सूचना-समाज

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क्षत्रिय रावत राजपूत समाज विकास मंडल मुंबई महाराष्ट्र"

जिस समाज में सूचना का सृजन, वितरण, उपयोग, एकीकरण आदि एक महत्वपूर्ण आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलाप बन चुका हो वह सूचना-समाज "क्षत्रिय रावत राजपूत समाज विकास मंडल मुंबई महाराष्ट्र" कहलाता है।

परिचय[संपादित करें]

सूचना के उत्पादन, विनिमय और उपभोग के इर्द-गिर्द संगठित समाज की इस धारणा का प्रतिपादन नब्बे के दशक में किया गया। सत्तर के दशक के मध्य में डेनियल बेल के उत्तर-औद्योगिक समाज संबंधी लेखन में सूचना-समाज की आहटें सुनी जा सकती थीं, पर नब्बे के दशक में इंटरनेट जैसी ग्लोबल इनफ़ॉर्मेशन प्रौद्योगिकियों के विस्फ़ोट के बाद ही यह विचार पूरी तरह विकसित हो पाया। सूचना और सूचना-समाज का रिश्ता कमोबेश वैसा ही है जैसा उद्योगों और औद्योगिक युग के बीच है।

मशीनों, कारख़ानों और उजरती श्रम का अस्तित्व औद्योगिक युग से पहले भी था, लेकिन उन्नीसवीं सदी में उनकी केंद्रीयता कुछ इस तरह से बढ़ी कि लोगों की ज़िंदगी और उनके दृष्टिकोण में बुनियादी तब्दीली हो गयी। सूचना, जो हमेशा से मौजूद और अहम थी, एक निश्चित प्रौद्योगिकीय अवस्था के कारण पिछले तीन दशक के दौरान मानव-समाज की नियामक बन गयी है। इसके कारण सामाजिक संगठन का एक विशिष्ट रूप पैदा हो गया है जिसमें उत्पादकता और सत्ता का बुनियादी स्रोत सूचनाओं के उत्पादन, संसाधन और प्रसारण में निहित है।

सूचना ने सबसे कीमती और ज़रूरी पण्य का रूप ग्रहण कर लिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि कारख़ाना- उत्पादन और सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था का महत्त्व ख़त्म हो गया है। अर्थव्यवस्था के ये क्षेत्र अपनी भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन औद्योगिक समाज या उत्तर-औद्योगिक समाज की धारणाएँ अब परिवर्तन की मुख्य चालक-शक्ति नहीं रह गयी हैं।

एक घने सूचना-समाज का हृदयस्थल टाइम्स स्क्वायर

कुछ विद्वानों का आग्रह है कि सूचना-समाज की परिघटना सूचना-आधारित बाज़ारों के चौतरफ़ा उदय की रोशनी में परिभाषित की जानी चाहिए। शारीरिक श्रम के बजाय सूचना आधारित पूँजी कहीं अधिक धन पैदा कर सकती है। सूचना-आधारित उत्पादों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी और बढ़ती ही जा रही है। 1945 में समूची धरती पर जितनी कम्प्यूटर-पॉवर मौजूद थी, उससे ज़्यादा ताकत खोलते ही संगीत सुनाने वाले सिर्फ़ एक ग्रीटिंग कार्ड में मौजूद होती है। सुबह काग़ज़ पर छपा अख़बार खोलते ही हम पाठक के साथ-साथ श्रोता भी हो जाते हैं। हमारी निगाह न केवल विज्ञापनों में दर्ज सूचनाओं पर पड़ती है, बल्कि किसी-किसी विज्ञापन में लगे हुए एक छोटे से यंत्र से आती हुई आवाज़ भी उस उत्पाद का प्रचार करती हुई सुनायी देती है। किसी ज़माने में कार की ज़्यादातर कीमत उसमें लगे इस्पात के आधार पर तय होती थी, पर आज नयी टोयोटा कार का 70 फ़ीसदी से ज़्यादा मूल्य उसके इनफ़ॉर्मेटिक्स संबंधी घटक से निकाला जाता है।  मार्केट-रिसर्च के आधार पर प्राप्त सूचनाओं के आधार पर उपभोक्ता के चरित्र और प्रवृत्तियों की शिनाख्त की जाती है जिसका निर्णायक असर उत्पादन संबंधी फ़ैसलों पर पड़ता है। जैविक सूचनाओं की डिकोडिंग के माध्यम से विज्ञान की सम्भावनाओं में लगातार वृद्धि की जा रही है। इसके नतीजे ह्यूमन जिनोम प्रोजेक्ट में निकले हैं। क्लोनिंग और सूचना की प्रतिकृति बनाना एक-दूसरे के पर्याय ही हैं। सूचना प्रौद्योगिकियाँ बाज़ारों और संस्कृतियों की गतिशीलता और फैलाव का माध्यम बन गयी हैं।

