१९०५ की रूसी क्रांति

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1905 की रूसी क्रांति

खूनी रविवार के पहले की अभिव्यक्तियाँ
तिथि 22 जनवरी 1905 - 16 जून 1907
स्थान रूस
परिणाम इम्पीरियल सरकार की जीत
योद्धा
साँचा:फ्लैगीकोन इम्पीरियल सरकार

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क्रांतिकारियों

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सेनानायक
निकोलस द्वितीय
रूस सर्गेई वित्ते
विक्टर चेर्नोव
व्लादिमीर लेनिन

सन १९०५ में रूसी साम्राज्य के एक विशाल भाग में राजनीति एवं सामाजिक जनान्दोलन हुए जिन्हें १९०५ की रूसी क्रान्ति कहते हैं। यह क्रान्ति कुछ सीमा तक सरकार के विरुद्ध थी और कुछ सीमा तक दिशाहीन। श्रमिकों ने हड़ताल किये, किसान आन्दोलित हो उठे, सेना में विद्रोह हुआ। इसके फलस्वरूप कई संवैधानिक सुधार किये गये जिसमें मुख्य हैं- रूसी साम्राज्य के ड्युमा की स्थापना, बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था, १९०६ का रूसी संविधान।

क्रांति के कारण[संपादित करें]

रूस की 1905 की क्रांति के कारण उसकी राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में निहित थे। जापानी युद्ध ने केवल उत्प्रेरक का कार्य किया। युद्ध में पराजय के कारण रूस की जनता का असंतोष इतना बढ़ गया था कि उसने राज्य के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इस क्रांति के कारण ही सरकार को जापान से युद्ध बंद कर शांति संधि करनी पड़ी। इस क्रांति के कारण निम्नलिखित थे -

  • (1) अलेक्जेण्डर तृतीय और निकोलस द्वितीय के शासन-काल में सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया था। इसके विपरीत, प्रशासन में प्रतिक्रियावादी तत्वों का पूर्ण प्रभाव बना रहा। सुधार आंदोलनों को अत्यंत कठोरता से कुचल दिया जाता था। जार की शक्ति पूर्ण रूप से निरंकुश और स्वेच्छाचारी थी।
  • (2) जार के मंत्री पोवीडोनोस्नेव, टाल्सटाय, प्लेहवे घोर प्रतिक्रियावदी थे। सुधार की माँग को दबाने के लिए उन्होंने जघन्य अत्याचार किये। इससे आतंकवाद बढ़ता गया। पुलिस के अधिकार असीमित थे और निरपराध व्यक्तियों को संदेह मात्र में मृत्यु दण्ड दिया जाता था या साइबेरिया से निर्वासित कर दिया जाता था।
  • (3) क्रांति का कारण कृषकों की भूमि समस्या थी। अभिजात वर्ग के अधिकार में विशाल कृषि भूमि थी। किसान चाहते थे कि इस भूमि को उनमें बाँट दिया जाये। क्रांतिकारियों के प्रचार से उनमें भी जागृति आ रही थी। क्रांति के द्वारा वे भूमि प्राप्त करना चाहते थे।
  • (4) श्रमिकों का असंतोष भी क्रांति का कारण था। रूस में औद्योगीकरण के कारण बड़ी संख्या में मजदूर नगरों में एकत्रित हो गये थे। उनका जीवन असुरक्षित और दयनीय था। औद्योगिक समस्याओं की ओर से सरकार उदासीन था। श्रमिकों में समाजवादी विचार तेजी से फैल रहे थे। उन्हें संगठन बनाने या हड़ताल करने का अधिकार नहीं था। सरकार के दमन से उनमें असंतोष बढ़ता जा रहा था।
  • (5) 1896 के बाद सुधार आंदोलन तेज हो गया था। अभिजात वर्ग और उच्च वर्ग के लोग भी सुधारों की माँग कर रहे थे। समाजवादी समाज में आमूल परिवर्तन की माँग कर रहे थे। 1893 से मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार हो रहा था।
  • (6) रूसीकरण की नीति के कारण दलित जातियाँ जैसे फिन, पोल आदि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही थी। इनके असंतोष से क्रांति को बल प्राप्त हुआ।
  • (7) आतंकवादी पुलिस और भष्ट अधिकारियों की हत्या कर रहे थे। शासन के जुल्म और अत्याचार का यही एकमात्र जबाव रह गया था। कृषकों और श्रमिकों को क्रांति के लिए संगठित किया जा रहा था क्योंकि शांतिपूर्ण उपायों द्वारा सुधार असंभव हो गया था।
  • (8) रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय से सरकार की अयोग्यता और भ्रष्टाचार स्पष्ट हो गया। सभी वर्गां में सरकार की आलोचना हो रही थी। निरंकुश और अयोग्य सरकार के परिवर्तन की माँग बढ़ गयी। जनता के कष्ट बढ़ते जा रहे थे। उन्हें केवल पुलिस का अत्याचार मिलता था।

