"आकाश": अवतरणों में अंतर

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तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते | न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः ||४- ३||<ref>अष्टावक्र गीता, भाग ४, श्लोक-३</ref>
तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते | न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः ||४- ३||<ref>अष्टावक्र गीता, भाग ४, श्लोक-३</ref>
:उसे (ब्रह्म को) जानने वाला अपने अंतः में पाप व पुण्य को स्पर्श नहीं करता, यह ऐसा ही है जैसे ऊपर से कितना ही प्रतीत हो किंतु वास्तव में धुआं कभी आकाश को स्पर्श नहीं करता।
:उसे (ब्रह्म को) जानने वाला अपने अंतः में पाप व पुण्य को स्पर्श नहीं करता, यह ऐसा ही है जैसे ऊपर से कितना ही प्रतीत हो किंतु वास्तव में धुआं कभी आकाश को स्पर्श नहीं करता। वेद, उपनिषद और शास्त्रों में आकाश शब्द का जो व्याहरण हुआ है, उसके अनुसार आ+काश ।(आ+काश+घञ्) आ अक्षर का बहुत वृहद अर्थ होता है। एकाक्षर अर्थ में "आ" अक्षर अव्ययपद है। आ अक्षर सीमारहित को दर्शाने वाला अक्षर है। क्रिया अथवा धातु पद में यह "आङ्" धातु है जिसका अर्थ शसि,इच्छायाम्,आशा,शंस्यते,आह्लाद: आदि शब्द होते हैं। सीमारहित में~आसमुद्र,आजीवन,आमरण,आजानबाहु। कामधेनु तन्त्र में "आ" अक्षर  के लिए कहा गया है~ आकारं परमाश्चर्यं शङ्ख ज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्म विष्णु मयं वर्णं तथा रुद्रमयं   प्रिये  ।। आ अक्षर अव्यय संज्ञा है। आ समन्तात् काशन्ते। आ अक्षर की व्याख्या ऊपर दिया जा चुका है। अब काश शब्द हेतु जो शास्त्रों ने निर्णय दिया है उस पर~ काश=काशते,काशन्ते,दीप्यन्ते, सूर्यादयो यत्र दीप्यन्ते स काश:। समन्तात्=सर्वत्र व्याप्त:। आकाश का एक अर्थ और शास्त्रों में शून्य की भी संज्ञा दी है~ शून्य का अर्थ है; शून्य=अतिशय ऊन:। ऊन: का अर्थ रिक्त स्थान होता है। उस ऊनः में अन्तरिक्ष आदि के अरबों ग्रह भरे पड़े हैं। सूर्य, चन्द्रमा जैसी बहुत सी ज्योतियाँ भरी पड़ी हैं। गैसीय अवस्था में सृष्टि के सृजनशील तत्त्व जिसे वेदों और श्रुतियों में "आपः" तत्त्व कहा गया है। यही "आपः" तत्त्व समस्त ग्रहों को उनके उनके स्थानों में स्थित किये रहता है। यही आपः तत्त्व पृथिवी तथा अन्य ग्रहों को उनके परिपथ से हटने नही देता। सभी अपने अपने परिपथ में सूर्य रूप भगवान हिरण्यगर्भ की परिक्रमा करते रहते हैं। आकाश शब्द की एक और व्याख्या शास्त्रों में मिलती है। वह है~अव+काश । अवकाशे=स्ववास योग्यता प्राप्तौ प्रकाशे। अव धातु अर्थात् क्रिया शब्द है जिसके 19 भेद होते हैं। अव=रक्षणे,गतौ,स्पृहायाँ,तृप्तौ आदि। जिसकी अधीनता में सूर्यादि ग्रह व्याप्त होकर  दीप्तमान हैं उसे आकाश कहा गया है।
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:वेद, उपनिषद और शास्त्रों में आकाश शब्द का जो व्याहरण हुआ है, उसके अनुसार आ+काश ।(आ+काश+घञ्) आ अक्षर का बहुत वृहद अर्थ होता है। एकाक्षर अर्थ में "आ" अक्षर अव्ययपद है। आ अक्षर सीमारहित को दर्शाने वाला अक्षर है। क्रिया अथवा धातु पद में यह "आङ्" धातु है जिसका अर्थ शसि,इच्छायाम्,आशा,शंस्यते,आह्लाद: आदि शब्द होते हैं। सीमारहित में~आसमुद्र,आजीवन,आमरण,आजानबाहु। कामधेनु तन्त्र में "आ" अक्षर  के लिए कहा गया है~ आकारं परमाश्चर्यं शङ्ख ज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्म विष्णु मयं वर्णं तथा रुद्रमयं   प्रिये  ।। आ अक्षर अव्यय संज्ञा है। आ समन्तात् काशन्ते। आ अक्षर की व्याख्या ऊपर दिया जा चुका है। अब काश शब्द हेतु जो शास्त्रों ने निर्णय दिया है उस पर~ काश=काशते,काशन्ते,दीप्यन्ते, सूर्यादयो यत्र दीप्यन्ते स काश:। समन्तात्=सर्वत्र व्याप्त:। आकाश का एक अर्थ और शास्त्रों में शून्य की भी संज्ञा दी है~ शून्य का अर्थ है; शून्य=अतिशय ऊन:। ऊन: का अर्थ रिक्त स्थान होता है। उस ऊनः में अन्तरिक्ष आदि के अरबों ग्रह भरे पड़े हैं। सूर्य, चन्द्रमा जैसी बहुत सी ज्योतियाँ भरी पड़ी हैं। गैसीय अवस्था में सृष्टि के सृजनशील तत्त्व जिसे वेदों और श्रुतियों में "आपः" तत्त्व कहा गया है। यही "आपः" तत्त्व समस्त ग्रहों को उनके उनके स्थानों में स्थित किये रहता है। यही आपः तत्त्व पृथिवी तथा अन्य ग्रहों को उनके परिपथ से हटने नही देता। सभी अपने अपने परिपथ में सूर्य रूप भगवान हिरण्यगर्भ की परिक्रमा करते रहते हैं। आकाश शब्द की एक और व्याख्या शास्त्रों में मिलती है। वह है~अव+काश । अवकाशे=स्ववास योग्यता प्राप्तौ प्रकाशे। अव धातु अर्थात् क्रिया शब्द है जिसके 19 भेद होते हैं। अव=रक्षणे,गतौ,स्पृहायाँ,तृप्तौ आदि। जिसकी अधीनता में सूर्यादि ग्रह व्याप्त होकर  दीप्तमान हैं उसे आकाश कहा गया है।


