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सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य

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प्रतापगढ़ में जाखम नदी

सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य422.94 वर्गकिलोमीटर में फैला है, जो जिला मुख्यालय बांसवाड़ा से केवल ४० किलोमीटर, उदयपुर से १०० और चित्तौडगढ़ से करीब ६० किलोमीटर दूर है। यह अद्वितीय अभयारण्य प्रतापगढ़ जिले में, राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में अवस्थित है, जहाँ भारत की तीन पर्वतमालाएं- अरावली, विन्ध्याचल और मालवा का पठार आपस में मिल कर ऊंचे सागवान वनों की उत्तर-पश्चिमी सीमा बनाते हैं। आकर्षक जाखम नदी, जिसका पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता, इस वन की जीवन-रेखा है।

यहां की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वन्यजीव प्रजातियों में उड़न गिलहरी और चौसिंघा (four Horned Antelope) हिरण उल्लेखनीय हैं। यहां स्तनधारी जीवों की ५०, उभयचरों की ४० और पक्षियों की ३०० से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत के कई भागों से कई प्रजातियों के पक्षी प्रजनन के लिए यहां आते हैं।

वृक्षों, घासों, लताओं और झाडियों की बेशुमार प्रजातियां इस अभयारण्य की विशेषता हैं, वहीं अनेकानेक दुर्लभ औषधि वृक्ष और अनगिनत जड़ी-बूटियाँ अनुसंधानकर्ताओं के लिए शोध का विषय हैं। वनों के उजड़ने से अब वन्यजीवों की संख्या में कमी आती जा रही है।

प्रतापगढ़ इतिहास के आरम्भ से ही प्रकृति की नायाब संपदा से धनी क्षेत्र रहा है। इस के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में मूल्यवान सागवान के बड़े सघन जंगल थे, इसलिए अंग्रेज़ी शासन के दौर में इस वन-संपदा के व्यवस्थित देखरेख की गरज से एक अलग महकमा-जंगलात, १८२८ ईस्वी में कायम किया गया. यहीं ऐसे स्थान भी हैं जहाँ सूरज की किरण आज तक ज़मीन पर नहीं पडी!

स्थानीय लोगों की मान्यता है कि त्रेता युग (रामायण काल) में, राम द्वारा बहिष्कृत कर दिए जाने के बाद सीता ने यहीं अवस्थित महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में न केवल निवास किया था, बल्कि उसके दोनों पुत्रों- लव और कुश का जन्म भी यहीं वाल्मीकि आश्रम में हुआ था। यहां तक कि सीता अंततः जहाँ भूगर्भ में समा गयी थी, वह स्थल भी इसी अभयारण्य में स्थित है! सेंकडों सालों से सीता से प्रतापगढ़ के रिश्तों के सम्बन्ध में इतनी प्रबल लोक-मान्यताओं के चलते यह स्वाभाविक ही था कि अभयारण्य का नामकरण सीता के नाम पर किया जाता.

आज भी यह प्रतापगढ़ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल है- प्रकृति-प्रेमियों के बीच वनस्पतियों और पशु-पक्षियों की विविधता के लिहाज़ से उत्तर भारत के अनोखे अभयारण्य के रूप में लोकप्रिय हो सकने की अनगिनत संभावनाओं से भरपूर, किन्तु अपेक्षित पर्यटक-सुविधाओं के सर्जन और विस्तार के लिए यह सघन वन-क्षेत्र अब भी पर्यटन और वन विभागों की पहल की बाट जोह रहा है! प्रकृति की इस नायाब निधि को क्षरण और मनुष्यों के अनावश्यक हस्तक्षेप से बचाने के लिए इसे राष्ट्रीय उद्यान बनवाने के लिए वर्त्तमान जिला प्रशासन और वन विभाग के संयुक्त प्रयास तेज किये जा रहे हैं। यहाँ पाई जाने वाली उड़न गिलहरियों को स्थानीय भाषा में आशोवा नाम से जाना जाता है इसका वैज्ञानिक नाम रेड फ्लाइंग स्किवरल पेटोरिस्टा एल्बी वेंटर है। यह अभयारण्य चौसिंगा के प्रमुख राष्ट्रीय स्थलों में से एक है। यह चौसिंगा की जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है। चौसिंगा एंटी लॉप प्रजाति का दुर्लभतम वन्य जीव हैं जिसे स्थानीय भाषा में भेडल भी कहा जाता है।यह जंगली मुर्गों के अलावा पेंगोलिन (आडाहुला) जैसा दुर्लभ वन्य जीव भी पाया जाता है। इस अभयारण्य में आर्किड एवं विशाल वृक्षीय मकड़ियाँ भी पायी गयी हैं। भारत के कई भागों से कई प्रजातियों के पक्षी प्रजनन के लिए यहां आते है।

यह एक धार्मिक इस्तल हे यहाँ ऊंचे पहाड़ पर एक सीता माता जी का मंदिर भी हे जहा सीता माता की एक मूर्ति हे वही प्रतापगढ़ के पास एक गाव बोरी हे वहा के लोगो का यह कहना है सीता माता जी की मूर्ति वही के ब्राह्मणो द्वार इस्तापित कि गइ हे जोशी परिवार बोरी के बुजुर्गों का कहना है कि सीता माता जी अभ्यारण्य में जो सीता माता जी की मूर्ति है वो जोशी परिवार के लोगों के द्वारा स्थापित कि गई है जो कि बोरी गांव से ले जायी गई थी उससे पहले वहां कोई भी मूर्ति नहीं थी जोशी परिवार के प्यारेलाल और राधे किशन जोशी जी द्वारा बोरीगांव से ले जाकर यह मूर्ति इस्तापित की गई