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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 05:37, 9 जनवरी 2023 (UTC)उत्तर दें

== राम चरित मानस में वर्णित महामारी (मानस रोग) कारण एवं निवारण ==बोल्ड

राम चरित मानस में वर्णित महामारी (मानस रोग) कारण एवं निवारण

डॉ ० इन्दुशेखर उपाध्याय

पूर्व प्राचार्य एवं अध्यक्ष, भूगोल विभाग

सन्त तुलसीदास पी0जी0 कालेज

कादीपुर, सुलतानपुर(उ0प्र0)


     अति प्राचीन काल में ऋषि-जीवन बिताने वाले भारतीय ’यायावर‘ स्थिति में रहा करते थे, अर्थात किसी एक स्थान पर स्थिर ना होकर पर्यटक की भांति यत्र- तत्र प्रवास करते थे। उनकी आवश्यकताएं सीमित थीं। अधिक सामग्री संग्रह करने की न अपेक्षा थी और न हीं सुविधा। इस प्रकार से वे संतुष्ट और शांत मन रहा करते थे। कालांतर में यायावर स्थित को त्याग कर वे समूह बनाकर एक स्थान पर रहने लगे। धीरे धीरे उनमें शालीनता पूर्वक रहने की इच्छा जागृत हुई इसलिए उन्होंने ग्राम और नगर बसाए। परिणातः उनमें ग्राम्य में दोष उत्पन्न हो गए। परिश्रम त्याग कर आलसी हो गए और संग्रहवृद्धि से उनमें मानसिक दोष उत्पन्न होने लगे। जब से हमारा नागरिक जीवन यूरोप की भांति भौतिकतता प्रधान होता गया तब से हमारे यहां मानसिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। निश्चय ही वर्तमान समय में भौतिक विज्ञान की एकदम उपेक्षा नहीं की जा सकती। संसार की प्रगति से अपने को बिल्कुल ही अछूता बनाकर तो कोई रह भी नहीं सकता तथापि हमें अंधानुकरण से बचना चाहिए, और पाश्चात्य सभ्यता की केवल उन्हीं बातों को ग्रहण करना चाहिए, जो हमारे देश की स्थिति, जलवायु एवं परंपरा तथा सामाजिक जीवन से मेल खाती हो; जिससे कि हम मानसिक व्याधियों से बच सकें। मानसिक अस्वस्थता का मूल कारण है सुख वासनावश अंतरात्मा के विरुद्ध आचरण करना। मन, वचन और कर्म में भी विलगता एवं विपरीत अवस्था होती है, तब मनुष्य भीतर से अशांत और दुखी रहने लगता है। अंतरात्मा के प्रतिकूल वाह्य परिस्थितियां के कारण मनुष्य सोचता कुछ और है, कहता कुछ और है, और करता कुछ और है। अन्तरात्मा प्रबल शक्ति संपन्न है। उसके सशक्त प्रतिशोध के कारण मनुष्य के भीतर अंतर्द्वंद चलता है। उन सभी अनैतिक कार्यों के लिए दुखी रहना पड़ता है, जिन्हे वह आत्मा की इच्छाओं के प्रतिकूल करता है। यह आंतरिक अशांति और असंतोष ही मानसिक अस्वस्थता का मूल कारण है। अत्यधिक भौतिक वादी और तृष्णालु तथा ईर्ष्यालु व्यक्तियों को सदा अंतरात्मा के विपरीत कार्य करना पड़ता है। इसलिए वे भीतर से अहर्निश दुखी रहते हैं, उनकी आत्मिक प्रसन्नता का लोप हो जाता है जिससे उनमें स्फूर्ति नहीं रहती और वे थकित, म्लान, आशान्त और पराजित से रहते हैं।

सुरश्रुति निदंक जे अभिमानी।

रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।

सब कै निंदा जे जड़ करहीं।

ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।

      मेरा व्यक्तिगत मानना है कि संदूशित अहार विहार तथा प्रदूषित वातावरण के कारण मनुष्य पहले भवरोग तत्पश्चात मनोरोग तदुपरांत शारीरिक रोग और अंततोगत्वा मृत्यु का ग्रास बन जाता है। प्रदूषित वातावरण पारिवारिक सामाजिक प्राकृतिक एवं व्यक्तिक कैसा भी क्यों ना हो। इसलिए कहा है कि स्वस्थ तन में स्वस्थ मन और यह तभी संभव है जब आहार-विहार स्वच्छ हो। मन एक है। न्याय सूत्र के अनुसार अपनी एकात्मकता के कारण ही वह एक ही ज्ञान ग्रहण कर पाता है। आयुर्वेद के आचार्य चरक और सुश्रुत हृदय को चेतना का स्थान कह कर उसी को मन का स्थान मानते हैं।

   जैसे गोस्वामी जी का स्पष्ट मत है कि मानसिक रोगों से सभी ग्रस्त हैं। मनोरोग के दो कारण हैं- वंश परंपरा एवं स्वयं से की गई त्रुटियां। पिता का कई रोग प्रायः पुत्र में पाया गया देखा गया है स्वयं की गई त्रुटियां भी मानस रोगों का कारण बनती है। पारिवारिक अशांति के कारण भी लोग प्रायः मानस रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। अतः महाकवि ने मस्तिष्क से उन प्रकृतिजन्य भावों को मानसिक रोगों के रूप में वर्णित किया है जो मात्रा में अधिक हो जाने पर उग्र लोगों की श्रेणी में पहुंच जाते हैं। यह सिद्धांत पाश्चात्य मानसिक- चिकित्सा- विज्ञान एवं आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र दोनों के दृष्टिकोण से उचित है। तुलसीदास जी ने इन मानसिक रोगों को सभी मनुष्य में होने वाला कहा-

सुनहु तात अब मानस रोगा।

जेंहि ते दुख पावहिं सब लोगा।।1

  सामान्य मनुष्य में ही नहीं अपितु आदर्श चरित्र के संत और मुनियों में भी इन लोगों का होना बताया गया है, किंतु उन्हें विरले ही पहचान पाते हैं।