== सन्दर्भ ==
== सन्दर्भ ==

16:33, 9 जुलाई 2020 का अवतरण

ऊँचाई से वायुयान द्वारा आकाश का दृष्य

किसी भी खगोलीय पिण्ड (जैसे धरती) के वाह्य अन्तरिक्ष का वह भाग जो उस पिण्ड के सतह से दिखाई देता है, वही आकाश (sky) है। अनेक कारणों से इसे परिभाषित करना कठिन है। दिन के प्रकाश में पृथ्वी का आकाश गहरे-नीले रंग के सतह जैसा प्रतीत होता है जो हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के परिणामस्वरूप घटित होता है। जबकि रात्रि में हमे धरती का आकाश तारों से भरा हुआ काले रंग का सतह जैसा जान पड़ता है।

रंग

पीला आकाश में उड़ता हुआ परिंदा

आसमान का रंग उसका अपना नहीं होता है। सूर्य से आने वाला प्रकाश जब आकाश में उपस्थित धूल इत्यादि से मिलता है तो वह छितरता जाता है। नीला रंग, अपने अपेक्षाकृत कम तरंगदैर्घ्य के कारण, अन्य रंगों की अपेक्षा अधिक छितरता है।[1] इसलिए आकाश का रंग नीला दिखता है पर यह हर बार नीला हो ज़रूरी नहीं कई बार यह पीला या लाल रंग का भी दिखाई देता है।[2]

अन्य नाम

आकाश के अन्य नाम है:

