। सरहप्पा प्रथम सिद्ध कवि थे। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि माना है। साधना अवस्था से निकली सिद्धों की वाणी 'चरिया गीत / चर्यागीत' कहलाती है। बौद्ध धर्म की दो शाखाएंहीनयान,महायान सिद्ध साहित्य महायान शाखा से संबंधित साहित्य था सिद्ध साहित्य में जातिवाद और वाह्याचारों पर प्रहार किया गया है। इसमें देहवाद का महिमा मण्डन और सहज साधना पर बल दिया गया है। इसमें महासुखवाद द्वारा ईश्वरत्व की प्राप्ति पर बल दिया गया है। सिद्ध साहित्य के रचयिताओं में लुईपा सर्वश्रेष्ठ हैं। सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवि सरहपा दोहा कोष 769 ई. शबरपा चदपिद 780 ई. कण्हपा 74 ग्रंथ 820 ई. डोम्मिप् डोम्बि, गीतिक, योगचर्चा, अक्षरादकोष कुक्कुरिपा 16 ग्रंथ 840 ई.

इतिहास

सिद्धों का चरम उत्कर्ष काल आठवीं से दसवीं शताब्दियों के मध्य था। इनके प्रमुख केन्द्र श्रीपर्वत, अर्बुदपर्वत, तक्षशिला, नालन्दा, असम, और बिहार थे। सिद्धों को पालवंश का संरक्षण प्राप्त था। बाद में मुसलमान अक्रमाणकारियों से त्रस्त और दुखी होकर सिद्ध ‘भोर’ देश अथार्त नेपाल, भूटान, तिब्बत की ओर चले गए।

सिद्धों के विषय में सबसे पहली जानकारी ज्योतिरीश्वर ठाकुर की रचना ‘वर्णरत्नाकर’ से मिलती है। सिद्धों की रचनाओं की खोज पहले हरप्रसाद शास्त्री ने नेपाल से किया था। १९१७ ई० में इनकी वाणियों का संकलन 'बौद्ध गान और दोहा' के नाम से बांग्ला भाषा में किया गया। इसके बाद सिद्धों के विषय में विस्तृत और विवेचनात्मक जानकारी सबसे पहले राहुल सांकृत्यायन ने ‘हिन्दी काव्यधारा’ में दी जो १०४५ में प्रकाशित हुई थी। राहुल ने सिद्ध साहित्य का आरम्भ सरहपा से माना है और इनका (सरहपा का) समय ७६९ ई० के लगभग माना है। उन्होने सिद्धों की संख्या चौरासी माना है जिनमें ८० पुरुष और ४ स्त्रियाँ (कनखलापा, लक्ष्मीकरा, मणिभद्रा, मेखलापा) थीं। मत्स्येंद्रनाथ (मच्छंदरनाथ), जालान्धरनाथ, नागार्जुन, चर्पटनाथ और गोरखनाथ - वे सिद्ध कवि हैं जो नाथ साहित्य में भी आते हैं।

प्रसार क्षेत्र

सिद्ध सा हित्य बिहार से लेकर असम तक फैला था। राहुल संकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध 'सरहपा' से यह साहित्य आरम्भ होता है। बिहार के नालन्दा विद्यापीठ इनके मुख्य अड्डे माने जाते हैं। बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर इन्हें भारी नुकसान पहुचाया बाद में यह 'भोट' देश चले गए। इनकी रचनाओं का एक संग्रह महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बांग्ला भाषा में 'बौद्धगान-ओ-दोहा' के नाम से निकाला।

सिद्ध साहित्य की विशेषताएं -
  • सिद्ध कवि व्यवहारिक पक्ष पर बल देते थे
  • सिद्ध कवियों ने मंत्र जादू टोना चमत्कार शब्दों द्वारा तांत्रिक साधना पद्दी अपनाएं
  • उन्होंने ब्राह्मण धर्म का विरोध किया
  • सिद्ध कवि योग साधना पर विशेष बल देते थे
  • सिद्ध कवि मोक्ष पाने की अपेक्षा सिद्धियों पर जोर देते थे
  • सिद्ध कवियों ने जाति पांति एवं वर्ण भेद का उठकर मुकाबला किया
  • सिद्धू ने रहस्यवादी प्रवृत्ति को अपनाकर संध्या भाषा के माध्यम से यह प्रवचन देते थे अपभ्रंश प्लस अर्धमगधी
  • सिद्ध साहित्य की काव्य में कबीर सूरदास विद्यापति ने काव्य को प्रभावित किया
  • बिहार पश्चिम बंगाल श्री पर्वत आदि प्रसिद्ध कवि छोटी जातियों एवं आरक्षित में से थे

वर्गीकरण

सिद्ध साहित्य को मुख्यतः निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:-

  • (१) नीति या आचार संबंधित साहित्य
  • (२) उपदेश परक साहित्य
  • (३) साधना सम्बन्धी या रहस्यवादी साहित्य

भाषा-शैली

सिद्धों की भाषा में 'उलटबासी' शैली का पूर्व रुप देखने को मिलता है। इनकी भाषा को संध्या भाषा कहा गया है।

सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएं

  • इस साहित्य में तंत्र साधना पर अधिक बल दिया गया।
  • साधना पद्धति में शिव-शक्ति के युगल रूप की उपासना की जाती है।
  • इसमें जाति प्रथा एवं वर्णभेद व्यवस्था का विरोध किया गया।
  • इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म का खंडन किया गया है।
  • सिद्धों में पंच मकार (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा, मैथुन) की दुष्प्रवृति देखने को मिलती है। हालांकि तंत्रशास्त्र में इसका अर्थ भिन्न बताया गया है।

प्रमुख सिद्ध कवि व उनकी रचनाएँ

  • लुइपा (773 ई. लगभग) -- लुइपादगीतिका
  • शबरपा (780 ई.) -- चर्यापद , महामुद्रावज्रगीति , वज्रयोगिनीसाधना
  • कण्हपा (820 ई. लगभग) -- चर्याचर्यविनिश्चय, कण्हपादगीतिका
  • डोंभिपा (840 ई. लगभग) -- डोंबिगीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश
  • भूसुकपा-- बोधिचर्यावतार
  • आर्यदेवपा -- कावेरीगीतिका
  • कंवणपा -- चर्यागीतिका
  • कंबलपा -- असंबंध-सर्ग दृष्टि
  • गुंडरीपा -- चर्यागीति
  • जयनन्दीपा -- तर्क मुदँगर कारिका
  • जालंधरपा -- वियुक्त मंजरी गीति, हुँकार चित्त , भावना क्रम
  • दारिकपा -- महागुह्य तत्त्वोपदेश
  • धामपा -- सुगत दृष्टिगीतिकाचर्या

आलोचना

सिद्ध साहित्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सांप्रदायिक शिक्षा मात्र कहा जिनका बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खण्डन किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, "जो जनता तात्कालिक नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय त्रस्त होकर निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें