"सती": अवतरणों में अंतर

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'''सती''' [[दक्ष प्रजापति]] की पुत्री और भगवान [[शिव]] की पत्नी थी। इनकी उत्पत्ति तथा अंत की कथा विभिन्न पुराणों में विभिन्न रूपों में उपलब्ध होती है।
पौराणिक कथाओं में सती को [[शिव]] की पूर्व पत्नी कहा जाता है। [[दक्ष प्रजापति]] की कन्या का नाम (दाक्षायनी) दिया जाता है। मगर सती शब्द [[शक्ति]] नाम का अपभ्रंश रूप है। शक्ति का दूसरा नाम ही सती है।


शैव पुराणों में भगवान शिव की प्रधानता के कारण शिव को परम तत्त्व तथा शक्ति (शिवा) को उनकी अनुगामिनी बताया गया है। इसी के समानांतर शाक्त पुराणों में शक्ति की प्रधानता होने के कारण शक्ति (शिवा) को परमशक्ति (परम तत्त्व) तथा भगवान शिव को उनका अनुगामी बताया गया है।
सती भगवान बृह्मा जी की पौत्री है। जिन्होने पूरी सृष्टि की रचना की थी।


श्रीमद्भागवतमहापुराण में अपेक्षाकृत तटस्थ वर्णन है। इसमें दक्ष की [[स्वायम्भूव मनु|स्वायम्भुव मनु]] की पुत्री [[प्रसूति]] के गर्भ से 16 कन्याओं के जन्म की बात कही गयी है।<ref>श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 4-1-47.</ref> देवीपुराण (महाभागवत) में 14 कन्याओं का उल्लेख हुआ है<ref>देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-64.</ref> तथा शिवपुराण में दक्ष की साठ कन्याओं का उल्लेख हुआ है जिनमें से 27 का विवाह चंद्रमा से हुआ था।<ref>शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-14.</ref> इन कन्याओं में एक सती भी थी। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी को भगवान शिव के विवाह की चिंता हुई तो उन्होंने भगवान विष्णु की स्तुति की और विष्णु जी ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी को बताया कि यदि भगवान शिव का विवाह करवाना है तो देवी शिवा की आराधना कीजिए। उन्होंने बताया कि दक्ष से कहिए कि वह भगवती शिवा की तपस्या करें और उन्हें प्रसन्न करके अपनी पुत्री होने का वरदान मांगे। यदि देवी शिवा प्रसन्न हो जाएगी तो सारे काम सफल हो जाएंगे। उनके कथनानुसार ब्रह्मा जी ने दक्ष से भगवती शिवा की तपस्या करने को कहा और प्रजापति दक्ष ने देवी शिवा की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवा ने उन्हें वरदान दिया कि मैं आप की पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। मैं तो सभी जन्मों में भगवान शिव की दासी हूँ; अतः मैं स्वयं भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करूँगी और उनकी पत्नी बनूँगी। साथ ही उन्होंने दक्ष से यह भी कहा कि जब आपका आदर मेरे प्रति कम हो जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी, अपने स्वरूप में लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी। प्रत्येक सर्ग या कल्प के लिए दक्ष को उन्होंने यह वरदान दे दिया।<ref>शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-12.</ref> तदनुसार भगवती शिवा सती के नाम से दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेती है और घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न करती है तथा भगवान शिव से उनका विवाह होता है। इसके बाद की कथा श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित कथा के काफी हद तक अनुरूप ही है।
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प्रयाग में प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवतागण खड़े होकर उन्हें आदर देते हैं परंतु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रह जाते हैं।<ref>शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-26.</ref> लौकिक बुद्धि से भगवान शिव को अपना जामाता अर्थात पुत्र समान मानने के कारण दक्ष उनके खड़े न होकर अपने प्रति आदर प्रकट न करने के कारण अपना अपमान महसूस करता है और इसी कारण उन्होंने भगवान शिव के प्रति अनेक कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यज्ञ भाग से वंचित होने का शाप दे दिया। इसी के बाद दक्ष और भगवान शिव में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया। तत्पश्चात अपनी राजधानी कनखल में दक्ष के द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें उन्होंने न तो भगवान शिव को आमंत्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को। सती ने रोहिणी को चंद्रमा के साथ विमान से जाते देखा और सखी के द्वारा यह पता चलने पर कि वे लोग उन्हीं के पिता दक्ष के विराट यज्ञ में भाग लेने जा रहे हैं, सती का मन भी वहाँ जाने को व्याकुल हो गया। भगवान शिव के समझाने के बावजूद सती की व्याकुलता बनी रही और भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा दे दी।<ref>शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-28.</ref> परंतु वहाँ जाकर भगवान शिव का यज्ञ-भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जतायी और दक्ष के द्वारा अपने (सती के) तथा उनके पति भगवान शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला। शिवगणों के द्वारा उत्पात मचाये जाने पर भृगु ऋषि ने दक्षिणाग्नि में आहुति दी और उससे उत्पन्न ऋभु नामक देवताओं ने शिवगणों को भगा दिया। इस समाचार से अत्यंत कुपित भगवान शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और वीरभद्र ने गण सहित जाकर दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर डाला; शिव के विरोधी देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दंड दिया तथा दक्ष के सिर को काट कर हवन कुंड में जला डाला। तत्पश्चात देवताओं सहित ब्रह्मा जी के द्वारा स्तुति किए जाने से प्रसन्न भगवान शिव ने पुनः यज्ञ में हुई क्षतियों की पूर्ति की तथा दक्ष का सिर जल जाने के कारण बकरे का सिर जुड़वा कर उन्हें भी जीवित कर दिया। फिर उनके अनुग्रह से यज्ञ पूर्ण हुआ।<ref>(क)शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-19 से 30; (ख)श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, स्कन्ध-4, अध्याय-4 से 7.</ref>
एक बार सम्पूर्ण प्रजापतियों ने यज्ञ किया। उस यज्ञ में सभी बड़े-बड़े देवता, ऋषि, महर्षि आदि पधारे। प्रजापति [[दक्ष]] भी वहाँ पर आये। उनके तेज से सम्पूर्ण यज्ञ मण्डप सूर्य के समान जगमगाने लगा। उनके स्वागत के लिये समस्त प्रजापति, ऋषि-महर्षि, देवता आदि उठ कर खड़े हो गये। केवल ब्रह्मा जी और शंकर जी अपने स्थान पर बैठे रहे। [[शंकर]] जी ने उचित व्यवहार ही किया था क्योंकि एक देवता होने के नाते वे एक प्रजापति का खड़े होकर स्वागत नहीं कर सकते थे।


