वार्ता:बीकानेर का इतिहास

पृष्ठ की सामग्री दूसरी भाषाओं में उपलब्ध नहीं है।
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

यह पृष्ठ बीकानेर का इतिहास लेख के सुधार पर चर्चा करने के लिए वार्ता पन्ना है। यदि आप अपने संदेश पर जल्दी सबका ध्यान चाहते हैं, तो यहाँ संदेश लिखने के बाद चौपाल पर भी सूचना छोड़ दें।

लेखन संबंधी नीतियाँ

बीकानेर के महाराजा करण सिंह का इतिहास[संपादित करें]

बीकानेर का इतिहास


बीकानेर के राठौड़ राजाओं में महाराजा करण सिंह का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है. करण सिंह का जन्म वि.स. 1673 श्रावण सुदि 6 बुधवार (10 जुलाई 1616) को हुआ था. वे महाराजा सूरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे अत: महाराजा सूरसिंह के निधन के बाद वि.स. 1688 कार्तिक बदि 13 (13 अक्टूबर 1631) को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठे. बादशाह शाहजहाँ के दरबार में करणसिंह का सम्मान बड़े ऊँचे दर्जे का था. उनके पास दो हजार जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब था. कट्टर और धर्मांध मुग़ल शासक औरंगजेब से बीकानेर के राजाओं में सबसे पहले उनका ही सम्पर्क हुआ था. औरंगजेब के साथ उन्होंने कई युद्ध अभियानों में भाग लिया था अत: जहाँ वे औरंगजेब की शक्ति, चतुरता से वाकिफ थे वहीं औरंगजेब की कुटिल मनोवृति, कुटिल चालें, कट्टर धर्मान्धता उनसे छुपी नहीं थी. यही कारण था कि औरंगजेब ने जब पिता से विद्रोह किया तब वे बीकानेर लौट आये और दिल्ली की गद्दी के लिए हुए मुग़ल भाइयों की लड़ाई में तटस्थ बने रहे. …

रानियां तथा संतति

करण सिंह के आठ पुत्र हुए- 1. रुकमांगद चंद्रावत की बेटी राणी कमलादे से अनूप सिंह, 2. खंडेला के राजा द्वारकादास की बेटी से केसरी सिंह, 3. हाड़ा वैरीसाल की बेटी से पद्म सिंह, 4. श्री नगर के राजा की पुत्री राणी अजयकुंवरी से मोहनसिंह, 5. देवीसिंह, 6. मदन सिंह,7. अमरसिंह. उनकी एक राणी उदयपुर के महाराजा कर्णसिंह की पुत्री थी. उससे नंदकुंवरी का जन्म हुआ, जिसका विवाह रामपुर के चंद्रावत हठीसिंह के साथ हुआ था.

अंतिम समय

फ़ारसी तवारीखों के अनुसार औरंगाबाद पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद उनका निधन हो गया. करणसिंह की स्मारक छतरी के लेख के अनुसार वि.स. 1726 आषाढ़ सुदि 4 मंगलवार (22 जून 1669) को उनका निधन हुआ था.

जब बीकानेर के महाराज ने विफल की औरंगजेब की धर्मानंतरण योजना– “”बात उन दिनों कि है जब राजपूताने के राजा कटक नदी के किनारे एक सम्मेलन में गए थे और औरंगजेब ने राजस्थान के राजाओं को मुस्लिम बनाने का षड्यंत्र रचा और उन्हें बिना सेना के एक जगह बुलाया ताकि जबरदस्ती “मुस्लिम” बनाया जा सके| औरंगजेब का मंसूबा जान राजाओं ने बीकानेर के राजा के नेतृत्व में उस षड्यंत्र को विफल किया””

ये सुनकर मुसलमान जल जाते है इसमे उनका अपना उपहास नजर आता है पर दूसरी ओर राजपूत अपनी हठ ठान बैठे थे इस पेचिदा स्थिति के सामने मुसलमानो ने राजपूतों की बात मान ली और वो नदी के पार चले गए अब वो ही नाव पहले राजाओं को उस पार लेने आई पर उन्होने कहा के आमेर की माजी साहिबा का देहांत हो चुका है अत: हम यही पर शौक मनाएगे 12 दिन, और 12 दिनो तक दोनो सेनाए आमने सामने पडाव डालकर रही तेहरवे दिन कटक नदी के दक्षिण पर एक सुसज्जित सिहांसन था और उस पर एक राजा विराजमान था सब राजाओं ने मिलकर उसका तिलक किया और “जय जंगलधर बादशाह” की जयघोष की।

दूसरी ओर मुगल सेना चकित होकर देख रही थी कि ये किसका राजतिलक हो रहा है। और दूसरी ओर जैसे ही नाव राजपूतो को लेने आई तैसे ही उन्होने सारी नाव ध्वस्त कर डाली और नदी के तीव्र बहाव के कारण मुगल सेना उनके पास आ नही सकी और वो दूर से ही अपने गुस्से को पीते रहे सब नावों को तोड़ देने के बाद सब राजा लोग अपनी अपनी राजधानियों को लौट गए | सबका अनुमान था कि अब बीकानेर के महाराजा करणसिंह जी को शाही क्रोधाग्नि का शिकार होना पड़ेगा | उन्हें जय जंगलधर बादशाह बनने का भयंकर मूल्य चुकाना पड़ेगा | इस पहल और सेनापतित्व के लिए उन्हें अब सीधे रूप से मुगलिया शक्ति से टक्कर लेनी पड़ेगी |

जब यह संवाद बादशाह औरंगजेब के पास पहुंचा, तब वह अपनी योजना के विफल होने पर बहुत अधिक झल्लाया और क्रोधित हुआ | राजाओं के इस प्रकार बच निकल जाने पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ | पर उसने जब निर्जल बालुकामय बीकानेर के विकट मरुस्थल की और ध्यान दिया तो एक विवशता भरी नि:श्वास छोड़ दी | मारवाड़ के राठौड़ों द्वारा प्रदर्शित तलवार की शक्ति को याद कर वह सहम गया | महाराजा करणसिंह की रोद्र मूर्ति और बलिष्ठ भुजाओं का स्मरण कर वह भयभीत हो गया | उसने केवल इतनी ही आज्ञा दी –

” इस सब घटना को शाही रोजनामचे में से निकाल दो और तवारीख में भी कहीं मत आने दो |”

परन्तु बीकानेर और राजपूताने आदि की इतिहास से नहीं हटवा सका औरंगज़ेब किन्तु उस दिन से बीकानेर के केसरिया-कसूमल ध्वज पर सदैव के लिए अंकित हो गया –

” जय जंगलधर बादशाह |”

--Bikanerpride13 (वार्ता) 08:16, 12 सितंबर 2017 (UTC)[उत्तर दें]