तात्कालिक पृष्ठभूमि[संपादित करें]

रूस में जापान के विरूद्ध युद्ध को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं था। रूस की जनता यह नहीं जानती थी कि युद्ध किस उद्देश्य से लड़ा जा रहा है। युद्ध का प्रबंधन कुशलता से नहीं किया गया था। भ्रष्टाचार इस सीमा तक बढ़ गया था कि जनता ने जो उपहार सैनिकों के लिए दिये थे, वे नगरों में खुले आम बेचे जा रहे थे। पराजय से जनता में निराशा बढ़ती जा रही थी। 27 दिसम्बर को सम्राट् की दूसरी घोषण प्रकाशित हुई। इसमें सुधार कार्यक्रम पर कई प्रतिबंध लगा दिये गयें जैसे सभाओं की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती थी। इससे रूस की जनता को मालूम हो गया कि सरकार अपनी शक्ति निरंकुश रखना चाहती थी और सुधार करने के लिए उसकी इच्छा नहीं थी।

खूनी रविवार[संपादित करें]

जार की घोषणाओं से सुधारवादी संतुष्ट नहीं थे। अब इस आंदोलन में श्रमिक वर्ग भी सम्मिलित हो गया। जनवरी 1905 में राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग में हड़तालें हुई। श्रमिक संगठन पर एक उदारवादी पादरी, फादर गेपन का प्रभाव। यह संगठन श्रमिकों की आर्थिक समस्याओं पर विचार करने के लिए बनाया गया था लेकिन श्रमिक वर्ग में राजनीतिक जागृति बढ़ रही थी। अतः फादर गेपन को अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए आंदोलन को राजनीतिक रूप भी देना पड़ा। उसके नेतृत्व में राजधानी के श्रमिकों ने कई माँगों के लेकर हडताल कर दी। वार्ता असफल होने के बाद गेपन ने जार के समक्ष याचिका प्रस्तुत करने का निश्चय किया। 22 जनवरी, 1905 को रविवार के दिन उसके नेतृत्व में हजारों श्रमिकों का जुलूस शांतिपूर्ण था लेकिन महल के सामने मैदान में सैनिकों ने उस पर गोलियाँ चलायीं जिससे सैकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गये। इस घटना से क्रांति आंरभ हो गयी।

जार द्वारा सुधारों की घोषणा[संपादित करें]

सुधारवादी आंदोलन अब स्पष्ट रूप से क्रांतिकारी आंदोलन बन चुका था। यातायात और संचार साधन हड़तालों के कारण अवरूद्ध हो गये। थे। जनता के बढ़ते हुए असंतोष के कारण जार ने 3 मार्च को फिर सुधारों की घोषणा की। जार ने कहा कि वह साम्राज्य के योग्यतम व्यक्तियों को कानून बनाने के कार्य में सम्बद्ध करना चाहता था। अपै्रल व जून में अनेक सुधारों की घोषणा भी की गयी और जनता से कहा गया कि वे सुधारों के विषय पर अपने स्मरण पत्र प्रस्तुत करें।