शाक्त मत में शक्ति की सर्वप्रधानता होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तीनों को शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न माना गया है। देवीपुराण (महाभागवत) में वर्णन हुआ है कि पूर्णा प्रकृति जगदंबिका ने ही ब्रहमा, विष्णु और महेश तीनों को उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि कार्यों में नियुक्त किया। उन्होंने ही ब्रहमा को सृजनकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता तथा अपनी इच्छानुसार शिव को संहारकर्ता होने का आदेश दिया।<ref>देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-26,27.</ref> आदेश-पालन के पूर्व इन तीनों ने उन परमा शक्ति पूर्णा प्रकृति को ही अपनी पत्नी के रूप में पाने के लिए तप आरंभ कर दिया। जगदंबिका द्वारा परीक्षण में असफल होने के कारण ब्रह्मा एवं विष्णु को पूर्णा प्रकृति अंश रूप में पत्नी बनकर प्राप्त हुई तथा भगवान शिव की तपस्या से परम प्रसन्न होकर जगदंबिका ने स्वयं जन्म लेकर उनकी पत्नी बनने का आश्वासन दिया।<ref>देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-76.</ref> तदनुसार ब्रह्मा जी के द्वारा प्रेरित किए जाने पर दक्ष ने उसी पूर्णा प्रकृति जगदंबिका की तपस्या की और उनके तप से प्रसन्न होकर जगदंबिका ने उनकी पुत्री होकर जन्म लेने का वरदान दिया तथा यह भी बता दिया कि जब दक्ष का पुण्य क्षीण हो जाएगा तब वह शक्ति जगत को विमोहित करके अपने धाम को लौट जाएगी।<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-4-16से20.</ref>
किन्तु दक्ष प्रजापति शिव जी के श्वसुर थे, उन्हें शिव जी का खड़े होकर स्वागत न करना अच्छा नहीं लगा। शंकर जी का ऐसा व्यवहार देख कर दक्ष प्रजापति को बड़ा क्रोध आया और वे बोले, "हे देवताओं तथा ऋषि महर्षियों! मेरी बात सुनो! इस शंकर ने लोक मर्यादा तथा शिष्टाचार का उल्लंघन किया है। यह निर्लज्ज शंकर अहंकारवश सब लोकपालों की कीर्ति को मिट्टी में मिला रहा है। इसने घमण्ड में आकर सत्पुरुषों के आचरण को भी धूल में मिला दिया है। मैंने भोला शंकर सत्पुरुष समझ कर अपनी सुन्दर कन्या सती का विवाह इससे कर दिया। इस नाते यह मेरे पुत्र के समान है। इसको उठ कर मेरा सम्मान करना चाहिये था। मुझे प्रणाम करना चाहिये था। किन्तु इसने ऐसा नहीं किया। अपने पिता ब्रह्मा जी के कहने पर मेरे इच्छा न होते हुये भी मैंने इस अपवित्र, भ्रष्ट कर्म करने वाले, घमण्डी, धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, भूत-प्रेत के साथी और नंग-धड़ंग पागल को अपनी कन्या दे दी। यह शरीर में भस्म लगाता है, कंठ में नर -मुण्डों की माला पहनता है। यह तो नाम मात्र का शिव है। यह अमंगल रूप है। यह बड़ा मतवाला और तमोगुणी है।


