मस्तानी
मस्तानी (मृत्यु : 1740 ई०) पेशवा बाजीराव प्रथम की दूसरी पत्नी थी।
आरम्भिक जीवन-चरित्र
[संपादित करें]मस्तानी के आरम्भिक जीवन का इतिहास विवादास्पद तथा मुख्यतः किंवदंतियों पर आधारित है। सुशीला वैद्य के अनुसार 18वीं शताब्दी के पूर्व मध्यकाल में मराठा इतिहास में मस्तानी का विशेष उल्लेख मिलता है।[1] इतिहासकार गोविंद सखाराम सरदेसाई ने लिखा है कि मस्तानी का वंश अज्ञात है। परंपरा से वह एक हिंदू पिता और मुसलमान माता की संतान कही जाती है।[2] वस्तुतः मस्तानी के माता पिता तथा कुल आदि के संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। इस संबंध में समकालीन लेखकों ने परस्पर विरोधी मत व्यक्त किए हैं। बाजीराव के एक प्राचीन जीवन चरित्र के अनुसार मस्तानी हैदराबाद के निज़ाम की पुत्री थी। नवाब की बेगम ने उसका विवाह बाजीराव से कर देने का आग्रह किया ताकि निज़ाम-बाजीराव की मित्रता स्थायी बन सके। विवाह संस्कार संपन्न किया गया पर प्रत्यक्ष बाजीराव से नहीं वरन उसके खंजर से। बाद में बाजीराव ने उसे अपने पास बुला लिया। कुछ अन्य लेखकों के अनुसार मस्तानी महाराजा छत्रसाल की मुस्लिम रखेल की पुत्री थी। जब उसने बाजीराव द्वारा दी गयी सहायता के लिए उसे अनेक उपहार आदि दिये तो मस्तानी भी उन में से एक थी। कुछ और लेखकों ने केवल इतना ही लिखा है कि वह मुस्लिम माता और हिन्दू पिता की पुत्री थी।[3] भगवान दास गुप्त का भी मानना है कि मस्तानी के प्रारंभिक जीवन के संबंध में कोई भी विश्वसनीय विवरण उपलब्ध नहीं है। अधिकतर यही धारणा प्रचलित है कि छत्रसाल ने ही उसे पेशवा को भेंट किया था। बुंदेलखंडी जनश्रुतियों के अनुसार वह की मुग़लानी उप पत्नी से उत्पन्न कन्या थी।[4]
गोविंद सखाराम सरदेसाई ने लिखा है कि उसके नाम का प्रथम उल्लेख बाजीराव के ज्येष्ठ पुत्र बालाजी बाजी राव के विवाह संबंधी वृत्तांतों के प्रामाणिक पत्रों में है। यह विवाह 11 जनवरी 1730 ईस्वी को हुआ था। उसी वर्ष बाजीराव ने पुणे में अपने 'शनिवार भवन' का निर्माण किया था।[5] अपने उपन्यास राऊ स्वामी में नागनाथ इनामदार ने भी इसी समय से कथा का आरंभ किया है।
मस्तानी अपने समय की अद्वितीय सुंदरी एवं संगीत कला में प्रवीण थी। इन्होंने घुड़सवारी और तीरंदाजी में भी शिक्षा प्राप्त की थी। सुशीला वैद्य के अनुसार गुजरात के नायब सूबेदार शुजाअत खाँ और मस्तानी की प्रथम भेंट 1724 ई० के लगभग हुई। चिमाजी अप्पा ने उसी वर्ष शुजाअत खाँ पर आक्रमण किया। युद्ध क्षेत्र में ही शुजाअत खाँ की मृत्यु हुई। लूटी हुई सामग्री के साथ मस्तानी भी चिमाजी अप्पा को प्राप्त हुई। चिमाजी अप्पा ने उन्हें बाजीराव के पास पहुँचा दिया। तदुपरांत मस्तानी और बाजीराव एक दूसरे के लिए ही जीवित रहे।[1] उक्त भवन में ही बाजीराव ने जहाँ मस्तानी के रहने का प्रबंध किया उसे 'मस्तानी महल' और 'मस्तानी दरवाजा' का नाम दिया गया है।
योग्यता, श्रीमन्त पेशवा की संगति और प्रभाव
[संपादित करें]मस्तानी अनिंद्य सुंदरी थी। वह सुसंस्कृत, कलाविज्ञ तथा व्यवहार चतुर थी। वह बाजीराव से अनन्य प्रेम करती थी। वह नृत्य और गायन में तो निपुण थी ही पर साथ ही कुशल अश्वारोही तथा शस्त्र-विद्या में भी निपुण थी। पेशवा के महल में होने वाले गणेश उत्सव के अवसर पर सार्वजनिक समारोहों में उसका गायन हुआ करता था। वह सैनिक अभियानों में भी बाजीराव के साथ रहती थी। वह घोड़े पर सवार होकर सेना में बाजीराव के साथ चलती थी। बाजीराव उससे इतना प्रेम करता था कि वह उसे एक क्षण के लिए भी अपने से दूर नहीं होने देता था। मस्तानी एक हिंदू पत्नी की तरह रहती थी। मुसलमान होने पर भी वह हिंदू वेशभूषा में ही रहती थी। वह बाजीराव के आराम, उसकी आवश्यकताओं तथा उसके सुख का पूरा ध्यान रखती थी।
