पत्ती
पत्र या पर्ण पार्श्विक, चपटी संरचना होती है जो तने पर लगी रहती है। यह गाँठ पर होती है और इसके कक्ष में कली होती है। कक्षीय कली बाद में शाखा में विकसित हो जाती हैं। पत्र प्ररोह के शीर्षस्थ विभज्योतक से निकलती हैं। ये पत्र अग्राभिसारी रूप में लगी रहती हैं। ये पौधों के बहुत ही महत्त्वपूर्ण कायिक अंग है, क्योंकि ये भोजन का निर्माण करती हैं।
एक प्ररूपी पत्र के तीन भाग होते हैं पर्णाधार, पर्णवृन्त तथा स्तरिका। पत्र पर्णाधार की सहायता से तने से जुड़ी रहती है और इसके आधार पर दो पार्श्विक छोटी पत्र निकल सकती है जिन्हें अनुपर्ण कहते हैं। एकबीजपत्री में पर्णाधार चादर की तरह फैलकर तने को पूरा अथवा आंशिक रूप से ढक लेता है। कुछ लेग्यूमी तथा कुछ अन्य पौधों में पर्णाधार फूल जाता है। ऐसे धार को पर्णवृन्ततल्प कहते हैं। पर्णवृन्त पत्र को इस तरह सजाता है जिससे कि इसे अधिकतम सूर्यौज्ज्वल्य मिल सके। लम्बा पतला लचीला पर्णवृन्त स्तरिका को वायु में हिलाता रहता हैं ताकि ताजी वायु पत्र को मिलती रहे। स्तरिका पत्र का हरा तथा विस्तृत भाग हैं जिसमें शिराएँ तथा शिरिकाएँ होती है। इसके मध्य में एक सुस्पष्ट शिरा होती हैं जिसे मध्य-शिरा कहते हैं। शिराएँ पत्र को दार्ढ्य प्रदान करती है और जल, खनिज तथा भोजन के स्थानान्तरण हेतु नलिकाओं की तरह कार्य करती हैं। विभिन्न पौधों में स्तरिका की आकृति उसके किनारे, शीर्ष, सतह तथा छेदन में वैविध्य होती है।
पर्ण के प्रकार्य
[संपादित करें]पर्ण निम्न कार्य सम्पन्न करती हैं:
- प्रकाश-संश्लेषण: सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पत्र भोजन को संश्लेषित करती है।
- गैस विनियम: इनमें विद्यमान रन्ध्रों द्वारा गैस विनिमय होता है जो श्वसन एवं प्रकाश-संश्लेषण हेतु आवश्यक हैं।
- वाष्पोत्सर्जन: रन्ध्रों द्वारा अतिरिक्त जल का वाष्पीकरण में होता है जो पत्र की सतह को शीतलता देता है तथा रसारोहण में सहायता करता है।
- बिन्दुस्राव: आर्द्र जलवायु में पाए जाने वाले पौधों की पत्रों के किनारों से अतिरिक्त लवणीय जल की विन्द्वों के रूप में स्राव होता है।
- विशिष्ट कार्यों हेतु रूपान्तरण: कुछ पादपों में पत्र रूपान्तरित होकर अन्य कार्य करती हैं। जैसे- भोजन संश्लेषण एवं संग्रह आधार एवं सुरक्षा, कायिक जनन तथा कीटों को फँसाना।
पर्णाकारिकी
[संपादित करें]शिराविन्यास
[संपादित करें]पत्र पर शिरा तथा शिरिकाओं के विन्यास को शिराविन्यास कहते हैं। जब शिरिकाएँ स्तरिका पर एक जाल-सा बनाती हैं तब उसे जालिका शिराविन्यास कहते हैं। यह प्रायः द्विबीजपत्री पौधों में मिलता है। जब शिरिकाएँ समानान्तर होती है उसे समानान्तर शिराविन्यास कहते हैं। यह प्रायः एकबीजपत्री पौधों मिलता है।
पत्रों के प्रकार