यहि विधि सकल जीव जग जोगी।

शोक हरष भय प्रीति बियोगी।।2

  इस प्रकार जब सभी मनुष्य में यह रोग-दोष होते हैं तो एक प्रकार से यह प्रकृति-प्रदत्त हुए। आयुर्वेद के विद्वान भी इस कारणवश इन मानसिक दोष के भाव को सभी मनुष्य में जन्म से ही प्राप्त होने वाला मानते हैं। अतः यह रोग प्रकृति प्रदत्त और जन्मजात हैं। आयुर्वेदिक ज्ञान के संबंध में गोस्वामी तुलसीदास जी का अलग से कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। यह अवश्य है कि उत्तरकांड में पक्षीराज गरुड़ के पूछने पर काग भूसुन्डि द्वारा कुछ मानस रोगों की चर्चा की गई है। गरुण जी के विभिन्न प्रश्नों में से एक प्रश्न यह भी था कि

मानस रोग कहहुं समुझाई।

तुम्ह सर्वज्ञ कृपा अधिकाई।।3

     ऐसा प्रश्न करते समय गरुड़ जी काग भुसुंडि जी के साथ ’सर्वज्ञ‘ एवं ’कृपा अधिकाई’ विश्लेषण भी लगा दिए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानस रोगों के संबंध में गरुण जी गंभीर विवेचन सुनने के अभिलाषी थे। हो सकता है कि वह स्वयं को भी किसी मानस रोग से ग्रसित अनुभव कर रहे हां, जिसके कारण ही कायिक नहीं मानसिक रोगों की जानकारी प्राप्त करना चाहते हो। रोग के परीक्षण के पश्चात ही तो  सम्यक चिकित्सा संभव होती है। वैद्य न होने के कारण इस प्रश्न को काक भुसुंडि जी टाल भी सकते थ,े परंतु भगवान शंकर ने गरुड़ जी को ऐसा संकेत दे दिया था। जिस से काग भुसुंडि जी की सर्वज्ञता सिद्ध होती है। भगवान शिव की दृष्टि में गरुण जी मोहजनित व्याधि से ग्रस्त थे। इससे छुटकारा दिलाने के लिए उनको काग-भुसुंडि जी के पास भेजा गया, जहां जाकर गरुड़ जी ने अत्यंत प्रेम से राम कथा सुनी मानस रोगों की जानकारी तथा निरोग होने के उपाय भी पूछे।

         काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार में से मोह समस्त व्याधियों की जड़ है। मोह के अंतर्गत अधिक खाने का मोह, अधिक विषय भोग का मोह, अधिक संचय अथवा उपार्जन का मोह आदि सम्मिलित है। इसके कारण ही उदर विकार शारीरिक दुर्बलता आदि रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोगों के सम्बन्ध में भी मोह ही मूल कारण है। किसी पदार्थ में अधिक आकर्षण, उसकी अप्राप्ति में अनावश्यक स्नायविक क्षोभ तनाव उत्पन्न करते हैं। अभाव जन्य चिंतन मानसिक रोगों का उत्पादक है।

     गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में कुछ मानसिक रोगों के लक्षण, कारण, तथा चिकित्सा का क्रम से विधिवत वर्णन करते हुए लिखे हैं कि सब लोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। इसी मोह के संदर्भ में महाकवि ने लिखा है कि इससे विभिन्न प्रकार के शूल (त्रिविधशूल) उत्पन्न होते हैं। इन अपराधों से इतने मानसिक विकार होते हैं जिनकी गणना नहीं की जा सकती हैः

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु शूला।।4

  गोस्वामी जी आयुर्वेद शास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता थे। इन्होंने त्रिदोष तत्व को दृष्टिगत रखते हुए ही मानस रोगों का विवेचन किया है। मानव शरीर के मूलाधार वात, पित्त, और कफ हैं। इनकी जब तक साम्यावस्था रहती है यह शरीर स्वस्थ रहता है। विषमता होने पर शरीर रोग ग्रसित हो जाता है। हमारा मन भी काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से संयुक्त है। यह अपने सम्यक वर्ताव को छोड़कर जब अनियंत्रित हो जाता है तो मानस रोग को जन्म देता है।

काम, बात कफ लोभ अपारा।

क्रोध पित्त नित छाती जारा।।5

        महाकवि ने काम को वायु अर्थात वात कहा है। शेष पित्त एवं कफ दोनों गति हीन काम की वायु से ही उक्त दोनों गतिमान होते हैं। मानसिक शरीर में काम ही क्रोध, एवं लोभ का प्रेरक है। काम की आपूर्ति क्रोध का कारण बनती है तथा लोभ कामोद्दीप्त करता है। क्रोध को गोस्वामी जी ने पित्त कहा है। पित्त की प्रकृति उष्ण है। क्रोध भी मनुष्य को दग्ध कर देता है। कफ को अपार लोभ कहा है। जिस प्रकार लोभी व्यक्ति की आकांक्षाएं कभी समिति नहीं होती है उसी प्रकार से कफ का बनना भी जारी रहता है, उसका समन भी कठिन होता है। जब कफ की भी प्रचुरता हो जाती है तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। मानसिक शरीर को लोभ रूपी कफ घेर करके उसे रुग्ण कर देता है। वात, पित्त, एवं कफ यह तीनों अलग-अलग भी रोग उत्पन्न करने में सक्षम हैं, परंतु यह तीनों मिलकर यदि शरीर में अधिक हो जाते हैं तो उससे दुखद सन्निपात की स्थिति होती हैः

प्रीति करहि जो तिनिउ भाई।

उपजइ सन्निपात दुखदायी।।6

    किसी व्यक्ति में काम की प्रधानता होती है, किसी में लोभ, एवं किसी में क्रोध का अधिक्य होता है। यदि इन तीनों की ही किसी व्यक्ति में प्रचुरता हो तो मानसिक शरीर का पतन निश्चित है। सन्निपात विविध प्रकार के होते हैं ऐसा माधव निदान में वर्णित है। उपर्युक्त तीनों धातुओं के मेल से जिस सन्निपात की सृष्टि होती है उसे अभिन्यास सन्निपात कहते हैं और यह प्राणघातक होता है।