क्रांति का प्रसार[संपादित करें]

सुधारों की इन चर्चाओं के साथ हड़तालों का दौर भी चल रहा था। सारे देश के श्रमिकों ने हड़ताल कर दी थी। स्थान-स्थान पर पुलिस और श्रमिकों की मुठभेंड़े भी हो रही थीं। 14 जून को काला सागर के एक जहाज ‘प्रोटीओमकिन’ के नाविकों ने विद्रोह कर दिया। इस बीच सुदूरपूर्व के दो युद्धों में रूस की निर्णायक पराजय हो चुकी थी। मार्च 1905 में जापान ने मुदकन में रूसी सेना को पराजित कर दिया था। जल युद्ध में जापानियों ने रूस के जहाजी बेड़े की सुसीमा के युद्ध में नष्ट कर दिया था।

अगस्त घोषणा[संपादित करें]

सुसीमा की पराजय के बाद सुधारवादियों ने पुनः सुधार की माँग प्रस्तुत की। इस बार जेम्सतेवों सुधारवादियों के दोनों वर्ग नरम-सुधारवादी और उदार-सुधारवादी एक हो गये। उनका संयुक्त अधिवेशन हुआ जिसमें नगरों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। इस सम्मेलन ने जार के पास एक प्रतिनिधिमण्डल भेजा। प्रतिनिधिमण्डल ने जार से भेंट करके ‘सम्राट और जनता’ के सहयोग के लिए प्रार्थना की लेकिन इसका सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 28 जून को नगर परिषदों का एक वृहद सम्मेलन हुआ जिसमें माँग की गयी कि जेम्सतेवों सम्मेलन की योजना को स्वीकार किया जाये। 19 जुलाई को जेम्सतेवों तथा नगर परिषदों का संयुक्त सम्मेलन हुआ जिसमें संविधान की रूपरेखा स्वीकृत की गयी। सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन अपनी ओर से 6 अगस्त को घोषणा प्रकाशित की जिसमें ड्यूमा की स्थापना के बारे में कहा गया था। इसे अत्यंत सीमित मताधिकार पर चुना जाना था और इसकी स्थिति परामर्श देने की थी। यह सरकार का अधूरा प्रयास था। अनुदारवादियों को छोड़कर किसी दल ने इस योजना को स्वीकार नहीं किया।

क्रांति की असफलता[संपादित करें]

1905 की क्रांति असफल हो चुकी थी लेकिन सुधारवादियों को अभी ड्यूमा से आशा थी। शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि सरकार अपनी रूचि की ड्यूमा चाहती थी। प्रथम ड्यूमा को दो माह बाद भंग कर दिया गया। इसके सदस्यों ने देश से सरकार के प्रति असहयोग की अपील की लेकिन देश आंदोलनों से थक चुका था, अतः इसका प्रभाव नहीं पड़ा। सरकार ने छुटपुट विद्रोह को निर्दयता से कुचल दिया। दूसरी ड्यूमा में भी सरकार विरोधी सदस्यों का बहुमत था। इसे भी भंग कर दिया गया। इसके बाद सरकार ने मताधिकार सीमित करके चुनाव कराये। इससे तीसरी ड्यूमा में सरकार के समर्थकों को बहुमत प्राप्त हो गया। यद्यपि ड्यूमा बनी रही लेकिन वह सरकार से सहयोग करती रही और सरकार की इच्छा के अनुसार चालती रही।

असफलता के कारण[संपादित करें]