[संपादित करें]जब पत्र की स्तरिका अछिन्न होती है अथवा कटी हुई किन्तु छेदन मध्य-शिरा तक नहीं पहुँच पाता, तब वह सरल पत्र कहलाती है। जब स्तरिका का छेदन मध्य-शिरा तक पहुँचे और बहुत पत्रकों में टूट जाए तो ऐसी पत्र को संयुक्त पत्र कहते हैं। सरल तथा संयुक्त पत्रों, दोनों में पर्णवृन्त के कक्ष में कली होती है। किन्तु संयुक्त पत्र के पत्रकों के कक्ष में कली नहीं होती।
संयुक्त पत्र दो प्रकार की होती हैं। पिच्छाकार संयुक्त पत्रों में बहुत से पत्रक एक हो अक्ष, जो मध्य-शिरा के रूप में होती है, पर स्थित होते हैं। इसका उदाहरण नीम है। हस्ताकार संयुक्त पत्तियों में पत्रक एक ही बिन्दु अर्थात् पर्णवृन्त की शीर्ष से जुड़े रहते हैं। उदाहरणतः कौशेय कपास वृक्ष।
पर्णविन्यास
[संपादित करें]तने अथवा शाखा पर पत्रों के विन्यास क्रम को पर्णविन्यास कहते हैं। यह प्रायः तीन प्रकार का होता है: एकान्तर, सम्मुख तथा आवर्त। एकान्तर पर्णविन्यास में एक एकल पत्र प्रत्येक गाँठ पर एकान्तर रूप में लगी रहती है। उदाहरणतः गुढ़ल, सर्सों, सूर्यमुखी। सम्मुख पणवन्यास में प्रत्येक गाव पर एक जोड़ी पत्र निकलती है और एक दूसरे के सम्मुख होती है। उदाहरणतः कैलोट्रोपिस और अमरूद। यदि एक ही गाँठ पर दो से अधिक पत्र निकलती हैं और वे उसके चारों ओर एक चक्कर सा बनाता है तो उसे आवर्त पर्णविन्यास कहते हैं जैसे चितौन।
पर्ण की आन्तरिक संरचना
[संपादित करें]अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में पर्ण पृष्ठाधारी अर्थात् क्षैतिज दशा में अभिविन्यस्त तथा विभेदित पर्णमध्योतक युक्त होती है। किन्तु एकबीजपत्री पादपों में पर्ण समद्विपार्श्विक अर्थात् ऊर्ध्व तथा अविभेदित पर्णमध्योतक युक्त होती है।
- बाह्यत्वचा: पत्रों की दोनों ऊपरी तथा निचली सतह पर पाई जाती हैं। इसकी कुछ कोशिकाएँ द्वार कोशिकाएँ बनाती हैं जो व्यवस्थित होकर छिद्र बनाती हैं जिन्हें रन्ध्र कहा जाता है। यह प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन हेतु गैस विनिमय तथा वाष्पोत्सर्जन के समय जल वाष्पन में सहायता करती हैं। कुछ एकबीजपत्री पत्रों में कुछ बाह्यत्वचीय कोशिकाएँ बड़ी होकर आवर्ध त्वक्कोशिकाओं का निर्माण करती हैं जिनसे जल बाहर निकलता है। इसके कारण पर्णसमूह नलिकाकार हो जाती हैं ताकि तेज ताप में वाष्पोत्सर्जन कम हो।
- पर्णमध्योतक: यह हरितलवक युक्त मृदूतक (हरितोतक) का बना होता है तथा प्रकाश-संश्लेषण का कार्य करता हैं। द्विबीजपत्री पत्रों में यह दो प्रकार की कोशिकाओं में विभेदित होता है जो स्तम्भोतकीय तथा स्पंजीय कोशिकाएँ कहलाती हैं। एकबीजपत्री पत्रों में स्तम्भोतक नहीं होती, केवल स्पंजीय ऊतक होते हैं।
- स्तम्भोतकीय स्तर: यह ऊपरी बाह्यत्वचा के नीचे व्यवस्थित होता है। इस अरीय लम्बी, निकटवर्ती व्यवस्थित कोशिकाएँ होती हैं। इनमें हरितलवक अधिक संख्या में विद्यमान होते हैं।