      महाकवि तुलसीदास जी ने आगे अन्य रोगों का वर्णन करते हुए ममता को दाद(दद्रु) रोग बताया है। यह रोग भीगे वस्त्र पहनने से होता है। शरीर में गोलाकार लाल रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं, जिनको खुजलाने से शांति मिलती है, खुजलाना बंद करते ही जलन होने लगती है। ममता का इस रोग से साम्य युक्ति-युक्त है, ममता मन का ही विकार है। परिवार जनों अथवा बन्धु-बान्धव के ममत्त्व में आबद्ध जीवन में अत्यंत आह्लाद का अनुभव करता है। उनका क्षणिक वियोग उसे कष्ट कर महसूस होता है। उसे अनुभव नहीं होता कि आज उसे जो लोग अत्यंत आनन्ददायी प्रतीत हो रहे हैं, अन्ततः वे उसका परित्याग कर देंगे।

         इसी प्रकार अन्य चर्म रोग जिन्हें खुजली(कन्डु) भी कहते हैं, का साम्य ईर्ष्या में दिखाया गया है। खुजली में नन्ही नन्ही फुंसियां शरीर में उभरकर जलन और खाज उत्पन्न करती हैं। ईर्ष्या में भी व्यक्ति दूसरे की उन्नति देखकर जलता है तथा अशान्त रहता है। आगे हर्ष एवं विषाद को गहरा गले का रोग जिस कंठमाला, गलकन्ठ, अथवा घेघा भी कहते हैं, बताकर गोस्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार अभीष्ट की प्राप्ति अथवा आशा से हर्ष, एवं अभीष्ट प्राप्त ना होने से निराशा उत्पन्न होती है। इच्छाओं की पूर्ति से हर्ष होता है तथा ना पूरा होने से विषाद होता है। गोस्वामी जी ने लिखा किः

ममता दादु कान्डु हरषाई।

हरष विषाद गरह बहुताई।।7

   दुष्टता और मन की कुटिलता ही कुष्ठ रोग है। पराये सुख को देख कर जो जलन होती है वह क्षय रोग अर्थात टी0बी0 एक प्रसिद्ध राज रोग है। इसमें रोगी के फेफड़े खराब हो जाते हैं, धीमा ज्वर रहता है, खांसी के साथ बदबूदार बलगम आता है। प्राणी इस रोग के कारण सूख कर कांटा हो जाता है और अंततः मर जाता है। दूसरे के सुख को देख कर जो ईर्ष्या उत्पन्न होती है उसे ही क्षय रोग अर्थात टीवी की भांति माना गया है। दूसरे व्यक्ति को संपन्न देखकर ईर्ष्यालु मनुष्य भीतर ही भीतर घुलता रहता है, जो मनुष्य के मानसिक पतन का कारण बन जाता है। दूसरे के धन वैभव को देखकर जो लोग सदा संतापित रहते हैं।गोस्वामी जी ने लिखा हैः

खलन्ह हृदय अति ताप विसेषी।

जरहिं सदा पर सम्पति देखी।।8

और इसी प्रकार

पर सुख देखि जरिन सोइ छाई।

कुष्ट दुष्टता मन कुटिलाई।।9

     कुष्ट भयावह रोग है आयुर्वेद में इस रोग के कारण विपरीत आहार-बिहार बताए गए हैं। अतः भोजन में ठंडे और गरम तासीर पदार्थों का एक साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि यह विपरीत आहार कहलाता है। कुष्ठ रोग से मनुष्य कान्ति हीन हो जाता है उसे समीप बैठाना भी अच्छा नहीं लगता है। दुष्ट तथा कुटिल हृदय वाले लोगों की इस रोग से समता दिखाना उचित ही है। जब कोई सज्जन पुरुष यह जान लेता है कि अमुक व्यक्ति कलुषित तथा ऊपर से कुछ और हृदय से कुछ और है तो वह उस व्यक्ति को पास बैठाना तो दूर उसकी परछाई से भी घृणा करने लगते हैं। दुष्ट व्यक्ति सर्वत्र निरादर के ही पात्र समझे जाते हैं, और उनका वैसा ही तिरस्कार किया जाता है जैसे कुष्ठ रोगी का। अहंकार अत्यंत दुख देने वाला गठिया रोग है। जिसे डमरुआ भी कहा जाता है। यह बात व्याधि है। जिस कारण शरीर की गांठ में दर्द होता है, इसे गठिया रोग भी कहते हैं। अहंकारी व्यक्ति का स्वभाव भी गठिया रोग से पीड़ित व्यक्ति जैसा ही होता है। वह दर्द के कारण न तो कहीं आना जाना पसंद करता है और ना बोलना तथा बातचीत करना। अभिमान में डूबा वह निरन्तर अपने निवास में ही पड़ा रहता है। मानस में गोस्वामी जी ने लिखा है कि

अहंकार अति दुखद डमरुआ।

दंभ,कपट,मद,मान, नेहरूआ।।10

       इसी प्रकार दंभ, कपट, मद, और मान, नसों का रोग जिसे नेहरूआ कहते हैं। नेहरुआ गरम देश के लोगों को होने वाला एक रोग है। इसमें कंठ के नीचे का भाग फुंसियों से भर जाता है और उनसे डोरे की भांति ही सफेद पतली चीज निकलती रहती है। दूषित जल के सेवन से भी इस रोग की उत्पत्ति होती है। दम्भ,कपट,मन,मान आदि मन के विकारों की नेहरुआ रोग के रूप से तुलना की गई है। गोस्वामी जी ने प्रदूषण से उत्पन्न एक अन्य रोग का भी वर्णन किया हैः