उक्त वरदान के अनुरूप पूर्णा प्रकृति ने सती के नाम से दक्ष की पुत्री रूप में जन्म ग्रहण किया और उसके विवाह योग्य होने पर दक्ष ने उसके विवाह का विचार किया। दक्ष अपनी लौकिक बुद्धि से भगवान शिव के प्रभाव को न समझने के कारण उनके वेश को अमर्यादित मानते थे और उन्हें किसी प्रकार सती के योग्य वर नहीं मानते थे। अतः उन्होंने विचार कर भगवान शिव से शून्य स्वयंवर सभा का आयोजन किया और सती से आग्रह किया कि वे अपनी पसंद के अनुसार वर चुन ले। भगवान शिव को उपस्थित न देख कर सती ने 'शिवाय नमः' कह कर वरमाला पृथ्वी पर डाल दी तथा महेश्वर शिव स्वयं उपस्थित होकर उस वरमाला को ग्रहण कर सती को अपनी पत्नी बनाकर कैलाश लौट गये। दक्ष बहुत दुखी हुए। अपनी इच्छा के विरुद्ध सती के द्वारा शिव को पति चुन लिए जाने से दक्ष का मन उन दोनों के प्रति क्षोभ से भर गया।<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-5-1.</ref> इसीलिए बाद में अपनी राजधानी में आयोजित विराट यज्ञ में दक्ष ने शिव एवं सती को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का हठ किया और शिव जी के द्वारा बार-बार रोकने पर अत्यंत कुपित होकर उन्हें अपना भयानक रूप दिखाया। इससे भयाक्रांत होकर शिवजी के भागने का वर्णन हुआ है और उन्हें रोकने के लिए जगदंबिका ने 10 रूप (दश महाविद्या का रूप) धारण किया। फिर शिवजी के पूछने पर उन्होंने अपने दशों रूपों का परिचय दिया।<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-8-62,63.</ref> फिर शिव जी द्वारा क्षमा याचना करने के पश्चात पूर्णा प्रकृति मुस्कुरा कर अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने को उत्सुक हुई तब शिव जी ने अपने गमों को कह कर बहुसंख्यक सिंहों से जुते रथ मँगवाकर उस पर आसीन करवाकर भगवती को ससम्मान दक्ष के घर भेजा।
सभी देवताओं, ऋषि-महर्षियों आदि के समक्ष दक्ष प्रजापति ने शंकर जी का अपमान किया और शंकर जी चुपचाप बैठे हुये निरुत्तर भाव से सुनते रहे। शंकर जी के इस प्रकार चुप रहने से दक्ष प्रजापति का क्रोध और भी बढ़ गया और वे [[महादेव]] जी को शाप देने के लिये उद्यत हो गये। वहाँ पर उपस्थित सभी देवताओं तथा ऋषि-महर्षियों ने दक्ष प्रजापति को शाप देने से मना किया किन्तु क्रोध और अहंकार के वशीभूत दक्ष प्रजापति ने किसी की भी न सुनी और शाप दे दिया कि इस अशिव को इन्द्र, उपेन्द्र आदि बड़े-बड़े देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले।


शेष कथा कतिपय अंतरों के साथ पूर्ववर्णित कथा के प्रायः अनुरूप ही है, परंतु इस कथा में कुपित सती छायासती को लीला का आदेश देकर अंतर्धान हो जाती है और उस छायासती के भस्म हो जाने पर बात खत्म नहीं होती बल्कि शिव के प्रसन्न होकर यज्ञ पूर्णता का संकेत दे देने के बाद छायासती की लाश सुरक्षित तथा देदीप्यमान रूप में दक्ष की यज्ञशाला में ही पुनः मिल जाती है<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-46.</ref> और फिर देवी शक्ति द्वारा पूर्व में ही भविष्यवाणी रूप में बता दिए जाने के बावजूद लौकिक पुरुष की तरह शिवजी विलाप करते हैं तथा सती की लाश सिर पर धारण कर विक्षिप्त की तरह भटकते हैं।<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-60.</ref> इससे त्रस्त देवताओं को त्राण दिलाने तथा परिस्थिति को सँभालने हेतु भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती की लाश को क्रमशः खंड-खंड कर काटते जाते हैं। इस प्रकार सती के विभिन्न अंग तथा आभूषणों के विभिन्न स्थानों पर गिरने से वे स्थान शक्तिपीठ की महिमा से युक्त हो गये।<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-79,80.</ref> इस प्रकार 51 शक्तिपीठों का निर्माण हो गया। फिर सती की लाश न रह जाने पर भगवान् शिव ने जब व्याकुलतापूर्वक देवताओं से प्रश्न किया तो देवताओं ने उन्हें सारी बात बतायी। इस पर निःश्वास छोड़ते हुए भगवान् शिव ने भगवान विष्णु को त्रेता युग में सूर्यवंश में अवतार लेकर इसी प्रकार पत्नी से वियुक्त होने का शाप दे दिया और फिर स्वयं 51 शक्तिपीठों में सर्वप्रधान 'कामरूप' में जाकर भगवती की आराधना की और उस पूर्णा प्रकृति के द्वारा अगली बार हिमालय के घर में पार्वती के रूप में पूर्णावतार लेकर पुनः उनकी पत्नी बनने का वर प्राप्त हुआ।<ref>देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-12-21.</ref>
जब महादेव जी के गण नन्दीश्वर को दक्ष के शाप के विषय में पता चला तो वे बोले, "जो नीच अभिमानवश भगवान शंकर से बैर करता है उस दक्ष को मैं शाप देता हूँ कि वह तत्वज्ञान से हीन हो जावे। यह दक्ष यज्ञादि अनुष्ठान करता रहता है किन्तु फिर भी पशु के समान कार्य करता है इसलिये यह स्त्री लम्पट हो जावे और इसका मुख बकरे के समान हो जावे। जो इसके अनुयायी हों और शिव जी से बैर रखते हों वे जन्म मरण के चक्कर में पड़ते रहें, भक्षाभक्ष अन्न ग्रहण करें और संसार में भीख माँगते फिरें।"