राष्ट्र-राज्य भू-क्षेत्रों पर कब्ज़े और नियंत्रण के लिए आज भी संघर्ष करते हैं। कच्चे माल व सस्ते श्रम के संसाधनों के दोहन के लिए साम्राज्यवादी और नव-औपनिवेशिक अभियान आज भी चलाये जाते हैं। लेकिन सूचनाओं पर काबिज़ होने के लिए किया जाने वाला संघर्ष आज कहीं ज़्यादा बड़ा हो चुका है।  सूचना एक ऐसा प्रतिमान है जिसके माध्यम से सामाजिक विकास की नयी प्रवृत्तियों की व्याख्या की जा सकती है। सूचना-आधारित विकास-क्रम के कारण मीडिया, औषधि और निगरानी से संबंधित प्रौद्योगिकी से संबंधित नैतिक सरोकारों का जन्म हुआ है। सूचना के वितरण, उस पर अधिकार और लेखकत्व की परिभाषाओं से जुड़े प्रश्न लगातार विवादास्पद होते जा रहे हैं। ये नयी प्रवृत्तियाँ केवल सकारात्मक ही नहीं हैं। विचारकों के बीच सूचना के बोलबाले के कारण पैदा हुई दुश्चिंताओं पर भी चिंतन-मनन चल रहा है। सूचना-समाज में ज्ञान की संरचनाओं की स्थिति को लेकर भी समाजवैज्ञानिकों में काफ़ी चिंता देखी गयी है।

सूचना-समाज पर बहस का ध्रुवीकरण हो गया है। एक पक्ष की मान्यता है कि समाज के इस रूप ने उन्हें आज़ादी के नये आयामों से परिचित कराया है। ऐसे समाज में लोग अधिक सूचना-सम्पन्न होने के नाते बेहतर आत्माभिव्यक्ति के योग्य होंगे। नयी प्रौद्योगिकियों के माध्यम से उन्हें राजनीतिक और सांस्कृतिक दायरों में बेहतर सहभागिता का मौका मिल पायेगा। यह पक्ष प्रौद्योगिकी के प्रभुत्व में किसी किस्म का जोखिम नहीं देखता। इसके विपरीत दूसरा पक्ष सूचना-बाहुल्य और सूचना-प्रधानता के कारण कई तरह की दुश्चिंताओं की तरफ़ इशारा कर रहा है। सत्ता संरचनाएँ सूचना-प्रौद्योगिकियों का सहारा ले कर व्यक्ति और समाज की गतिविधियों की अधिक निगरानी कर रही हैं जिससे निजता और प्राइवेसी अंत के करीब पहुँच गयी है। नयी टेक्नॉलॅजी के ज़रिये लगातार नज़र रखना और रिकॉर्ड करना सम्भव हो गया है। इसके अलावा अगर हमारी ख़रीद-फ़रोख्त और घूमने-फिरने से संबंधित जानकारियाँ भी जमा की जा रही हैं, तो उनके आधार पर भी हमें एक पूर्व-निर्धारित किस्म के आचरण की तरफ़ जाने-अनजाने धकेला जा सकता है। यह पक्ष मानता है कि सूचना-समाज स्वतंत्र नहीं है।  उसने तरह-तरह के विकेंद्रीकृत नेटवर्कों के माध्यम से नियंत्रण  किया जा रहा है। पहले बेंथम ने और फ़ूको ने जिस पनोप्टीकॉन के विचार का प्रतिपादन किया है, वह सूचना-समाज की परिस्थितियों पर पूरी तरह से लागू होता है। 