तृष्णा उदर बृद्धि अति भारी।

त्रिविधि ईषना तरुन तिजारी।।11

       तृष्णा भारी पेट के फूलने वाला रोग है इसको आयुर्वेद में जलोदर रोग भी कहते हैं। इस रोग में पेट में पानी भर जाता है धीरे-धीरे समस्त शरीर में इसका प्रकोप बढ़ जाता है, दुर्बलता के आगे से उठने बैठने की शक्ति चली जाती है। तृष्णा से इस रोग की तुलना समीचीन लगती है। विषय प्राप्ति की प्यास निरंतर उसी प्रकार बढ़ती रहती है, जिस प्रकार जलोदर रोग से पेट निरन्तर बढता रहती है। तीन प्रकार की इच्छाएं प्रबल होती है, जिसमें पुत्र, धन और मान(तिजारी) है। अर्थात पुत्रेषणा, वित्तेषणा, और लोकेषणा यह तीनों नवीन तिजारी रोग के समान है। तिजारी रोग में ठंड लगकर तेज बुखार चढ़ता है, जिसे तीसरा, मियादी बुखार, या टाइफाइड भी कहते हैं। स्त्री,पुत्र एवं धन की नित नयी चाह का योग भी इसी रोग की तरह है। मियादी बुखार (तिजरा) का रोग जल्दी ठीक नहीं होता, हर तीसरे दिन इसका ज्वर नवीन वेग से चढ़कर रोगी को दुखी करता है। उपर्युक्त तीनों के कारण मनुष्य को कभी शांति नहीं मिलती दिनोदिन इनकी अपेक्षाएं  बढ़ती ही जाती हैं।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिवेका।

कहं लगि कहों कुरोग अनेका।।12

अन्ततः पालनहार ,त्रिलोकीनाथ मारुति नंन्दन के श्री चरणों में :-

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निजकृत करम भोग सबु भ्राता।।

---------------------------------------------------------------------------------------------- (~~डॉ0 इन्दुशेखर उपाध्याय01:27, 13 जून 2023 (UTC)डॉ ० इन्दु शेखर उपाध्याय (वार्ता) 01:27, 13 जून 2023 (UTC))उत्तर दें

सन्दर्भः

1. रामचरित मानस उत्तर काण्ड-38

2.रामचरित मानस उत्तर काण्ड- 120    

3. रामचरित मानस उत्तर काण्ड-121 डॉ ० इन्दु शेखर उपाध्याय (वार्ता) 12:11, 23 मई 2023 (UTC)उत्तर दें

“धरती का वैकुण्ठ” बद्रीनाथ का भौगोलिक एवं भू-आकृतिक विवेचन :

बद्रीनाथ उत्तरांचल राज्य, उत्तरी भारत, शीत ऋतु में निर्जुन रहने वाला एक गांव एवं मंदिर है। गंगा नदी की मुख्य धारा के किनारे बसा यह तीर्थस्थल हिमालय में समुद्र तल से 3,050 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। बद्रीनाथ का नामकरण एक समय यहाँ प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली जंगली बेरी बद्री के नाम पर हुआ। यह भारत के चार प्रमुख धामों में से एक है। श्री बद्रीविशाल का बद्रीनाथ धाम मंदिर उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच में स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता भगवान विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों चार धामों में से एक है, यह एक बहुत प्राचीन मंदिर है। ऋषिकेश से यह 214 किलोमीटर की दुरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। श्री बद्रीनाथ मन्दिर अलकनन्दा नदी से लगभग 50 मीटर ऊंचे धरातल पर निर्मित है, और इसका प्रवेश द्वार नदी की ओर देखता हुआ है, मन्दिर में तीन संरचनाएं हैं:गर्भगृह, दर्शन मंडप, और सभा मंडप। बद्रीनाथ मन्दिर का मुख पत्थर से बना हुआ है और इसमें धनुषाकार खिड़कियाँ हैं, चौड़ी सीढ़ियों के माध्यम से मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचा जा सकता है, जिसे सिंह द्वार कहा जाता है। यह एक लंबा धनुषाकार द्वार है, इस द्वार के शीर्ष पर तीन स्वर्ण कलश लगे हुए हैं, और छत के मध्य में एक विशाल घंटी लटकी हुई है। अंदर प्रवेश करते ही मंडप दिखता है, एक बड़ा, स्तम्भों से भरा हॉल जो गर्भगृह या मुख्य मन्दिर क्षेत्र की ओर जाता है। हॉल की दीवारों और स्तंभों को जटिल नक्काशी के साथ सजाया गया है।

         गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की 1 मीटर लम्बी शालीग्राम से निर्मित काले रंग की मूर्ति है, जिसे बद्री वृक्ष के नीचे सोने की चंदवा में रखा गया है। बद्रीनारायण की इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं- दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं। मूर्ति के ललाट पर हीरा भी जड़ा हुआ है। गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां भी हैं। मन्दिर के चारों ओर पंद्रह और मूर्तियों की भी पूजा की जाती हैं। इनमें माता लक्ष्मी, गरुड़ देवता (नारायण के वाहन), और नवदुर्गा (नौ अलग-अलग रूपों में दुर्गा माँ) की मूर्तियां शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मन्दिर परिसर में गर्भगृह के बाहर लक्ष्मी-नरसिंह और संत आदि शंकराचार्य, नर और नारायण, वेदान्त देशिक, रामानुजाचार्य और पांडुकेश्वर क्षेत्र के एक स्थानीय लोकदेवता घण्टाकर्ण की मूर्तियां भी हैं, बद्रीनाथ मन्दिर में स्थित सभी मूर्तियां शालीग्राम से बनी हैं। बद्रीनाथ मंदिर को “धरती का वैकुण्ठ” भी कहा जाता है। बद्रीनाथ मंदिर में वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।

मूर्ति स्थापना : बद्रीनाथ की मूर्ति शालग्राम शिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शंकराचार्य की प्रचार यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए। शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।

पौराणिक मान्यता : पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हुई और यह स्थान बद्रीनाथ, भगवान विष्णु का वास बना। भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मंदिर 3,133 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आदि शंकराचार्य, आठवीं शताब्दी के दार्शनिक संत ने इसका निर्माण कराया था। इसके पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर स्थित बद्रीनाथ शिखर की ऊँचाई 7,138 मीटर है। बद्रीनाथ में एक मंदिर है, जिसमें बद्रीनाथ या विष्णु की वेदी है। यह 2,000 वर्ष से भी अधिक समय से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान रहा है। बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। यहाँ उनकी १ मीटर (३.३ फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने ८वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। ऋषिकेश से यह २९४ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। इसके पश्चिम में 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बद्रीनाथ शिखर कि ऊंचाई 7,138 मीटर है। मंदिर में एक विष्णु की वेदी है। यह 2,000 वर्ष से भी अधिक समय से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान रहा है।

