वार्ता:जामा मस्जिद, दिल्ली
विषय जोड़ेंशाही इमाम जामा मस्जिद दिल्ली ==
जामा मस्जिद वक़्फ़ की, इमामत ख़ानदान की ! Ziyaur Khan (वार्ता) 04:54, 19 सितंबर 2022 (UTC)
दुनिया में कई देशों से बादशाहत ख़त्म हुई. मुग़ल सम्राट आए और चले गए. अंग्रेज़ों को भी गए हुए दशकों बीत गए.
लेकिन दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के शाही इमाम की 400 साल से भी पुरानी इमामत आज भी एक ही खानदान के हाथ में है.
सऊदी अरब और दूसरे इस्लामी देशों में भी अनुवांशिक इमामत की मिसाल नहीं मिलती.
हैरानी की बात है कि ये परंपरा सदियों पुरानी परंपरा दिल्ली की जामा मस्जिद में आज भी जारी है.
शाही इमाम शाहजहाँ ने उन्हें शाही इमाम का ख़िताब दिया. इमामत एक ही परिवार में रही और ये सिलसिला आज तक नहीं टूटा है. अहमद बुखारी पहले इमाम के परिवार के ही हैं. अपने आप में ये इमामत भारत की सबसे पुरानी और अटूट संस्थाओं में से एक है.
भारतीय मुसलमानों का इससे भावुक लगाव हो सकता है, लेकिन 21वीं शताब्दी के लोकतांत्रिक माहौल में भावनाओं को कितनी जगह दी जानी चाहिए ये सवाल भी अब उठने लगा है.
इसमें कोई शक नहीं कि जामा मस्जिद के इमामों ने सियासत में हमेशा बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है. वो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के करीब रहे हैं.
सिकुड़ती सल्तनत
उन्होंने भारतीय मुसलमानों के अधिकारों के लिए आवाज़ें उठाई हैं. एक समय ऐसा भी था जब उत्तर भारत के मुसलमानों पर उनका काफ़ी असर था.
लेकिन आज उनका प्रभाव पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद के इर्द-गिर्द सीमित रह गया है.
मुग़ल बादशाह शाह आलम की सल्तनत सिकुड़ जाने पर एक शायर ने कहा था 'हुकूमत-ए-शाह आलम, अज दिल्ली ता पालम।' कुछ ऐसा ही हाल शाही इमाम अहमद बुखारी का भी लगता है.