पंजदेह प्रकरण
पंजदेह (अब तुर्कमेनिस्तान का सेरहेताबत) भारत के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर स्थित एक गाँव तथा ज़िला। यह मर्व नगर से 100 मील की दूरी पर दक्षिण में स्थित है। इतिहास में पंजदेह अपने सामरिक महत्त्व के कारण काफ़ी प्रसिद्ध था। एक समय ऐसा भी आया, जब इस जगह को लेकर रूस तथा इंग्लैण्ड आमने-सामने आ गए और उनमें युद्ध की भी सम्भावना प्रबल हो गई। पंजदेह प्रकरण (1885) ने रूस और ब्रिटेन के मध्य कूटनीतिक संकट पैदा कर दिया था। उस वक्त रूस और अफगानिस्तान के बीच सीमा को लेकर विवाद चल रहा था। 29 मार्च 1885 को रूसी सेना ने कुश्क नदी के पूर्वी तट पर पंजदेह (अब तुर्कमेनिस्तान का सेरहेताबत) में डेरा डालते हुए अफगान फौजों से पीछे हटने के लिए कहा। उनके ऐसा न करने पर रूसी सेना ने 30 मार्च को उन पर हमला करते हुए उन्हें पुल-इखिश्ति सेतु तक खदेड़ दिया। रूसी सेना के इस कदम से ब्रिटेन उत्तेजित हो उठा, जो उस वक्त रूस की तरह मध्य व दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाने में लगा था। यदि ये युद्ध होता तो निश्चित रूप से दो शक्तियों के बीच अफ़ग़ानिस्तान ही युद्ध का मैदान बन जाता और उसे बहुत नुकसान उठाना पड़ता, किंतु अफ़ग़ानिस्तान के अमीर अब्दुर्रहमान की बुद्धिमानी से युद्ध टल गया।
इंग्लैण्ड-रूस युद्ध की आशंका
[संपादित करें]1884 ई. में रूसियों ने मर्व पर अधिकार कर लिया, जो अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से 150 मील की दूरी पर स्थित है। कुछ अंग्रेज़ सैनिक अधिकारी तथा राजनीतिज्ञ झूठमूठ पंजदेह को बहुत अधिक सामरिक महत्त्व प्रदान कर रहे थे। अत: मर्व पर रूस का अधिकार हो जाने से इंग्लैण्ड में भारी खलबली मच गई। 1885 ई. में रूसी अफ़ग़ान सीमा की ओर और अधिक आगे बढ़े और उन्होंने मार्च, 1885 ई. में अफ़ग़ानों को पंजदेह से निकाल दिया। इससे इंग्लैण्ड में बेचैनी और बढ़ गई। अंग्रेज़ों को अफ़ग़ानिस्तान पर रूसी हमले का भय होने लगा। अत: उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के मित्र तथा रक्षक होने का नाटक करके, किंतु वास्तव में अफ़ग़ानिस्तान न होकर भारत की दिशा में आगे बढ़ने से रोकने के लिए, रूसियों की इस कारवाई पर गहरी नाराजगी प्रकट की और इस बात की आशंका की जाने लगी कि पंजदेह के प्रश्न को लेकर इंग्लैण्ड और रूस में लड़ाई छिड़ जायेगी।
अब्दुर्रहमान की बुद्धिमता
[संपादित करें]इस घटना के वक्त रावलपिंडी में ब्रिटिश भारत के वायसराय लॉर्ड डफरिन के साथ बैठक कर रहे अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक अब्दुल रहमान ने इसे महज एक सीमांत संघर्ष बताया, लेकिन लॉर्ड रिपन (डफरिन के पूर्ववर्ती) जैसे ब्रिटिश मंत्रियों का यही मानना था कि उस इलाके से अफगान फौजों के हटने से वहां अराजक हालात पैदा हो सकते हैं और रूस की दखलंदाजी आगे भी बढ़ सकती है। हालांकि अमीर अब्दुर्रहमान की बुद्धिमता से यह लड़ाई टल गई। उसने दूरदर्शिता से यह समझ लिया था कि यदि पंजदेह के प्रश्न पर इंग्लैण्ड और रूस के बीच लड़ाई हुई तो अफ़ग़ानिस्तान युद्धभूमि बन जायेगा और वह इस विपत्ति को दूर रखना चाहता था। उसने घोषणा की कि यह निश्चित नहीं है कि पंजदेह वास्तव में अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा है और यदि पंजदेह और अफ़ग़ानिस्तान के बीच जुल्फिकार दर्रे पर उसका अधिकार मान लिया जाये तो उसे संतोष हो जायेगा। अमीर अब्दुर्रहमान के इस समझौतापरक रवैये से ब्रिटिश सरकार को अपना रवैया बदलना पड़ा।
सीमा कमीशन
[संपादित करें]इस घटना के बाद अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा के निर्धारण के लिए एंग्लो-रशियन सीमा आयोग गठित किया गया। इस आयोग में कोई अफगानी नहीं था, जिससे आगे चलकर अफगानिस्तान ब्रिटिश भारत और रूसी साम्राज्य के बीच बफर स्टेट बनकर रह गया। उसने जिस सीमा रेखा कि सिफारिश की, उसे 1887 ई. में स्वीकार कर लिया गया। इस सीमा रेखा के अनुसार पंजदेह पर रूसियों का अधिकार और जुल्फिकार दर्रे पर अफ़ग़ानिस्तान का अधिकार मान लिया गया। इस सिफारिश के अनुसार पामीर की दिशा में रूसियों के बढ़ाव पर कोई रोक टोक नहीं लगायी गई।[1]
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 8 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जून 2020.