इस प्रकार यही सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री बनकर पुनः भगवान शिव को पत्नी रूप में प्राप्त हो गयी।
नन्दीश्वर के इस शाप को सुन कर दक्ष प्रजापति के हितचिन्तक [[भृगु]] ऋषि ने शाप दिया, "शिव भक्त शास्त्रों के विरुद्ध कर्म करने वाले तथा पाखण्डी हों और उन्हें सुरा अतिप्रिय होवे।"


== बाहरी कड़ियाँ ==
इन समस्त बातों से खिन्न होकर भगवान शंकर अपने अनुचरों के साथ वहाँ से उठ कर कैलाश पर्वत चले गये।
# [https://spiritualworld.co.in/religious-songs-and-vrat-kathayen/hindu-aarti-collection/rani-sati-ji-ki-aatri-in-hindi-and-english रानी सती जी की आरती]
दक्ष प्रजापति एवं शंकर जी में परस्पर बैर बढ़ता गया। कुछ काल पश्चात् ब्रह्मा जी ने दक्ष को सभी प्रजापतियों का स्वामी बना दिया। जिससे दक्ष का गर्व और भी बढ़ गया। उसने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। दक्ष ने उस यज्ञ में सभी देवर्षि, ब्रह्मर्षि, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों, देवताओं आदि को निमन्त्रित किया। केवल शंकर जी को बुलावा नहीं भेजा गया। सभी देवता पितर आदि ने अपनी-अपनी गृहणियों के सहित अपने-अपने विमानों में बैठ कर यज्ञ में प्रस्थान किया। आकाश में विमानों को जाते हुये देखकर दक्ष प्रजापति की पुत्री सती ने महादेव जी से कहा, "हे देवाधिदेव! मैंने सुना है कि मेरे पिता ने एक बड़े भारी यज्ञ का आयोजन किया है। मुझे प्रतीत होता है कि ये देवता, यज्ञ, गन्धर्व आदि अपनी अपनी पत्नियों सहित सज धज कर तथा विमानों में बैठ कर वहीं के लिये प्रस्थान कर रहे हैं। वहाँ पर मेरी बहनें भी अपने अपने पतियों के साथ अवश्य पधारी होंगी। मेरी इच्छा है कि मैं भी आपके साथ यज्ञ में जा कर अपने पिता के यज्ञ की शोभा बढ़ाऊँ।"


==सन्दर्भ==
महादेव जी बोले, "हे प्रिये! तुमने बहुत अच्छी बात कही है। तुम्हारे पिता ने तुम्हारी सभी बहनों को निमन्त्रित किया है किन्तु बैर भाव के कारण मेरे साथ तुम्हें भी न्यौता नहीं दिया। ऐसी स्थिति में वहाँ जाना उचित नहीं है।" इस पर सती जी बोलीं, "हे प्राणनाथ! पति, गुरु, माता-पिता तथा इष्ट मित्रों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जाया जा सकता है।" सती जी के ऐसा कहने पर शिव जी ने हँस कर कहा, "हे प्रिये! तुम्हारा कथन सत्य है कि पति, गुरु, माता-पिता तथा इष्ट मित्रों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जाया जा सकता है। किन्तु यह तभी हो सकता है जब उनसे कोई द्वेष भाव न हो। तुम्हारे पिता को अति अभिमान है इसलिये वहाँ जाने पर वे तुम्हारा निरादर कर सकते हैं।" सती के मन में अपने पिता के यहाँ जाने की प्रबल इच्छा थी इसलिये उन्हें शिव जी की बातों से वे अति उदास हो गईं। सती की अपने पिता दक्ष प्रजापति के यहाँ जाने की प्रबल इच्छा को देख कर शंकर जी ने विचार किया कि यदि सती को न जाने दिया जायेगा तो यह प्राण त्याग देंगी और जाने पर भी प्राण त्यागने की सम्भावना है। अतः शंकर जी ने इसे काल की गति मानकर और होनहार को प्रबल समझकर अपने हजारों सेवक तथा वाहनों समेत सती को दक्ष के यहाँ भेज दिया।