हिंदू धर्म-रक्षक मराठा राज्य के पेशवा का एक मुस्लिम महिला के प्रेम-पाश में फँसना तत्कालीन समाज कैसे सहन करता? इसी कारण उसके परिवार के लोग भी उससे रुष्ट रहते थे। उसकी पत्नी काशीबाई भी अपने प्रति उसके उदासीन व्यवहार से बड़ी दुखी रहा करती थी। बाजीराव के विरोधी सरदार उसके तथा मस्तानी के प्रेम का उसके विरुद्ध प्रचार करने में उपयोग कर उसे लोगों की दृष्टि में गिराने का प्रयत्न करते थे। बाजीराव मांस और मदिरा का सेवन करने लगा था। महाराष्ट्र के ब्राह्मण समाज में यह वर्ज्य था। लोगों का कहना था कि मस्तानी के संपर्क का ही यह परिणाम था। ब्राह्मण समुदाय तो एक प्रकार से बाजीराव को पतित ही मानने लगा था।[6] इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध इतिहासकार गोविंद सखाराम सरदेसाई ने दूरदर्शिता एवं सहानुभूति से विचार किया है। उन्होंने लिखा है कि जनसाधारण के अनुसार मांस तथा मदिरा के प्रति बाजीराव का प्रेम मस्तानी की संगति के कारण था। परंतु बाजीराव सदृश व्यक्ति, जिसको एक सैनिक का जीवन व्यतीत करना पड़ता था, ब्राह्मण जाति के कठोर नियमों का पालन नहीं कर सकता था, क्योंकि सभी प्रकार के लोगों से उसका स्वतंत्रतापूर्वक मिलना होता था। महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण के संकीर्ण निषेधात्मक जीवन में यह आकस्मिक परिवर्तन स्वाभाविक एवं अनिवार्य थे, प्रसरण काल में मराठा समाज में निस्संदेह महान् परिवर्तन हो गया था।[7]
बाजीराव से संबंध के कारण मस्तानी को भी अनेक दु:ख झेलने पड़े पर बाजीराव के प्रति उसका प्रेम अटूट था। मस्तानी के 1734 ई० में एक पुत्र हुआ। उसका नाम शमशेर बहादुर रखा गया। बाजीराव ने काल्पी और बाँदा की सूबेदारी उसे देने की घोषणा कर दी। शमशेर बहादुर ने पेशवा परिवार की बड़े लगन और परिश्रम से सेवा की। 1761 ई० में शमशेर बहादुर मराठों की ओर से लड़ते हुए पानीपत के मैदान में मारा गया।
प्रेमपन्थ के विषमय काँटे
[संपादित करें]1739 ई० के आरंभ में पेशवा बाजीराव और मस्तानी का संबंध विच्छेद कराने के असफल प्रयत्न किए गए। 1739 ई० के अंतिम दिनों में बाजीराव को आवश्यक कार्य से पूना छोड़ना पड़ा। मस्तानी पेशवा के साथ न जा सकी। चिमाजी अप्पा और नाना साहब ने मस्तानी के प्रति कठोर योजना बनाई। उन्होंने मस्तानी को पर्वती बाग में (पूना में) कैद किया। बाजीराव को जब यह समाचार मिला, वे अत्यंत दु:खित हुए। वे बीमार पड़ गए। इसी बीच अवसर पा मस्तानी कैद से बचकर बाजीराव के पास 4 नवम्बर 1739 ई० को पटास पहुँची। बाजीराव निश्चिंत हुए, पर यह स्थिति अधिक दिनों तक न रह सकी। शीघ्र ही पुरंदरे, काका मोरशेट तथा अन्य व्यक्ति पटास पहुँचे। उनके साथ पेशवा बाजीराव की माँ राधाबाई और उनकी पत्नी काशीबाई भी वहाँ पहुँची। उन्होंने मस्तानी को समझा बुझाकर लाना आवश्यक समझा। मस्तानी पूना लौटी।
कट्टरपंथी लोग मस्तानी को मार ही डालना चाहते थे, क्योंकि उनके अनुसार सभी झंझटों का मूल वही थी। उन लोगों ने छत्रपति से आज्ञा भी लेने का प्रयत्न किया, परंतु छत्रपति राजा शाहू अधिक बुद्धिमान थे। उनके अधिकारी गोविंदराव ने 24 जनवरी 1740 ईस्वी को एक पत्र में लिखा है - "मस्तानी के विषय पर मैंने निजी तौर पर राजा की इच्छा का पता लगा लिया है। बलपूर्वक पृथक्करण या व्यक्तिगत निरोध (बंदीवास) के प्रस्ताव के प्रति उस को गंभीर आपत्ति है। वह बाजीराव को किसी भी प्रकार अप्रसन्न किया जाना सहन नहीं करेगा, क्योंकि वह सदैव उसे प्रसन्न रखना चाहता है। दोष उस महिला का नहीं है। इस दोष का निराकरण उसी समय हो सकता है जब बाजीराव की ऐसी इच्छा हो। बाजीराव की भावनाओं के विरुद्ध हिंसा प्रयोग की कैसी भी सलाह राजा किसी भी कारण नहीं दे सकता।"[8]
