सदस्य:प्रियदर्शन कुमार

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से



काव्य संख्या-205

==========[संपादित करें]

टूटते पत्ते

==========[संपादित करें]

वृक्ष से जब पत्ते टूटकर अलग होते हैं पत्ते का अस्तित्व खत्म हो जाता है। जबतक पत्ते वृक्ष से जुड़े रहते हैं, वृक्ष बूढ़ा होकर भी, अपनी क्षमता तक, पत्तों का पालन-पोषण करता है। मगरूर पत्ता, अपने यौवन से चूर होकर पेड़ से अलग हो जाता है। वह यह नहीं सोच पाता है कि उस पेड़ का क्या होगा, जिसने उसका पालन-पोषण किया है उसके दर्द का उसे तनिक भी अहसास नहीं पत्ते को अलग होते देख वृक्ष मुरझाने लगता है। पत्ते को लगता है, उसके लिए अब वृक्ष की कोई अहमियत नहीं है। वह समझने लगता है कि वृक्ष की सुंदरता उसके कारण ही है लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि उसके चहरे पर मुस्कान का कारण वह वृक्ष है वह जो भी है, जैसा भी है, उस वृक्ष के कारण है। वह जब भी पहचाना जाएगा अपने वृक्ष से ही। लेकिन मगरूर पत्ता अपने अस्तित्व के लिए भटकता रहता है, दर-बदर की ठोकरें खाते रहता है और अंत में टूटकर बिखर जाता है क्योंकि अपने सृजक की आत्मा को पीडि़त कर सृजित कैसे खुश रह सकता है।

          प्रियदर्शन कुमार
===================[संपादित करें]

===========

जिंदगी

===========

जीवन में न जाने

कितने ही दौर आते हैं

कभी सुख कभी दुख

कभी हँसना कभी रोना

कभी हैरान कभी परेशान

कभी अच्छा कभी खराब

कभी भला कभी बुरा

कभी मिलना कभी बिछड़ना

कभी अपनो का साथ कभी परायों का

कभी प्यार कभी वेदना

कभी सम्मान कभी अपमान

कभी आँसू कभी मुस्कान

कभी सफलता कभी असफलता

कभी आशा कभी निराशा

कभी यश कभी अपयश

कभी हार कभी जीत

कभी उपर कभी नीचे

बस, यूं ही कट जाती है

इंसान की सारी जिंदगी

धरा का धरा रह जाता है

सबकुछ यहीं पर

ठहर जाती है जिंदगी

सांसों की डोर थमने से।

प्रियदर्शन कुमार

=====================================[संपादित करें]

काव्य संख्या-193

==============

वो  आए थे घर संवारने

उजाड़ कर निकल गये।

==============

वो  आए थे घर संवारने

उजार  कर निकल गये।

पहले  से  थे मायूस हम

वो और मायूस  कर गये,

वो आए थे  घर संवारने

उजाड़  कर  निकल गये।

बड़ी उम्मीद थी उनसे हमे

उम्मीदों को तोड़ निकल गये,

वो  आए  थे  घर  संवारने

उजाड़  कर  निकल  गये ।

एक आवाज़ थी मेरे पास

वो भी छीनकर निकल गये,

वो  आए  थे  घर  संवारने

उजाड़  कर  निकल  गये ।

भूख गरीबी बेरोजगारी से त्रस्त देश

वो देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांट रहे

वो    आए    थे    घर    संवारने

उजाड़    कर    निकल    गये  ।

खुद-कुशी कर रहे हैं किसान यहां

वो पूंजीपतियों की तिजौरियां भर रहे,

वो    आए    थे    घर    संवारने

उजाड़     कर    निकल    गये  ।

पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते थे मेरे

उनसे भी झगड़कर निकल गये,

वो   आए    थे    घर   संवारने

उजाड़    कर    निकल   गये  ।

सौहार्दपूर्ण ढ़ंग से जी रहे समाज में

साम्प्रदायिकता के बीज बो निकल गये

वो    आए   थे    घर    संवारने

उजाड़   कर    निकल    गये ।

                प्रियदर्शन कुमार


=====================================[संपादित करें]

काव्य संख्या-191

==================

बचपन कितना मनमोहक है

==================

देखो बचपन कितना अच्छा है

कितना खुश यह बच्चा है

न पढ़ाई-लिखाई की चिंता है

न मम्मी-पापा के डांट की

बिल्कुल निर्भीक

न किसी प्रकार की जिम्मेदारी है

न किसी भी चीज की चिंता

न सामाजिक बंधन है

न किसी प्रकार का विरोध

न दुनिया-दारी की चिंता है

न पारिवारिक माया-मोह

हँसता-खेलता बच्चा है

अपने एक मुस्कान से

सबका दिल जीत लेता है

स्वच्छ निर्मल मन

बिल्कुल कोरा कागज

छल-कपट के लिए जगह नहीं

न इसे जाति का भान है

न ही किसी मजहब का ज्ञान

ऊंच-नीच मालूम नहीं उसे

नहीं मालूम है उसे अमीरी-गरीबी

यह तो केवल बच्चा है

जो केवल वात्सल्य का भूखा है

जहां मिलता है प्यार उसे

उसी के पास चला जाता है

कौन है अपना,

और कौन पराया

नहीं है उसे पहचान

परिवार-समाज सबका चहेता है

सबके यहाँ आता-जाता है

सबका स्नेह पाता है

सच में,

बचपन कितना मनमोहक है।

               प्रियदर्शन कुमार