स्थिति एवं विस्तार:  भौगोलिक दृष्टि से यह क्षेत्र गढ़वाल हिमालय के रूप में जाना जाता है और इसी क्षेत्र की एक सुरम्य घाटी में स्थित इस स्थान की समुद्र तल से औसत ऊंचाई ३,१३३ मीटर (१०,२७९ फीट) है। बद्रीनाथ मन्दिर की भौगोलिक अवस्थिति ३०.७४° उत्तरी अक्षांश तथा ७९.४४° पूर्वी देशांतर पर है। पर्वत श्रेणियों के अनुक्रम के अनुसार, यह स्थान हिमालय की उस श्रेणी पर अवस्थित है जिसे "महान हिमालय" अथवा "मध्य हिमालय" के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र उन कई पर्वतीय जलधाराओं का उद्गम स्थल है जो एक दूसरे में मिलकर अंततः भारत की प्रमुख नदी गंगा का रूप लेती हैं। इन्हीं पर्वतीय सरिताओं में से एक प्रमुख धारा अलकनन्दा इस घाटी से होकर बहती है जिसमें यह मन्दिर स्थित है। मन्दिर और शहर अलकनन्दा और इसकी सहायक ऋषिगंगा नदी के पवित्र संगम पर स्थित हैं। मन्दिर अलकनन्दा नदी के दाहिने तट पर, इसके पश्चिम में, स्थित है और मंदिर से कुछ ही दूर आगे दक्षिण में ऋषिगंगा नदी पश्चिम दिशा से आकर अलकनन्दा में मिलती है। जिस घाटी में यह संगम होता है, मन्दिर के ठीक सामने नर पर्वत, जबकि पीठ की ओर नीलाकण्ठ शिखर के पीछे नारायण पर्वत स्थित है। इसके पश्चिम में २७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ७,१३८ मीटर ऊँचा बद्रीनाथ शिखर स्थित है।

      मन्दिर के ठीक नीचे तप्त कुण्ड नामक गर्म स्रोत  है। सल्फर युक्त पानी के इस स्रोत को औषधीय माना जाता है; कई तीर्थयात्री मन्दिर में जाने से पहले इस स्रोत में स्नान करना आवश्यक मानते हैं। इन स्रोतों में सालाना तापमान ५५ डिग्री सेल्सियस (११३ डिग्री फ़ारेनहाइट) होता है, जबकि बाहरी तापमान आमतौर पर पूरे वर्ष १७ डिग्री सेल्सियस (६३ डिग्री फ़ारेनहाइट) से भी नीचे रहता है। तप्त कुण्ड का तापमान १३० डिग्री सेल्सियस तक भी दर्ज किया जा चुका है। मन्दिर में पानी के दो तालाब भी हैं, जिन्हें क्रमशः नारद कुण्ड और सूर्य कुण्ड कहा जाता है।

भूगर्भिक एवं भौगोलिक स्वरूप :   इस क्षेत्र के भूविज्ञान से पता चलता है कि हिमालय दुनिया के नवीन पर्वतों में हैं। प्रारंभिक मेसोज़ोइक काल या द्वितीयक भौगोलिक अवधि के दौरान, हिमालय के द्वारा आच्छादित भू-भाग पर विशाल भूमिगत टेथिस समुद्र फैला हुआ था। हिमालय की उत्पति की संभावित तारीख मेसोज़ोइक अवधि के करीब है, लेकिन अभी तक शोधकर्ता  किसी ठोस परिणाम तक नहीं पहुच सके हैं I अलकनंदा नदी की मुख्या धारा द्वारा जिले के सीमा क्षेत्र का गहराई से कटान होता है, हालांकि, यह ज्ञात है कि यहाँ तीव्र रूपान्तरण हुआ है कुछ हिस्सों में उत्थान मध्य-प्लीस्टोसिन अवधि के बाद से काफी महत्वपूर्ण रहा है, अन्य में उच्चतर लेकिन निहित स्थलाकृति के महान हिस्सों और कहीं और सबसे गहरी घाटियां हैं। जिला की भूवैज्ञानिक विशेषता दो प्रमुख प्रभागों के रूप में होती है, जो जोशीमठ के हेलंग गांव एवं सीमावर्ती जिला पिठौरागढ़ के लोहारखेत गांव के बीच पूर्व-दक्षिण में फैली एक काल्पनिक रेखा के उत्तर और दक्षिण में स्थित होती है। उत्तरी खंड, जो उच्च पर्वतमालाओं और बर्फ से ढकी चोटियां, मध्यम में उच्च श्रेणी के रूपांतरिक चट्टानों में शामिल है और ज्वालामुखीय द्वारा निर्मित चट्टानों द्वारा आच्छादित है । दक्षिणी प्रभाग, कम ऊंचाई वाली श्रृंखलाओं से आच्छादित है एवं तलछटी और निम्न श्रेणी के रूपांतरिक चट्टानों के रूप में शामिल है जो ज्वालामुखीय चट्टानों द्वारा निर्मित हैं।

वनस्पति एवं जलवायु:  यह क्षेत्र पौधों की 4000 प्रजातियों के साथ बेहद समृद्ध है, हिमालय की एक श्रृंखला में होने के कारण इसकी प्राकृतिक वनस्पति में उल्लेखनीय विविधता है। इसकी ‘जलवायु विविधताओं के अलावा विशेष रूप से तापमान, वर्षा,पहाड़ो की उचाई ,घाटियों की प्रकृति वनस्पति की विविधता एवं अनुशासित विकास को निर्धारित करती है| इस क्षेत्र के वनस्पतियों को ट्रोपिहाल, हिमालयी उप-उष्णकटिबंधीय और उप अल्पाइन और अल्पाइन वनस्पति में वर्गीकृत किया जा सकता है।अल्पाइन और उप अल्पाइन जोन औषधीय पौधों की सबसे बड़ी संख्या के सबसे प्राकृतिक आवास के रूप में माना जाता है।विभिन्न मापदंडों को ध्यान में रखते हुए, इस क्षेत्र की वनस्पति, मोटे तौर पर चार भागों में विभाजित किया जा सकता हैI