सूचना-समाज के सबसे चर्चित सिद्धांतकार मैनुएल कैसेल्स हैं जिनकी रचना द इनफ़ॉर्मेशन एज : इकॉनॉमी, सोसाइटी ऐंड कल्चर ने इस प्रत्यय को प्रचलित किया है। कैसेल्स के विमर्श से इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता कि सूचना-समाज में ज्ञान की संरचनाओं की क्या स्थिति होगी।  उन्होंने सूचना और ज्ञान को जिस चिंतन (डेनियल बेल : द कमिंग ऑफ़ पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसाइटी, फ़्रिट्ज़ मैकलुप : द प्रोडक्शन ऐंड डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ नॉलेज इन द यूनाइटिड स्टेट्स, मार्क पोराट : द इनफ़ॉर्मेशन इकॉनॉमी) के आधार पर परिभाषित किया है वह 1962 से 1977 के बीच प्रकाश में आया था। मार्शल मैकलुहन का मीडिया से संबंधित सिद्धांत भी साठ के दशक में प्रकाशित हुआ था। इस शास्त्र द्वारा दी गयी परिभाषाओं के मुताबिक सूचना (सुव्यवस्थित तथ्य और सामग्री) के आधार पर ज्ञान की रचना होती है और सूचना को उसे उत्पादित और प्रसारित करने वाली प्रौद्योगिकी से काट कर नहीं समझा जा सकता। नतीजतन प्रौद्योगिकीय स्थिति ज्ञान की संरचना को गहराई से प्रभावित करती है। अगर यह विमर्श सही है तो फिर सवाल उठता है कि सूचना-प्रौद्योगिकी में होने वाले किसी अचानक परिवर्तन से सूचना-समाज में ज्ञान भी बदल जाएगा? ज्याँ-फ़्रास्वाँ ल्योतर ने भी 1979 में प्रकाशित अपनी रचना पोस्टमॉडर्न कण्डीशन में यह चौंका देने वाला अवलोकन किया था कि कम्प्यूटरीकृत पूँजीवाद के ज़माने में ज्ञान परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकता। ल्योतर ने उसी समय देख लिया था कि ज्ञान ‘सूचनात्मक पण्य’ बनता जा रहा है। डिजिटलाइज़ेशन ने ज्ञान को सूचना के टुकड़ों में बदल दिया है और उन बिट्स को मशीनों पर संसाधित करके तेज़ रक्रतार से प्रसारित किया जा सकता है। इस तरह ल्योतर की निगाह में सूचना ज्ञान का वह रूप बन जाती है जिसे चैनल के मार्फ़त प्रसारित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है ताकि वह कारगर या ऑपरेशनल हो सके। इस लिहाज़ से ज्ञान का यह रूप चिंतनपरक न हो कर प्रदर्शनपरक और परिणामात्मक है। मैकलुहन इसी बात को इस तरह कहते हैं कि सूचना एक ग़ैर- विमर्शी कोड या डाटा है जिसे टीवी के छोटे-छोटे साउंड बाइट्स की तरह उत्पादित किया जाता है और मनुष्य जिसका मशीनों की तरह उपभोग करते चले जाते हैं। 

सूचना-समाज में ज्ञान की ऐसी चिंताजनक स्थिति पर विचार करते हुए स्कॉट लैश ने अपनी रचना क्रिटीक ऑफ़ इनफ़ॉर्मेशन में आख्यान आधारित ज्ञान और प्रौद्योगिकीय सूचना आधारित ज्ञान में फ़र्क किया है। लैश के अनुसार आख्यान आधारित ज्ञान धीरज के साथ चिंतन और मनन की माँग करता है, जबकि ज्ञान का यह नया रूप जितनी तेज़ी से प्रकट होता है उतनी ही तेज़ी से लुप्त भी हो जाता है।  इस लिहाज़ से लैश सूचना को प्रतिनिधित्वमूलक मानने के बजाय प्रस्तुतिमूलक मानते हैं। सूचना एक ‘अनगढ़ तथ्यात्मकता’ का नाम है।  उसकी यह प्रकृति समाज और संस्कृति के सिद्धांतकारों के लिए कठिनाई पेश करती है। उनके पास सूचना-समाज के दायरों से बाहर रह कर उनकी आलोचना विकसित करने का कोई मौका ही नहीं है। इसीलिए उन्हें पहले संस्कृति और समाज को परिभाषित करने वाली बुनियादी धारणाओं पर पुनर्विचार करना होगा। ये धारणाएँ आख्यानात्मक ज्ञान की उपज होने के कारण सूचना-समाज के भीतर कारगर साबित नहीं होतीं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

1. मैनुएल कैसेल्स (1996), द राइज़ ऑफ़ द नेटवर्क सोसाइटी, द इनफ़ॉर्मेशन एज : इकॉनॉमी, सोसाइटी ऐंड कल्चर, ब्लैकवेल, ऑक्सफ़र्ड, खण्ड 1.

2. ज्याँ-फ़्रांस्वा ल्योतर (1984), द पोस्टमॉडर्न कण्डीशन : अ रिपोर्ट ऑन नॉलेज, मैंचेस्टर युनिवर्सिटी प्रेस, मैनचेस्टर.

3. मार्क पोराट (1977), द इनफ़ॉर्मेशन इकॉनॉमी : डेफ़िनिशन ऐंड मेज़रमेंट, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ़ कॉमर्स, वाशिंगटन डीसी.

4. स्कॉट लैश (2002), क्रिटीक ऑफ़ इनफ़ॉर्मेशन, सेज, लंदन.