  • नभ
  • आसमान
  • अम्बर
  • व्योम
  • निलाम्बर
  • गगन

भारतीय धर्म-दर्शन में आकाश

प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार सृष्टि का निर्माण पांच तत्वों से हुआ माना जाता है जिनमें कि एक आकाश है (बाकी चार हैं-पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि)। यदि तुलना की जाए तो भारतीय धर्म-दर्शन में वर्णित आकाश की अवधारणा वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञान और शब्दावली के एक अयाम "स्थान" (स्पेस) के निकट प्रतीत होता है। इसका एक उदाहरण अष्टावक्र गीता का निम्न श्लोक हैं-

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे | नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ||१- २०||[3]

जिस प्रकार एक ही सर्वव्यापक आकाश घड़े के अंदर व बाहर है, उसी प्रकार सदा स्थिर (सदा विद्यमान) व सदा गतिमान (सदा रहने वाला) ब्रह्म सभी भूतों (all existence) में है।

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते | न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः ||४- ३||[4]

उसे (ब्रह्म को) जानने वाला अपने अंतः में पाप व पुण्य को स्पर्श नहीं करता, यह ऐसा ही है जैसे ऊपर से कितना ही प्रतीत हो किंतु वास्तव में धुआं कभी आकाश को स्पर्श नहीं करता।
वेद, उपनिषद और शास्त्रों में आकाश शब्द का जो व्याहरण हुआ है, उसके अनुसार आ+काश ।(आ+काश+घञ्) आ अक्षर का बहुत वृहद अर्थ होता है। एकाक्षर अर्थ में "आ" अक्षर अव्ययपद है। आ अक्षर सीमारहित को दर्शाने वाला अक्षर है। क्रिया अथवा धातु पद में यह "आङ्" धातु है जिसका अर्थ शसि,इच्छायाम्,आशा,शंस्यते,आह्लाद: आदि शब्द होते हैं। सीमारहित में~आसमुद्र,आजीवन,आमरण,आजानबाहु। कामधेनु तन्त्र में "आ" अक्षर  के लिए कहा गया है~ आकारं परमाश्चर्यं शङ्ख ज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्म विष्णु मयं वर्णं तथा रुद्रमयं   प्रिये  ।। आ अक्षर अव्यय संज्ञा है। आ समन्तात् काशन्ते। आ अक्षर की व्याख्या ऊपर दिया जा चुका है। अब काश शब्द हेतु जो शास्त्रों ने निर्णय दिया है उस पर~ काश=काशते,काशन्ते,दीप्यन्ते, सूर्यादयो यत्र दीप्यन्ते स काश:। समन्तात्=सर्वत्र व्याप्त:। आकाश का एक अर्थ और शास्त्रों में शून्य की भी संज्ञा दी है~ शून्य का अर्थ है; शून्य=अतिशय ऊन:। ऊन: का अर्थ रिक्त स्थान होता है। उस ऊनः में अन्तरिक्ष आदि के अरबों ग्रह भरे पड़े हैं। सूर्य, चन्द्रमा जैसी बहुत सी ज्योतियाँ भरी पड़ी हैं। गैसीय अवस्था में सृष्टि के सृजनशील तत्त्व जिसे वेदों और श्रुतियों में "आपः" तत्त्व कहा गया है। यही "आपः" तत्त्व समस्त ग्रहों को उनके उनके स्थानों में स्थित किये रहता है। यही आपः तत्त्व पृथिवी तथा अन्य ग्रहों को उनके परिपथ से हटने नही देता। सभी अपने अपने परिपथ में सूर्य रूप भगवान हिरण्यगर्भ की परिक्रमा करते रहते हैं। आकाश शब्द की एक और व्याख्या शास्त्रों में मिलती है। वह है~अव+काश । अवकाशे=स्ववास योग्यता प्राप्तौ प्रकाशे। अव धातु अर्थात् क्रिया शब्द है जिसके 19 भेद होते हैं। अव=रक्षणे,गतौ,स्पृहायाँ,तृप्तौ आदि। जिसकी अधीनता में सूर्यादि ग्रह व्याप्त होकर  दीप्तमान हैं उसे आकाश कहा गया है।

सन्दर्भ

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 28 मई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 मई 2018.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 9 मई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 मई 2018.
  3. अष्टावक्र गीता, भाग १, श्लोक-२०
  4. अष्टावक्र गीता, भाग ४, श्लोक-३