कुछ ही काल में सती अपने पिता के यज्ञस्थल में पहुँच गईं। वहाँ पर वेदज्ञ ब्राह्मण उच्च स्वरों में वेद की ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। यज्ञस्थल की शोभा अद्वितीय थी। सती को देख कर उनकी माता और बहनें प्रसन्न हुईं किन्तु दक्ष प्रजापति ने सती को देखते ही कुदृष्टि करके मुँह फेर लिया। सती अपने इस अपमान को सह न सकीं। जब सती ने यज्ञ मण्डप में जाकर यह देखा कि उनके पति महादेव जी को यज्ञ में कोई भाग नहीं दिया गया है तो उन्हें अति क्रोध आया। दक्ष के इस अभिमान तथा शिव जी के के साथ किये गये द्वेष भाव को वे और अधिक सह न सकीं। वे यज्ञ में अपने पिता के पास आकर बोलीं, "हे पिता! इस संसार में भगवान शंकर से बढ़कर कोई देवता नहीं है। इसीलिये उन्हें देवाधिदेव महादेव कहते हैं। वे मेरे पति हैं और आपने समस्त देवताओं, ऋषि-महर्षियों आदि के समक्ष यज्ञ में उनका भाग न देकर उनकी निन्दा की है। अपने स्वामी की निन्दा देख-सुन कर मैं कदापि जीवित नहीं रह सकती। अब मैं आपसे उत्पन्न इस शरीर को त्याग दूँगी क्योंकि आप के रक्त से बना यह शरीर अपवित्र है।"

इतना कह कर सती मौन हो उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ गईं। आचमन से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करके पीत वस्त्र से शरीर को ढँक लिया। नेत्र बन्द करके [[प्राणायाम]] द्वारा प्राण और अपान वायु को एक करके [[नाभिचक्र]] में स्थापित किया। तत्पश्चात् उदान वायु को नाभिचक्र से ऊपर ले जाकर शनैः शनैः [[हृदयचक्र]] में बुद्धि के साथ स्थित किया। फिर उदान वायु को ऊपर उठाकर कण्ठ मार्ग से भृकुटियों के मध्य स्थापित कर लिया। इसके बाद भगवान शंकर के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योग मार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया। सती के इस प्रकार देह त्याग पर सम्पूर्ण उपस्थित देवता, ऋषि-महर्षि आदि सभी ने दक्ष को बुरा भला कहा। शंकर जी का द्रोही होने के कारण उसका अपयश होने लगा।

सती के साथ आये हुये शिव जी के गण यज्ञ का विध्वंश करने लगे। यज्ञ का विध्वंश देख कर भृगु ऋषि ने उस यज्ञ की रक्षा की।
जब भगवान शंकर जी को नारद जी से सती के भस्म होने तथा उनके सेवकों को दक्ष के यज्ञ से भगा देने की सूचना मिली तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अति क्रोधित होकर अपनी एक जटा को, जो अग्नि तथा विद्युत के समान तेजोमय थी, नोंच डाला और उसे पृथ्वी पर पटका। उससे तत्क्षण एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसकी सहस्त्र भुजाएँ थीं, श्याम रंग था, दाढ़ें विकराल एवं तीक्ष्ण थीं तथा अग्नि के समान जलते तीन नेत्र थे। उसकी लाल लाल जटायें अग्नि के समान थीं, कण्ठ में मुण्ड माला और हाथों में शस्त्रास्त्र थे। उसने भगवान भूतनाथ से पूछा, "हे देवाधिदेव! मुझे क्या आज्ञा है?" भगवान शंकर ने कहा, "हे वीरभद्र! तू मेरे अंश से प्रकट हुआ है इसलिये मेरे सम्पूर्ण पार्षदों का अधिपति होकर शीघ्र ही दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जा और उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दे।

[[वीरभद्र]] तुरन्त महादेव जी की परिक्रमा करके दक्ष प्रजापति के यज्ञ की ओर हाथ में त्रिशूल ले कर दौड़े। उनके वेग से पृथ्वी काँपने लगी और उनके सिंहनाद से सारा आकाश गूँज उठा। वे साक्षात् संहारकारी रुद्र थे। उनके पीछे बहुत से सेवक अनेक प्रकार अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़ पड़े। कुछ ही क्षणों में वीरभद्र ने अपने अनुचरों सहित दक्ष प्रजापति के यज्ञ मण्डप को चारों ओर से घेर लिया। उनकी भयंकरता से दक्ष प्रजापति भी भयभीत हो गये। भगवान [[रुद्र]] के सेवकों ने आते ही यज्ञ मण्डप को उखाड़ना आरम्भ कर दिया। किसी ने खम्भे उखाड़े, किसी ने कलश तोड़े, किसी ने यज्ञ की अग्नि में रुधिर की वर्षा कर दी, किसी ने यज्ञशाला नष्ट कर दी तो किसी ने सभा मण्डप और अतिथि मण्डप का नाश कर डाला। वीरभद्र और उनके अनुचरों ने भयंकर विनाश लीला किया। वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को बाँध लिया। वहाँ आये हुये समस्त ऋषि-महर्षि, देवतागण आदि भाग निकले किन्तु [[भृगु]] ऋषि हवन करते रहे। इस पर वीरभद्र ने भृगु ऋषि के नेत्र निकाल लिये और दक्ष का सिर काट कर यज्ञ की अग्नि में डाल दिया। दक्ष प्रजापति के यज्ञ का नाश हो गया।

