सप्तभंगी नय

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स्यादवाद या अनेकान्तवाद या सप्तभङ्गी का सिद्धान्त जैन धर्म में मान्य सिद्धान्तों में से एक है। 'स्यादवाद' का अर्थ 'सापेक्षतावाद' होता है। यह जैन दर्शन के अंतर्गत किसी वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धांत है। 'सापेक्षता' अर्थात 'किसी अपेक्षा से'। अपेक्षा के विचारों से कोई भी चीज सत्‌ भी हो सकती है और असत्‌ भी। इसी को 'सत्तभंगी नय' से समझाया जाता है। इसी का नाम 'स्यादवाद' है।

जैन धर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण प्रत्येक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न हो सकता है। केवल दो ('सत्य' और 'असत्य') नहीं, बल्कि सात स्तरीय तर्कपद्धति। ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की हो सकती है-

(१) स्यात्-अस्ति (है)
(२) स्यात्-नास्ति (नहीं है)
(३) स्यात् अस्ति च नास्ति च (है और नहीं है)
(४) स्यात् अवक्तव्यम् (कहा नहीं जा सकता)
(५) स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च (है किन्तु कहा नहीं जा सकता)
(६) स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च (नहीं है और कहा नहीं जा सकता)
(७) स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च (है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।)

स्यात्-अस्ति[संपादित करें]

यह पहला मत है। उदाहरण के तौर पर यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे जैसा है' तो उसका अर्थ होगा कि किसी विशेष देश, काल और परिस्थिति में हाथी खम्भे जैसा है। यह मत भावात्मक है।

स्यात्-नास्ति[संपादित करें]

यह एक अभावात्मक मत है। इस परिप्रेक्ष्य में हाथी के संबंध में मत इस प्रकार होना चाहिए कि- स्यात् हाथी इस कमरे के भीतर नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कमरे में कोई हाथी नहीं है। स्यात् शब्द इस तथ्य का बोध कराता है कि विशेष रूप, रंग, आकार और प्रकार का हाथी इस कमरे के भीतर नहीं है। जिसके बोध में हाथी दीवार या रस्सी की तरह है उसके लिए अभावात्मक मत के रूप में इस नय का प्रयोग किया जाता है। स्यात् शब्द से उस हाथी का बोध होता है जो मत दिये जाने के समय कमरे में उपस्थित नहीं है।

स्यात् अस्ति च नास्ति च[संपादित करें]

इस मत का अर्थ है कि वस्तु की सत्ता किसी विशेष दृष्टिकोण से हो भी सकती है और नहीं भी। हाथी के उदाहरण को ध्यान में रखें तो वह खम्भे के समान हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में 'स्यात् है और स्यात् नहीं है' का ही प्रयोग हो सकता है।

स्यात् अवक्तव्यम्[संपादित करें]

यदि किसी मत में परस्पर विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो उस विषय में स्यात् अवक्तव्यम् का प्रयोग किया जाता है। हाथी के संबंध में कभी ऐसा भी हो सकता है कि निश्चित रूप से नहीं कहा जा सके कि वह खम्भे जैसा है या रस्सी जैसा। ऐसी स्थिति में ही स्यात् अवक्तव्यम् का प्रयोग किया जाता है। कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं जिनके संबंध में मौन रहना, या यह कहना कि इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, उचित होता है। जैन दर्शन का यह चौथा परामर्श इस बात का प्रमाण है कि वे विरोध को एक दोष के रूप में स्वीकार करते हैं।

स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च[संपादित करें]

कोई वस्तु या घटना एक ही समय में हो सकती है और फिर भी संभव है कि उसके विषय में कुछ कहा न जा सके। किसी विशेष दृष्टिकोण से हाथी को रस्सी जैसा कहा जा सकता है। परन्तु दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो हाथी के स्वरूप का वर्णन असंभव हो जाता है। अतः हाथी रस्सी जैसी और अवर्णनीय है। जैनों का यह परामर्श पहले और चौथे नय को जोड़ने से प्राप्त होता है।

स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च[संपादित करें]

किसी विशेष दृष्टिकोण से संभव है कि किसी भी वस्तु या घटना के संबंध में 'नहीं है' कह सकते हैं, किंतु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अतः हाथी रस्सी जैसी नहीं है और अवर्णनीय भी है। यह परामर्श दूसरे और चौथे नय को मिला देने से प्राप्त हो जाता है।

स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च[संपादित करें]

इस मत के अनुसार एक दृष्टि से हाथी रस्सी जैसी है, दूसरी दृष्टि से नहीं है और जब दृष्टिकोण अस्पष्ट हो तो अवर्णनीय भी है। यह परामर्श तीसरे और चौथे नय को मिलाकर बनाया गया है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखे[संपादित करें]

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