"इल्तुतमिश": अवतरणों में अंतर

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== कठिनाइयों से सामना==
== कठिनाइयों से सामना==
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही अवध में पिर्थू विद्रोह हुआ।
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही अवध में पिर्थू विद्रोह

1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतिमिश को अपने दो प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'नासिरुद्दीन क़बाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।
1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतिमिश को अपने दो प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'नासिरुद्दीन क़बाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।



09:05, 23 जून 2012 का अवतरण

इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था । वंश के संस्थापक ऐबक के बाद वो उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मजबूत हुई । वह ऐबक का दामाद भी था । उसने 1211 इस्वी से 1236 इस्वी तक शासन किया । राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीर उसका विरोध कर रहे थे । खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे “अमीरूल उमरा” नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। अकस्मात् मुत्यु के कारण कुतुबद्दीन ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। अतः लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह (जिसे इतिहासकार नहीं मानते) को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, परन्तु दिल्ली के तुर्को सरदारों एवं नागरिकों के विरोध के फलस्वरूप कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश, जो उस समय बदायूँ का सूबेदार था, को दिल्ली आमंत्रित कर राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जड़ नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह को बन्दी बनाकर बाद में उसकी हत्या कर दी गयी और इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।

प्रतिद्वंदी

इल्तुतमिश के दो प्रमुख प्रतिद्वंदी थे - ताजु्ददीन यल्दौज तथा नासिरुद्दीन कुबाचा । ये दोनों गौरी के दास थे । यल्दौज दिल्ली के राज्य को ग़ज़नी का अंग भर मानता था और उसे गज़नी में मिलाने की भरपूर कोशिश करता रहता था जबकि ऐबक तथा उसके बाद इल्तुतमिश अपने आपको स्वतंत्र मानते थे। यल्दौज के साथ तराइन के मैदान में युद्ध किया जिसमें यल्दौज पराजित हुआ । उसकी हार के बाद गजनी के किसा शासक ने दिल्ली की सत्ता पर आपना दावा पेश नहीं किया ।

कुबाचा ने पंजाब तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी । सन् 1217 में उसने कुबाचा के विरूद्ध कूच किया । कुबाचा बिना युद्ध किये भाग गया । इल्तुतमिश उसका पीछा करते हुए मंसूरा नामक जगह पर पहुँचा जहाँ पर उसने कुबाचा को पराजित किया और लाहौर पर उसका कब्जा हो गया । पर सिंध, मुल्तान, उच्छ तथा सिन्ध सागर दोआब पर कुबाचा का नियंत्रण बना रहा ।

इसी समय मंगोलों के आक्रमण के कारण इल्तुतमिश का ध्यान कुबाचा पर से तत्काल हट गया पर बाद में कुबाचा को एक युद्ध में उसने परास्त किया जिसके फलस्वरूप कुबाचा सिंधु नदी में डूब कर मर गया । चंगेज खाँ के आक्रमण के बाद उसने पूर्व की ओर ध्यान दिया और बिहार तथा बंगाल को अपने अधीन एक बार फिर से कर लिया ।

वह एक कुशल शासक होने के अलावा कला तथा विद्या का प्रेमी भी था ।

कठिनाइयों से सामना

सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही अवध में पिर्थू विद्रोह ह 1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतिमिश को अपने दो प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'नासिरुद्दीन क़बाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।

मंगोलों से बचाव

मंगोल आक्रमणकारी चंगेज़ ख़ाँ के भय से भयभीत होकर ख्वारिज्म शाह का पुत्र 'जलालुद्दीन मुगबर्नी' वहां से भाग कर पंजाब की ओर आ गया। चंगेज़ ख़ाँ उसका पीछा करता हुए लगभग 1220-21 ई. में सिंध तक आ गया। उसने इल्तुतमिश को संदेश दिया कि वह मंगबर्नी की मदद न करें। यह संदेश लेकर चंगेज़ ख़ाँ का दूत इल्तुतमिश के दरबार में आया। इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी से बचने के लिए मंगबर्नी की कोई सहायता नहीं की। मंगोल आक्रमण का भय 1228 ई. में मंगबर्नी के भारत से वापस जाने पर टल गया। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने बंगाल में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर लिया तथा 'अलाउद्दीन' की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र 'हिसामुद्दीन इवाज' उत्तराधिकारी बना। उसने 'ग़यासुद्दीन आजिम' की उपाधि ग्रहण की तथा अपने नाम के सिक्के चलाए और खुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया।

विजय अभियान

1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतन्त्र शासक 'हिसामुद्दीन इवाज' के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, पर इल्तुतमिश के पुनः दिल्ली लौटते ही उसने फिर से विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरान्त नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। 1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। संघर्ष में बल्का ख़लजी मारा गया और इस बार एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। 1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथंभौर पर तथा 1227 ई. में परमरों की राजधानी मन्दौर पर अधिकार कर लिया। 1231 ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को पराजित किया। 1233 ई. में चंदेलों के विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में उज्जैन एवं भिलसा के विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा।

वैध सुल्तान एवं उपाधि

इल्तुतमिश के नागदा के गुहिलौतों और गुजरात चालुक्यों पर किए गए आक्रमण विफल हुए। इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बामियान के विरुद्ध हुआ। फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उन सारे क्षेत्रों में कर दी, जो उसने जीते थे। साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी प्रदान की। प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं दिल्ली सल्तनत एक वैध स्वतन्त्र राज्य बन गई। इस स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी सन्तानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। खिलअत मिलने के बाद इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की।

सिक्कों का प्रयोग

इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत कालीन दो महत्त्वपूर्ण सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175 ग्रेन) तथा 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ किया। सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया है। ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य व धर्म का सूर्य”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।

मृत्यु

बयाना पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।

रज़िया को उत्तराधिकार

रज़िया सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी। अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

निर्माण कार्य

स्थापत्य कला के अन्तर्गत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।

पूर्वाधिकारी
आराम शाह
ममलूक वंश
1206–1290
उत्तराधिकारी
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह
पूर्वाधिकारी
आराम शाह
दिल्ली के सुल्तान
1206–1290
उत्तराधिकारी
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह


दिल्ली सल्तनत के शासक वंश
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