इस घटना से भयभीत होकर सारे देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जाकर महादेव जी के क्रोध को शान्त करने का अनुरोध किया। उनके इस अनुरोध पर ब्रह्मा जी समस्त देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर गये और शिव जी की स्तुति करके कहा, "हे शम्भो! आप यज्ञ-पुरुष हैं इसलिये आपको यज्ञ का भाग पाने का पूर्ण अधिकार है, किन्तु इस दुर्बुद्धि दक्ष ने आपको यज्ञ-भाग नहीं दिया था इसी कारण से उसके यज्ञ का नाश हुआ। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस मूर्ख दक्ष को क्षमा करके इसका कटा हुआ सिर जोड़ दीजिये तथा इस अपूर्ण यज्ञ को फिर से पूर्ण करने अनुमति दीजिये। भृगु ऋषि को भी क्षमादान करके उनके नेत्र उन्हें पुनः प्रदान करने की कृपा कीजिये।"

[[ब्रह्मा]] जी के इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना करने पर महादेव जी ने शान्त होकर कहा, "हे जगत् के कर्ता ब्रह्मा जी! मैं न तो दक्ष जैसे दुर्बुद्धि और अज्ञानी पुरुषों के दोषों की ओर कभी ध्यान नहीं देता हूँ और न कभी उनकी चर्चा ही करता हूँ। केवल मैंने उसे उपदेश के रूप में यह नाम मात्र का दण्ड दे दिया है जिससे उसका अहंकार नष्ट हो जावे। शापवश उसे उसका सिर पुनः प्राप्त नहीं हो सकता अतः उसके धड़ को बकरे के सिर के साथ जोड़ दिया जावे। भृगु ऋषि को मित्र देवता के नेत्र मैंने प्रदान किया। दक्ष के इस यज्ञ को पूर्ण करने की अनुमति भी मैं प्रदान करता हूँ।"

शिव जी के ऐसे वचन सुन कर ब्रह्मा जी सहित समस्त देवता प्रसन्न हुये और उन्हें दक्ष के यज्ञ के लिये निमन्त्रित किया। इस प्रकार शिव जी की उपस्थिति यज्ञ पूर्ण हुआ।

== स्रोत ==
[http://sukhsagarse.blogspot.com सुखसागर] के सौजन्य से


[[श्रेणी:धर्म]]
[[श्रेणी:धर्म]]
पंक्ति 42: पंक्ति 24:
[[श्रेणी:धर्म ग्रंथ]]
[[श्रेणी:धर्म ग्रंथ]]
[[श्रेणी:पौराणिक कथाएँ]]
[[श्रेणी:पौराणिक कथाएँ]]


== बाहरी कड़ियाँ ==
# [https://spiritualworld.co.in/religious-songs-and-vrat-kathayen/hindu-aarti-collection/rani-sati-ji-ki-aatri-in-hindi-and-english रानी सती जी की आरती]

[[श्रेणी:हिन्दू देवियाँ]]
[[श्रेणी:हिन्दू देवियाँ]]

13:19, 15 नवम्बर 2017 का अवतरण

सती दक्ष प्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी थी। इनकी उत्पत्ति तथा अंत की कथा विभिन्न पुराणों में विभिन्न रूपों में उपलब्ध होती है।

शैव पुराणों में भगवान शिव की प्रधानता के कारण शिव को परम तत्त्व तथा शक्ति (शिवा) को उनकी अनुगामिनी बताया गया है। इसी के समानांतर शाक्त पुराणों में शक्ति की प्रधानता होने के कारण शक्ति (शिवा) को परमशक्ति (परम तत्त्व) तथा भगवान शिव को उनका अनुगामी बताया गया है।

श्रीमद्भागवतमहापुराण में अपेक्षाकृत तटस्थ वर्णन है। इसमें दक्ष की स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति के गर्भ से 16 कन्याओं के जन्म की बात कही गयी है।[1] देवीपुराण (महाभागवत) में 14 कन्याओं का उल्लेख हुआ है[2] तथा शिवपुराण में दक्ष की साठ कन्याओं का उल्लेख हुआ है जिनमें से 27 का विवाह चंद्रमा से हुआ था।[3] इन कन्याओं में एक सती भी थी। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी को भगवान शिव के विवाह की चिंता हुई तो उन्होंने भगवान विष्णु की स्तुति की और विष्णु जी ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी को बताया कि यदि भगवान शिव का विवाह करवाना है तो देवी शिवा की आराधना कीजिए। उन्होंने बताया कि दक्ष से कहिए कि वह भगवती शिवा की तपस्या करें और उन्हें प्रसन्न करके अपनी पुत्री होने का वरदान मांगे। यदि देवी शिवा प्रसन्न हो जाएगी तो सारे काम सफल हो जाएंगे। उनके कथनानुसार ब्रह्मा जी ने दक्ष से भगवती शिवा की तपस्या करने को कहा और प्रजापति दक्ष ने देवी शिवा की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवा ने उन्हें वरदान दिया कि मैं आप की पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। मैं तो सभी जन्मों में भगवान शिव की दासी हूँ; अतः मैं स्वयं भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करूँगी और उनकी पत्नी बनूँगी। साथ ही उन्होंने दक्ष से यह भी कहा कि जब आपका आदर मेरे प्रति कम हो जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी, अपने स्वरूप में लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी। प्रत्येक सर्ग या कल्प के लिए दक्ष को उन्होंने यह वरदान दे दिया।[4] तदनुसार भगवती शिवा सती के नाम से दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेती है और घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न करती है तथा भगवान शिव से उनका विवाह होता है। इसके बाद की कथा श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित कथा के काफी हद तक अनुरूप ही है।