वन प्रकार वन्य जीव / पक्षी
ऊपोष्णकटिबंधीय टाइगर, चीटल (एक्सिस अक्ष) तेंदुए (पेंथेरा पर्दस), फॉक्स (वल्प्स वल्प्स मोंटेनस), बोअर (सस स्क्रोफा)
उष्णकटिबंधीय वर्षावन गोरल (नेमोहाएडस गैरल), कालीज तीर्थ (लोफरा लेकुमेलाना), पीओरा पेट्रिज (पहाड़ी पेट्रिज, चिर तीतर)
मिश्रित केन वन हिमालय थार, मोनल, कोक्लास
खुसू वन कस्तूरी हिरण (मोस्चस मस्कीफिरस), हिमालय थार, ब्लैक बियर
उप अल्पाइन नीली भेड़ / ‘भरल’ (छद्म नहूर) मोनाल
अल्पाइन हिम तेंदुए (पेंथेरा उन्सा), मोनल, ब्लैक बियर, मार्मोट, भरल, हिम कॉक (टेट्राओग्ललस हिलायनिसिस), हिमपात पट्रिज (लारवा लर्वा) इत्यादि।

                बद्रीनाथ धाम में पैदा होने वाला वो पौधा, जिसने विज्ञान जगत को हैरत में डाला हुआ है , इतना ही नहीं लोग इस पौध की पत्तियों को प्रसाद के तौर पर अपने साथ ले जाते हैं। असल में यह पौधा कोई ओर नहीं बल्कि बद्री तुलसी है, जो अपने गुणों के लिए देश-दुनिया की चर्चा में रहती है । दुनिया भर के वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने में जुटे रहते हैं कि दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग का असर इस बद्री तुलसी पर इस बार कैसा नजर आएगा । लेकिन हर बार नतीजे चौंकाने वाले होते हैं। बद्रीनाथ धाम के पास पाए जाने वाली तुलसी को बद्री तुलसी नाम दिया गया है । असल में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से जड़ी-बूटियों के संरक्षण के लिए तैयार किए जा रहे डाटा बेस के तहत पहली बार विज्ञानियों ने बदरी तुलसी पर परीक्षण किया। इसमें जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने की अद्भुत क्षमता पाई गई। वैज्ञानिकों की रिसर्च में सामने आया है कि हजारों साल पहले हिमालय की बर्फीली वादियों में उपजी और ठंडे माहौल में रहने की आदी बदरी तुलसी अधिक कार्बन सोखेगी। इतना ही नहीं तापमान बढ़ने पर वह और बलवती हो जाएगी। कई रिसर्च के बाद सामने आया है कि इसका इस्तेमाल कई बीमारियों में फायदेमंद है । मसलन जिन लोगों को चर्म रोग, डायरिया, डायबिटीज, घाव, बाल झड़ना, सिर दर्द, इंफ्लुइंजा, फंगल संक्रमण, बुखार, कफ-खांसी, बैक्टीरियल संक्रमण आदि है, अगर वो इसका इस्तेमाल करें तो उनके रोग घट सकते हैंI

जलवायु :   धरातलीय विविधता का जलवायु पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है. यहाँ की जलवायु भी इससे अछूती नहीं है. जलवायु की दृष्टि से यह प्रदेश पश्चिमी हिमाचल प्रदेश की अपेक्षा अधिक आर्द्र तथा गर्म रहता है. ग्रीष्मकाल में यहाँ निम्म प्रदेश व घाटियों में गर्म नम उष्ण जलवायु मिलती है, जबकि घाटियों से कुछ सौ किलोमीटर दूर अनेक ऐसे पर्वतीय क्षेत्र मिलते हैं, जो हमेशा हिम से ढके रहते हैं. पर्वतीय क्षेत्रों  में अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी, पौड़ी तथा देहरादून आदि जिलों की जलवायु अति आर्द्र एवं शीत है. शीत ऋतु में तो राज्य के अनेकानेक स्थानों का तापमान शून्य तक तथा कभी-कभी शून्य से नीचे भी चला जाता है. ग्रीष्म ऋतु में तापमान 16° से 21° सेन्टीग्रेड तक पहुँच जाता ऋतु है. ऊँचाई के अनुसार तापमान में अन्तर पाया जाता है. वर्ष भर के औसत मौसम से जलवायु का निर्धारण होता है. राज्य की जलवायु का अध्ययन ऋतुओं के आधार पर किया जा सकता है. उत्तराखण्ड में धरातलीय रचना के ही जलवायुवीय दशाएँ पाई जाती हैं जो अधोलिखित हैं. यह जिला समुद्र तल से 800 मीटर से 8000 मीटर की ऊंचाई पर है जिले की जलवायु बहुत कुछ यहाँ की ऊँचाई पर निर्भर करती है। मध्य नवंबर से मार्च तक सर्दियों का मौसम रहता है। जैसा कि अधिकांश क्षेत्र बाहरी हिमालय के दक्षिणी छोर पर स्थित है, मानसून घाटी से प्रवेश कर सकता है, मानसून में सबसे ज्यादा वर्षा जून से सितंबर तक होती है।

वर्षा – जून से सितंबर की अवधि के दौरान सर्वाधिक वर्षा होती है, जबकि सालाना वर्षा का 70 से 80 प्रतिशत  जिले के दक्षिण में और 55 से 65 प्रतिशत उत्तर में होती है। वर्षा के प्रभाव से कम तापमान रहता है जिस कारण कम बाष्पीकरण होता है तथा कम  वन या वनस्पति क्षेत्र पाया जाता है । हालांकि, प्रभावशीलता न ही उन क्षेत्रों में जहां वनस्पति क्षेत्र बहुत कम है तथा न ही तीक्षण ढलानों पर एकसमान  है और न सकारात्मक है जिस से उन क्षेत्रों में कम मृदा के कारण नमी अवशोषण की क्षमता बहुत कम हो गई हैI भारत सरकार के मौसम विभाग द्वारा सात स्थानों पर बारिश गेजिंग स्टेशन लगाए गए, जो चमोली जिले की स्थायी भूमि की निगरानी करते हैं।

