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सहकारिता का इतिहास

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अनेक व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा किसी समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये मिलकर प्रयास करना सहकार (cooperation) कहलाता है। समान उद्देश्य की पूर्ति के लिये अनेक व्यक्तियों या संस्थाओं की सम्मिलित संस्था को सहकारी संस्था कहते हैं।

यूरोप में सहकारी आन्दोलन की शुरुआत १९वीं शताब्दी में हुई, मुख्य रूप से ब्रिटेन और फ्रांस में। औद्योगिक क्रांति और अर्थव्यवस्था के बढ़ते मशीनीकरण ने समाज को बदल दिया और कई श्रमिकों की आजीविका को खतरे में डाल दिया था।

1844 में उत्‍तरी इंग्‍लैंड के रोशडेल शहर में सूती वस्‍त्रों की मिल में कार्यरत 28 कारीगरों के एक समूह ने आधुनिक सहकारिता का पहला व्‍यवसाय स्‍थापित किया जिसे रोशडेल पायनियर्स सोसायटी कहा जाता है। बुनकरों ने काम करने की दयनीय दशाओं और कम मजदूरी का सामना किया और वे भोजन तथा घरेलू सामान की मंहगी कीमतों को बोझ नहीं उठा सके। इसलिए उन्‍होंने निर्णय किया कि अपने सीमित साधनों का पूल बनाकर और एक साथ मिलकर काम करते हुए वे सस्‍ते दामों पर मूलभूत वस्‍तुएं प्राप्‍त कर सकते हैं। आरंभ में, बिक्री के लिए केवल चार वस्‍तुएं ही थीं : आटा, दलिया, चीनी और मक्‍खन।

पॉयनियर्स ने फैसला किया कि टाइम शॉपर्स की ईमानदारी, खुले दिल तथा सम्‍मान के कारण ऐसा माना गया कि वे अपने व्‍यवसाय से होने वाले लाभ को आपस में बांट सकते हैं और इसके लिए उनके पास प्रजातंत्रात्‍मक अधिकार होना चाहिए। दुकान का प्रत्‍येक ग्राहक इसका सदस्‍य बन गया और इस प्रकार व्‍यवसाय में वास्‍तविक भागीदारी आई। पहले तो सहकारिता सप्‍ताह में केवल दो रात के लिए ही खुलती थीं कितु तीन महीनों में ही व्‍यवसाय इतना बढ़ गया कि यह सप्‍ताह में पांच दिन खुलने लगीं।

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले से चल रहा सहकारिता आंदोलन आज विराट रूप धारण कर चुका है और देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसके चलते देशवासी आर्थिक रूप से समृद्ध तो हुए ही हैं, साथ ही बेरोजगारी की समस्या भी बहुत हद तक कम हुई है। एक अनुमान के अनुसार इस समय देशभर में करीब ५ लाख से अधिक सहकारी समितियां सक्रिय हैं, जिनमें करोड़ों लोगों को रोजगार मिल रहा है। ये समितियां समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों में काम कर रही हैं, लेकिन कृषि, उर्वरक ओर दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में इनकी भागीदारी सर्वाधिक है। अब तो बैंकिंग के क्षेत्र में भी सहकारी समितियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। लेकिन देश में सहकारी आंदोलन राजनीतिक उदेश्यो की पूर्ति का साधन बनकर अनेक विसंगतियों के जाल में फंसा दिया गया है।

आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए संस्थाबद्ध हुए लोग, जो व्यवसाय चलाकर समाज की आर्थिक सेवा तथा संस्था के सभी सदस्यों को आर्थिक लाभ कराते हैं, को सहकारिता या सहकारी समिति कहा गया। इस प्रकार के व्यवसाय में लगने वाली पूंजी संस्था के सभी सदस्यों द्वारा आर्थिक योगदान के रूप में एकत्रित की जाती है। पूंजी में आर्थिक हिस्सा रखने वाला व्यक्ति ही उस सहकारी संस्था का सदस्य होता है। भारत में सहकारिता की यह निश्चिचत व्याख्या सन्‌ १९०४ में अंग्रेजों ने कानून बनाकर की थी। कानून बनने के बाद अनेक पंजीकृत संस्थाएं इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए उतरीं। सहकारिता में समाजहित को देखते हुए सरकार द्वारा भी बहुत तेजी से इसकी वृद्धि के प्रयास हुए। सरकार के प्रयास से सहकारी संस्थाओं की संख्या में तो वृद्धि हुई, लेकिन सहकारिता का जो मूल तत्व था वह धीरे-धीरे समाप्त हो गया। सहकारी संस्थाओं में दलीय राजनीति हावी होने लगी। हर जगह लोभ एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। समितियों के सदस्य निष्कि्रय होते चले गए और सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता गया। सहकारिता की इस पृष्ठभूमि, सहकारिता को स्वायत्तता देने की मांग तथा सहकारिता आंदोलन को और बलवती बनाने के लिए सहकार भारती अस्तित्व में आई।

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