- स्पंजीय स्तर: ये स्तम्भोतकीय कोशिकाओं के नीचे स्थित होते हैं। कोशिकाओं की आकृति अनियमित तथा शिथिलता से व्यवस्थित हरितलवक कम संख्या में उपस्थित होते हैं। अन्तःकोशिकीय कोषों में गैसों का संग्रह करती हैं।
- संहवनीय पूल: ये संयुक्त सम्पार्श्विक एवं बन्द होते हैं। प्रत्येक पूल में दारु पृष्ठीय स्थित होता हैं। अधिकांश संवहनीय पूल रंगहीन मृदूतकीय कोशिकाओं से घिरा रहता है जिसे पूल आच्छद अथवा सीमान्तक मृदूतक कहते हैं।
पृष्ठाधार (द्विबीजपत्री) पत्र
[संपादित करें]पृष्ठाधार पत्र के फलक की लम्बवत् काट तीन प्रमुख भागों जैसे बाह्यत्वचा, पर्णमध्योतक तथा संवहनीय पूल दिखाते हैं। बाह्यत्वचा जो ऊपरी सतह (अभ्यक्ष बाह्यत्वचा) तथा निचली सतह (अपाक्ष बाह्यत्वचा) को घेरे रहती हैं उस पर उपत्वचा होती है। निचली बाह्यत्वचा पर ऊपरी सतह की अपेक्षा रन्ध्र अत्यधिक संख्या में होते हैं। ऊपरी सतह पर रन्ध्र नहीं भी हो सकते हैं। ऊपरी तथा निचली बाह्यत्वचा के मध्य स्थित सभी ऊतकों को पर्णमध्योतक कहते हैं। पर्णमध्योतक जिसमें हरितलवक होते हैं और प्रकाश-संश्लेषण करते हैं, मृदूतक कोशिकाओं से बनते हैं। और इसमें दो प्रकार की कोशिकाएँ होती है- स्तम्भाकार मृदूतक तथा स्पंजीय मृदूतक है। स्तम्भाकार मृदूतक ऊपरी बाह्यत्वचा के बिल्कुल नीचे होते हैं और इनकी कोशिकाएँ लम्बी होती हैं। ये लम्बवत् समानान्तर होती हैं। स्पंजी मृदूतक स्तम्भ कोशिकाओं से नीचे होती हैं और निचली बाह्यत्वचा तक जाती है। इस क्षेत्र की कोशिकाएँ अंडाकर अथवा गोल होती हैं। इन कोशिकाओं के बीच बहुत खाली स्थान तथा वायु गुहिकाएँ होती हैं। संवहनीय तन्त्र में संवहनीय पूल होते हैं। इन पूल शिराओं तथा मध्यशिरा संवहनीय पूल का माप शिराओं के माप पर आधारित होता है। शिराओं की मोटाई द्विबीजपत्री पत्तियों की जालिका शिराविन्यास में भिन्न होती है। संवहनीय पूल संयुक्त बहि:पोषवाहीय तथा मध्यादिदारुक होते हैं। प्रत्येक संवहनीय पूल के चतुर्दिक् मोटी भित्ति वाली कोशिकाओं की एक परत होती है जो सघन होती हैं। इसे पूल आच्छद कहते हैं।
समद्विपार्श्विक (एकबीजपत्री) पत्र
[संपादित करें]एक समद्विपार्श्विक पत्र का शरीर तथा पृष्ठाधार पत्र का शरीर अधिकांश समान ही है; किन्तु उनमें कुछ भिन्नता भी देख सकते हैं इसमें ऊपरी तथा निचली बाह्यत्वचा पर एक समान उपत्वचा होती है और उसमें दोनों सतह पर रन्ध्रों की संख्या लगभग समान होती हैं।
घास में ऊपरी बाह्यत्वचा कुछ कोशिकाएँ लम्बी, खाली तथा रंगहीन होती हैं। इन कोशिकाओं को आवर्ध त्वक्कोशिका कहते हैं। जब कोशिकाएँ स्फीत होती हैं, तब ये कोशिकाएँ मुड़ी हुई पत्रों को खुलने में सहायता करती हैं। वाष्पोत्सर्जन की अधिक दर होने पर ये पत्र वाष्पोत्सर्जन की दर कम करने के लिए मुड़ जाती हैं। एक बीजपत्री की पत्रों में शिरा विन्यास समानान्तर होता है। इसका पता तब लगता है जब हम पत्ती की लम्बवत् काट देखते हैं जिसमें संवहनीय पूल का माप भी एक समान होता है।