तापमान – मौसम संबंधी वेधशालाओं में दर्ज तापमान का ब्योरा दिखाता है कि जिले में सर्वोच्च तापमान 34° सेल्सियस और निम्नतम 0° सेल्सियस रहता है। जनवरी सबसे ठंडा महीना है जिसके बाद तापमान जून या जुलाई तक बढ़ने लगता है। तापमान ऊंचाई के साथ बदलता है सर्दियों में पश्चिमी विक्षोभ के हलचल के कारण तापमान में गिरावट आने की संभावना रहती है घाटियों में बर्फ संचय प्रयाप्त है

आर्द्रता – मानसून के मौसम में सापेक्ष आर्द्रता अधिक होती है, आम तौर सामान्य से 70% अधिक हटी है। वर्ष का सबसे शुष्क हिस्सा मानसून की पूर्व अवधि है जिसमे दोपहर के बाद नमी में 35% तक गिरावट

बादल – मॉनसून के महीनों के दौरान एवं थोड़े समय के लिए जब इस क्षेत्र से पश्चिमी विक्षोभ के पारित होने से आसमान में घने बादल छाये रहते हैं। शेष वर्ष के दौरान आसमान सामान्य रूप से हल्के बादलों घिरा रहता हैं

पवनें – प्रादेशिक प्रकृति के कारण हवाओं पर स्थानीय प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ता है तथा जब सामान्य प्रचलित हवाएं इन प्रभावों को रोकने में सक्षम नहीं होती है तब हवाओं में दैनिक परिवर्तन की प्रवृत्ति होती है जिससे दिन में प्रवाह ऊर्ध्वगामी तथा रात्री के समय अधोगामी होता है तथा बाद वाला प्रवाह अधिक शक्तिशाली होता है ,    

बद्रीनाथ धाम के मौसम का मासिक  विवरण
मई के माह में बद्रीनाथ का मौसम मई माह में बद्रीनाथ धाम के उद्घाटन और बद्रीनाथ धाम के लिए पर्यटन की शुरुआत होती है। इस माह में बारिश की बहुत कम आशंका होती है और मौसम गर्म रहता है। गर्म कपड़ो की आवश्यकता होती है और बच्चों और बूढ़े लोगों के साथ यात्रा के लिए अतिरिक्त देखभाल की आवश्यकता होती है
जून के माह में बद्रीनाथ का मौसम इस माह में गर्मी और बढ़ जाती है और यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय होता है। बर्फ पिघलने लगता है और हरियाली खिलनी शुरू हो जाती है। बद्रीनाथ यात्रा के लिए एक आदर्श महीना माना जाता है।
जुलाई के माह में बद्रीनाथ का मौसम जुलाई माह में भारी बारिश रहती है जो भूस्खलन का कारण बन सकता है और आपकी यात्रा को बाधित कर सकता है। इस माह में थोड़ा ऊंची ऊंचाई पर बर्फ का आनंद लिया जा सकता है।
अगस्त के माह में बद्रीनाथ का मौसम इस माह में कभी-कभी बारिश होती है, जिससे अगस्त बद्रीनाथ जाने के लिए एक लोकप्रिय महीना बन जाता है। आप बद्रीनाथ मंदिर की यात्रा के दौरान फूलों की घाटी (सर्वश्रेष्ठ समय) भी देख सकते हैं.
सितम्बर के माह में बद्रीनाथ का मौसम इस माह में तापमान में गिरावट आनी शुरू हो जाती है लेकिन बद्रीनाथ यात्रा के लिए सितंबर माह लोकप्रिय माह रहता है.
अक्टूबर के माह में बद्रीनाथ का मौसम शीतकालीन ऋतु अक्टूबर माह से शुरू होती हैं और आप भी बर्फबारी का अनुभव कर सकते हैं। यह पर्यटन और तीर्थयात्रा के लिए वर्ष का आखिरी महीना होता है ।
नवम्बर, दिसम्बर, जनवरी, फरवरी, मार्च और अप्रैल के माह में बद्रीनाथ का मौसम इन माह में मौसम बेहद ठंडा रहता है और यात्रा संबव नहीं होती है क्योंकि तीर्थयात्रा शहर तक पहुंचने का रास्ता बर्फ से पूरी तरह अवरुद्ध रहता है। बद्रीनाथ मंदिर इन महीनों के दौरान बंद रहता है।


क्षमता से अधिक पर्यटक, हिमालयी पारिस्थितकीय के लिए भयंकर संकट :

    “किसी स्थान की वहनीय क्षमता (carrying capacity) को समझना अनिवार्य है। चाहे चार धाम हो या मसूरी-नैनीताल जैसे पर्यटन स्थल। हमें इन जगहों की वहनीय क्षमता के लिहाज से ही पर्यटन करना चाहिए”।  तापमान बढ़ने के साथ ही देशभर के पर्यटक ठंडी और ख़ूबसूरत वादियों का लुत्फ लेने उत्तराखंड में उमड़े हुए हैं। मसूरी, कैंपटीफॉल, धनौल्टी, टिहरी, चंबा समेत सभी पर्यटन स्थल पर्यटकों से भरे हुए हैं। इन पर्यटन स्थलों की सड़कों पर 5-5 किलोमीटर से भी लंबा ट्रैफिक जाम लग रहा है। जल संकट बढ़ गया है। स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ गया है। कचरे का निस्तारण भी एक बड़ी समस्या है।

चार धामों की स्थिति इससे भी ज्यादा गंभीर है। केदारनाथ में 6 मई से 15 मई  तक 1,81,120 यात्रियों ने दर्शन किए। बदरीनाथ में 8 मई से 15 मई शाम तक 1,36,972 यात्री आ चुके हैं। दोनों धामों में 15 मई की शाम तक कुल 3,18,092 तीर्थ यात्री। शुरुआती हफ्ते की बेतहाशा भीड़ के बाद चारों धाम- केदारनाथ में 13,000, बदरीनाथ में 16,000, गंगोत्री में 8,000 और यमुनोत्री में 5,000 संख्या निर्धारित की गई है। हालांकि तय संख्या से अधिक श्रद्धालु धाम पहुंच रहे हैं।बद्रीनाथ में दर्शन के लिए लग रही है 5 किलोमीटर लंबी कतार I

     वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वरिष्ठ भू-विज्ञानी डॉ. सुशील कुमार कहते हैं “बद्रीनाथ-केदारनाथ जैसे संवेदनशील जगहों पर हिमालयी भू-विज्ञान के लिहाज से ऐसे संवेदनशील स्थल पर बेहद सीमित लोगों को लाना चाहिए। एक साथ इतने लोग हिमालयी क्षेत्र में आ रहे हैं। तो इनके वाहनों से तापमान में भी अचानक इजाफा होता है। जिसका असर ग्लेशियर की सेहत पर भी पड़ता है। साथ ही ऑल वेदर रोड के निर्माण कार्य के चलते हिमालयी पहाड़ियां बहुत अधिक संवेदनशील हो गई हैं। इनमें बहुत से भूस्खलन ज़ोन सक्रिय हैं”।

     हिमालयी क्षेत्र में बद्रीनाथ-केदारनाथ जैसे संवेदनशील पर्यटन स्थलों की वहनीय क्षमता के सवाल पर डॉ सुशील कहते हैं कि इस बारे में भू-विज्ञान की दृष्टि से भी अधिक अध्ययन किए जाने की जरूरत है”।

टूरिज्म कैरिंग कैपेसिटी पर शोधपत्र लिखने वाले वैज्ञानिक एसपी सती ने अपने इस शोध पत्र में लिखा है कि हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन से जुड़ी गतिविधियां यहां के पारिस्थितकीय संतुलन के लिहाज से संचालित की जानी चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ते पर्यटन का दबाव यहां के बुनियादी ढांचे पर पड़ रहा है। हिमालयी क्षेत्र में गिरावट के साथ यहां रहने की जगह और भोजन व्यवस्था पर प्रभावित हो रही है।

उत्तराखंड की पर्यटन नीति के मुताबिक वर्ष 2025 तक राज्य में 65 मिलियन पर्यटकों के आने का अनुमान है।


                      वर्ष 2025 तक राज्य में 65 मिलियन पर्यटकों के आने का अनुमान है।

   नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है “हिमालयी क्षेत्र की वहनीय क्षमता को देखते हुए बड़ी संख्या में उमड़ रहे पर्यटक (mass tourism) नीति निर्माताओं और स्थानीय लोगों के लिए गंभीर चिंता का विषय है”। इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2025 तक हिंदुकुश हिमालयी क्षेत्र में 240 मिलियन पर्यटकों की मौजूदगी का आकलन किया गया है। पर्यटन से जुड़ी श्रेष्ठ नीतियां भी इतने भारी पर्यटन को संभालने में चुनौतीपूर्ण होंगी। उत्तराखंड में पर्यटन से जुड़े मास्टर प्लान में 2025 तक 65 मिलियन पर्यटकों (2018 में 27 मिलियन) के पहुंचने का अनुमान लगाया गया है।

आपदा के संकेत :  उत्तराखंड जितना खूबसूरत उतना ही ज्यादा यह आपदा का केंद्र भी है। प्रायः कई त्रासदियों का सामना यहां के लोगो को करना पड़ता है। अभी कुछ वर्ष पहले केदारनाथ में महा त्रासदी हुई थी जिससे अभी तक लोग उभर नहीं पाए है। केदारनाथ के बाद अब बद्रीनाथ भी त्रासदी के केंद्र का संकेत बना हुआ है। बद्रीनाथ में इस चिंता को लेकर सरकार व आपदा प्रबंधन विभाग की ओर से समय रहते एहतियाती कदम उठाए जाने की जरूरत है। केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से नेशनल मिशन ऑन हिमालयन स्टडीज के तहत कराए गए शोध में यह बात सामने आई है कि बदरीनाथ धाम क्षेत्र में माणा गांव से आगे 5584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित परीताल झील के जलस्तर में लगातार वृद्धि हो रही है। आपको बता दें की इस झील पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों के मुताबिक वर्ष 1994 में जहां परीताल झील का क्षेत्रफल 0.08 वर्ग किमी था, वहीं वर्ष 2001 में यह बढ़कर 0.12 वर्ग किमी, वर्ष 2011 में 0.17 वर्ग किमी और वर्ष 2018 में यह बढ़कर 0.21 वर्ग किमी,तथा 2021 में  0.24 वर्ग किमि० हो गया है।

नेशनल मिशन ऑन हिमालयन स्टडीज के तहत दिल्ली टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी नई दिल्ली के डॉ. केसी तिवारी की अगुवाई में परीताल झील को लेकर शोध कर रही वैज्ञानिकों की टीम ने अपने अध्ययन में पाया है कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में अलकनंदा रिवर बेसिन में 5584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित 17.8 मीटर गहरी परीताल झील में 3754782.09 क्यूबिक मीटर पानी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि परीताल झील का ढलान 10 डिग्री से भी कम होने की वजह से यह भविष्य में बड़ा खतरा साबित हो सकती है। हालांकि वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि अभी  हाल में फिलहाल कोई खतरा नहीं है।

   -डॉ. गोपीनाथ रोगांली आरए, शोध वैज्ञानिक‘ के मुताबिक़ नेशनल मिशन ऑन हिमालयन स्टडीज’ के शोध में खुलासा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित परीताल झील का अध्ययन किया गया है। झील का क्षेत्रफल व इसमें पानी की मात्रा साल दर साल बढ़ रही है। वैसे तो फिलहाल कोई बड़ा खतरा नहीं है। अगर समय रहते इस परीताल झील की समस्या पर मनन नहीं किया गया तो भविष्य में केदारनाथ जैसा हाल बद्रीनाथ का हो सकता है। सरकार समय रहते कदम उठाना होगा वरना एक बार फिर से लोगो को बेघर होना पड़ेगा व अपनों को अपनों से दूर होना पड़ेगा फिर से एक बार काल का ग्रास लोगो को बनना पड़ेगा।

                                                                            प्रो० इन्दु शेखर उपाध्याय डॉ ० इन्दु शेखर उपाध्याय (वार्ता) 11:27, 13 जून 2023 (UTC) डॉ ० इन्दु शेखर उपाध्याय (वार्ता)डॉ 0 इन्दु शेखर उपाध्यायउत्तर दें