क्रांति की असफलता के कारण निम्नलिखित थे -

  • (1) रूस का सैनिकतंत्र दुर्बल नहीं हुआ था। यद्यपि सुदूरपूर्व में हार हो गयी थी, पर सेना पूर्ण रूप से पराजित नहीं हुई थी। जब तक वह सुदूरपूर्व में फँसी रही, जार को क्रांतिकारियों की माँगों को स्वीकार करना पड़ा। उसके वापस आते ही जार ने रियासतें वापस ले लीं और क्रांति को कुचल डाला।
  • (2) विभिन्न राजनीतिक दलों के उद्देश्यों में एकता नहीं थी। अक्टूबरवादी परामर्शदात्री ड्यूमा से संतुष्ट थे। केडेट पार्टी संसदीय प्रणाली चाहती थी। समाजवादी समाज में आमूल परिवर्तन चाहते थे। उद्देश्य एक न होने से आंदोलन में एकता का अभाव हो गया।
  • (3) विभिन्न वर्ग अपने-अपने हितों के लिए कार्य कर रहे थे। श्रमिक वर्ग औद्योगिक समस्याओं को हल करने की प्राथमिकता दे रहा था। कृषक वर्ग समझता था कि ड्यूमा को इसलिए नियंत्रित किया जा रहा है कि वह भूस्वामियों की भूमि जब्त करके उनमें बाँट दे। बुद्धिजीवी नागरिक संविधान और नागरिक अधिकारों में रूचि रखते थे। श्रमिकों और कृषकों को इनमें रूचि नहीं थी।
  • (4) विट की रियासत देने की नीति ने भी आंदोलन को दुर्बल कर दिया। अक्टूबर की घोषणा से केडेट पार्टी में फूट पड़ गयी थी। कृषकों को अनेक रियासतें दी गयी। सामान्य नागरिक, जनता और श्रमिक वर्ग व्यापक मताधिकार से संतुष्ट हो गया था। इससे समाजवादी और आतंकवादी पृथक् रह गये।
  • (5) क्रांति के दौरान श्रमिकों और कृषकों की हिंसा से मध्यम वर्ग क्रांति से विमुख होने लगा था। मास्को के श्रमिकों में बोल्शेविकों का प्रभाव था जिनका सैनिकों से संघर्ष हुआ। ग्रामों में कृषकों की लूट और हिंसा का भी विरोधी प्रभाव पड़ा।
  • (6) क्रांति को चलते एक वर्ष से अधिक हो गया था। इससे जनता में उदासीनता आने लगी थी। रूस जैसे विशाल देश में विभिन्न क्षेत्रों के मध्य समन्वय रखना भी कठिन था। अतः जनता अब ड्यूमा की ओर आकर्षित हो गयी थी।
  • (7) सरकार को विदेशी ऋण मिल जाने से आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गयी। अब वह ड्यूमा को भंग कर सकती थी और क्रांति को कुचल सकती थी। पोर्ट्समाउथ की संधि में रूस को कोई अपना क्षेत्र जापान को नहीं देना पड़ा था। अतः सरकार को मनोबल ऊँचा था। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्थिति भी दृढ़ थी। फ्रांस उसका मित्र था और इंग्लैण्ड से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित हो रहे थे।

अर्ध संवैधानिकता का युग (1906-1917)[संपादित करें]

1905 की क्रांति असफल होने के बाद रूस में स्वेच्छाचारी शासन पूर्ण रूप से स्थापित हो गया था। शासन की नीति प्रतिक्रियावादी और दमनात्मक थी लेकिन ड्यूमा का अस्तित्व बने रहने से शासन का स्वरूप अर्ध-संवैधानिक था। 1912 ई. में चौथी ड्यूमा चुनी गयी। वह भी शासन से सहयोग करती रही। उसके समय में प्रथम विश्वयुद्ध में रूस शामिल हुआ और 1917 में क्रांति हुई। युद्ध की असफलताओं के कारण अविश्वास का वातावरण बन गया। इससे ड्यूमा और सरकार के मध्य मतभेद उत्पन्न हो गये। इस संघर्ष में दोनों ही दुर्बल हो गये जिससे अंत में सत्ता बोल्शेविकों के हाथों में चली गयी।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]