1740 ई० के आरंभ में बाजीराव नासिरजंग से लड़ने के लिए निकल पड़े और गोदावरी नदी को पारकर औरंगाबाद के पास शत्रु को बुरी स्थिति में ला दिया। 27 फरवरी 1740 ई० को मुंगी शेगाँव में दोनों के बीच संधि हो गयी। बाजीराव के जीवन का यह अंतिम अभियान सिद्ध हुआ।[9] उस समय कोई नहीं जानता था कि बाजीराव की मृत्यु सन्निकट है। 7 मार्च 1740 ई० को नानासाहेब के नाम चिमना जी के पत्र से संदेह होता है कि बाजीराव हृदय से रुग्ण थे। चिमना जी ने इस पत्र में लिखा था कि "जब से हम एक दूसरे से विदा हुए हैं, मुझको पूजनीय राव से कोई समाचार प्राप्त नहीं हुआ है। मैंने उसके विक्षिप्त मन को यथाशक्ति शांत करने का प्रयास किया, परंतु मालूम होता है कि ईश्वर की इच्छा कुछ और ही है। मैं नहीं जानता हूं कि हमारा क्या होने वाला है। मेरे पुणे वापस होते ही हम को चाहिए कि हम उसको (मस्तानी को) उसके पास भेज दें।[10] स्पष्ट है कि बाजीराव अत्यंत व्याकुल था। मस्तानी के विरह तथा उसे मुक्त कराने में अपनी अक्षमता से उसे मानसिक क्लेश और क्षोभ था।[11] 28 अप्रैल 1740 ईस्वी को अपनी पहली और अंतिम बीमारी से उसकी मृत्यु हुई।[a] इस समय बाजीराव की आयु केवल 42 वर्ष की थी। उसकी मृत्यु के समय उसके पास उसकी क्षमाशील पत्नी काशीबाई भी थी।
देहान्त
[संपादित करें]किंकेड एवं पारसनीस के अनुसार मस्तानी अपने प्रियतम के साथ सती हो गयी। उन्होंने लिखा है कि "इस संसार में वह अपने प्रियतम से अलग की गयी थी। वह अग्नि की भयंकर ज्वालाओं के बीच से गुजर कर दूसरे संसार में उसका स्वागत करने पहुंच गयी।"[12] हालांकि यह बात विवादास्पद है। यह कहना कठिन है कि उसने आत्महत्या कर ली या शोक-प्रहार से वह मर गयी। उसका शव पाबल भेजा गया, जो पूना के पूरब में लगभग 20 मील पर एक छोटा सा गाँव है। यह गाँव बाजीराव ने उसको इनाम में दिया था। यहाँ पर एक साधारण-सी कब्र आने-जाने वालों को उसकी प्रेम-कथा तथा दुःखद मृत्यु का स्मरण दिलाती है। सर्वसम्मति से वह अपने समय की सर्वाधिक सुंदरी थी।[13]
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ बाजीराव की मृत्यु वर्तमान में मध्य प्रदेश के खरगोन ज़िला के रावेरखेड़ी ग्राम में हुई थी। आज भी उनकी समाधि इस ग्राम में स्थापित है। इसे अब मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग को सौंप दिया गया है। यहां बाजीराव की पुण्यतिथि पर हजारों पर्यटक आते हैं।
- ↑ अ आ हिन्दी विश्वकोश, भाग-9, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-1967, पृ.180.
- ↑ मराठों का नवीन इतिहास, भाग 2, गोविंद सखाराम सरदेसाई; शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा; तृतीय संशोधित संस्करण 1972, पृष्ठ 183.
- ↑ पराक्रमी पेशवा, श्रीनिवास बालाजी हर्डीकर; नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, संस्करण 1979, पृष्ठ- 213-214.
- ↑ महाराजा छत्रसाल बुँदेला, डॉ० भगवान दास गुप्त, मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, द्वितीय संस्करण - 2004, पृष्ठ 79 (पाद टिप्पणी).
- ↑ मराठों का नवीन इतिहास, भाग-2, पूर्ववत्, पृष्ठ 183.
- ↑ पराक्रमी पेशवा, पूर्ववत्, पृ.214.
- ↑ मराठों का नवीन इतिहास, भाग-2, पूर्ववत्, पृष्ठ 184.
- ↑ मराठों का नवीन इतिहास, पूर्ववत्, पृष्ठ-185.
- ↑ पराक्रमी पेशवा, पूर्ववत्, पृ.217.
- ↑ मराठों का नवीन इतिहास, पूर्ववत्, पृष्ठ-186.
- ↑ पराक्रमी पेशवा, पूर्ववत्, पृ.218.
- ↑ पराक्रमी पेशवा, पूर्ववत्, पृ.218 पर उद्धृत.
- ↑ मराठों का नवीन इतिहास पूर्ववत्, पृष्ठ-187.