प्रयाग में प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवतागण खड़े होकर उन्हें आदर देते हैं परंतु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रह जाते हैं।[5] लौकिक बुद्धि से भगवान शिव को अपना जामाता अर्थात पुत्र समान मानने के कारण दक्ष उनके खड़े न होकर अपने प्रति आदर प्रकट न करने के कारण अपना अपमान महसूस करता है और इसी कारण उन्होंने भगवान शिव के प्रति अनेक कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यज्ञ भाग से वंचित होने का शाप दे दिया। इसी के बाद दक्ष और भगवान शिव में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया। तत्पश्चात अपनी राजधानी कनखल में दक्ष के द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें उन्होंने न तो भगवान शिव को आमंत्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को। सती ने रोहिणी को चंद्रमा के साथ विमान से जाते देखा और सखी के द्वारा यह पता चलने पर कि वे लोग उन्हीं के पिता दक्ष के विराट यज्ञ में भाग लेने जा रहे हैं, सती का मन भी वहाँ जाने को व्याकुल हो गया। भगवान शिव के समझाने के बावजूद सती की व्याकुलता बनी रही और भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा दे दी।[6] परंतु वहाँ जाकर भगवान शिव का यज्ञ-भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जतायी और दक्ष के द्वारा अपने (सती के) तथा उनके पति भगवान शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला। शिवगणों के द्वारा उत्पात मचाये जाने पर भृगु ऋषि ने दक्षिणाग्नि में आहुति दी और उससे उत्पन्न ऋभु नामक देवताओं ने शिवगणों को भगा दिया। इस समाचार से अत्यंत कुपित भगवान शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और वीरभद्र ने गण सहित जाकर दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर डाला; शिव के विरोधी देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दंड दिया तथा दक्ष के सिर को काट कर हवन कुंड में जला डाला। तत्पश्चात देवताओं सहित ब्रह्मा जी के द्वारा स्तुति किए जाने से प्रसन्न भगवान शिव ने पुनः यज्ञ में हुई क्षतियों की पूर्ति की तथा दक्ष का सिर जल जाने के कारण बकरे का सिर जुड़वा कर उन्हें भी जीवित कर दिया। फिर उनके अनुग्रह से यज्ञ पूर्ण हुआ।[7]

शाक्त मत में शक्ति की सर्वप्रधानता होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तीनों को शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न माना गया है। देवीपुराण (महाभागवत) में वर्णन हुआ है कि पूर्णा प्रकृति जगदंबिका ने ही ब्रहमा, विष्णु और महेश तीनों को उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि कार्यों में नियुक्त किया। उन्होंने ही ब्रहमा को सृजनकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता तथा अपनी इच्छानुसार शिव को संहारकर्ता होने का आदेश दिया।[8] आदेश-पालन के पूर्व इन तीनों ने उन परमा शक्ति पूर्णा प्रकृति को ही अपनी पत्नी के रूप में पाने के लिए तप आरंभ कर दिया। जगदंबिका द्वारा परीक्षण में असफल होने के कारण ब्रह्मा एवं विष्णु को पूर्णा प्रकृति अंश रूप में पत्नी बनकर प्राप्त हुई तथा भगवान शिव की तपस्या से परम प्रसन्न होकर जगदंबिका ने स्वयं जन्म लेकर उनकी पत्नी बनने का आश्वासन दिया।[9] तदनुसार ब्रह्मा जी के द्वारा प्रेरित किए जाने पर दक्ष ने उसी पूर्णा प्रकृति जगदंबिका की तपस्या की और उनके तप से प्रसन्न होकर जगदंबिका ने उनकी पुत्री होकर जन्म लेने का वरदान दिया तथा यह भी बता दिया कि जब दक्ष का पुण्य क्षीण हो जाएगा तब वह शक्ति जगत को विमोहित करके अपने धाम को लौट जाएगी।[10]

उक्त वरदान के अनुरूप पूर्णा प्रकृति ने सती के नाम से दक्ष की पुत्री रूप में जन्म ग्रहण किया और उसके विवाह योग्य होने पर दक्ष ने उसके विवाह का विचार किया। दक्ष अपनी लौकिक बुद्धि से भगवान शिव के प्रभाव को न समझने के कारण उनके वेश को अमर्यादित मानते थे और उन्हें किसी प्रकार सती के योग्य वर नहीं मानते थे। अतः उन्होंने विचार कर भगवान शिव से शून्य स्वयंवर सभा का आयोजन किया और सती से आग्रह किया कि वे अपनी पसंद के अनुसार वर चुन ले। भगवान शिव को उपस्थित न देख कर सती ने 'शिवाय नमः' कह कर वरमाला पृथ्वी पर डाल दी तथा महेश्वर शिव स्वयं उपस्थित होकर उस वरमाला को ग्रहण कर सती को अपनी पत्नी बनाकर कैलाश लौट गये। दक्ष बहुत दुखी हुए। अपनी इच्छा के विरुद्ध सती के द्वारा शिव को पति चुन लिए जाने से दक्ष का मन उन दोनों के प्रति क्षोभ से भर गया।[11] इसीलिए बाद में अपनी राजधानी में आयोजित विराट यज्ञ में दक्ष ने शिव एवं सती को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का हठ किया और शिव जी के द्वारा बार-बार रोकने पर अत्यंत कुपित होकर उन्हें अपना भयानक रूप दिखाया। इससे भयाक्रांत होकर शिवजी के भागने का वर्णन हुआ है और उन्हें रोकने के लिए जगदंबिका ने 10 रूप (दश महाविद्या का रूप) धारण किया। फिर शिवजी के पूछने पर उन्होंने अपने दशों रूपों का परिचय दिया।[12] फिर शिव जी द्वारा क्षमा याचना करने के पश्चात पूर्णा प्रकृति मुस्कुरा कर अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने को उत्सुक हुई तब शिव जी ने अपने गमों को कह कर बहुसंख्यक सिंहों से जुते रथ मँगवाकर उस पर आसीन करवाकर भगवती को ससम्मान दक्ष के घर भेजा।

शेष कथा कतिपय अंतरों के साथ पूर्ववर्णित कथा के प्रायः अनुरूप ही है, परंतु इस कथा में कुपित सती छायासती को लीला का आदेश देकर अंतर्धान हो जाती है और उस छायासती के भस्म हो जाने पर बात खत्म नहीं होती बल्कि शिव के प्रसन्न होकर यज्ञ पूर्णता का संकेत दे देने के बाद छायासती की लाश सुरक्षित तथा देदीप्यमान रूप में दक्ष की यज्ञशाला में ही पुनः मिल जाती है[13] और फिर देवी शक्ति द्वारा पूर्व में ही भविष्यवाणी रूप में बता दिए जाने के बावजूद लौकिक पुरुष की तरह शिवजी विलाप करते हैं तथा सती की लाश सिर पर धारण कर विक्षिप्त की तरह भटकते हैं।[14] इससे त्रस्त देवताओं को त्राण दिलाने तथा परिस्थिति को सँभालने हेतु भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती की लाश को क्रमशः खंड-खंड कर काटते जाते हैं। इस प्रकार सती के विभिन्न अंग तथा आभूषणों के विभिन्न स्थानों पर गिरने से वे स्थान शक्तिपीठ की महिमा से युक्त हो गये।[15] इस प्रकार 51 शक्तिपीठों का निर्माण हो गया। फिर सती की लाश न रह जाने पर भगवान् शिव ने जब व्याकुलतापूर्वक देवताओं से प्रश्न किया तो देवताओं ने उन्हें सारी बात बतायी। इस पर निःश्वास छोड़ते हुए भगवान् शिव ने भगवान विष्णु को त्रेता युग में सूर्यवंश में अवतार लेकर इसी प्रकार पत्नी से वियुक्त होने का शाप दे दिया और फिर स्वयं 51 शक्तिपीठों में सर्वप्रधान 'कामरूप' में जाकर भगवती की आराधना की और उस पूर्णा प्रकृति के द्वारा अगली बार हिमालय के घर में पार्वती के रूप में पूर्णावतार लेकर पुनः उनकी पत्नी बनने का वर प्राप्त हुआ।[16]

इस प्रकार यही सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री बनकर पुनः भगवान शिव को पत्नी रूप में प्राप्त हो गयी।

बाहरी कड़ियाँ

  1. रानी सती जी की आरती

सन्दर्भ

  1. श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 4-1-47.
  2. देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-64.
  3. शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-14.
  4. शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-12.
  5. शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-26.
  6. शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-28.
  7. (क)शिवपुराण, रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खंड, अध्याय-19 से 30; (ख)श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, स्कन्ध-4, अध्याय-4 से 7.
  8. देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-26,27.
  9. देवीपुराण [महाभागवत]-शक्तिपीठांक (सटीक), गीताप्रेस गोरखपुर, 3-76.
  10. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-4-16से20.
  11. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-5-1.
  12. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-8-62,63.
  13. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-46.
  14. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-60.
  15. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-11-79,80.
  16. देवीपुराण (महाभागवत), पूर्ववत-12-21.