भाषा दर्शन
भाषादर्शन (Philosophy of language) का सम्बन्ध इन चार केन्द्रीय समस्याओं से है- अर्थ की प्रकृति, भाषा प्रयोग, भाषा संज्ञान, तथा भाषा और वास्तविकता के बीच सम्बन्ध। किन्तु कुछ दार्शनिक भाषादर्शन को अलग विषय के रूप में न लेकर, इसे तर्कशास्त्र (लॉजिक) का ही एक अंग मानते हैं।
भाषादर्शन की भारतीय परम्परा
[संपादित करें]भारत में भाषा के तत्त्वमीमांसीय व ज्ञानमीमांसीय पक्षों पर सुदूर प्राचीन काल से ही विचार आरम्भ हो गया था। व्याकरण की रचना के लिए अनेक पारिभाषिक शब्दों का आश्रय लेना पड़ा। नाम, आख्यात उपसर्ग, निपात, क्रिया, लिंग, वचन, विभक्ति, प्रत्यय इत्यादि शब्दों के माध्यम से भाषा के विभिन्न रूपों का विश्लेषण किया गया। गहरा चिन्तन, सूक्ष्म विचार और सत्य के अन्वेषण की पद्धति को दर्शन कहा जाता है। इस कारण भाषा के विश्लेषण को भी दर्शनशास्त्र का स्तर मिल गया। वैदिक साहित्य में ही इस स्तर को स्वर मिलना आरम्भ हो गया था। गोपथ ब्राह्मण का ऋषि प्रश्न करते हुए कहता है-
- ओंकार पृच्छामः को धातुः, किं प्रातिपदिकम्, किं नामाख्यातम्, किं लिंगम्, किं वचनम्, का विभक्तिः, कः प्रत्यय इति। [1]
ये प्रश्न भाषा की आन्तरिक मीमांसा को सम्बोधिति हैं। यदि इन प्रश्नों का उत्तर दे दिया जाए, तो पूरा व्याकरणदर्शन सामने आ जाता है। जब धातु, प्रातिपदिक, नाम, आख्यात आदि के प्रति जिज्ञासा थी तो इनका समाधान भी किया गया था और समाधान करने वाले आचार्यों की लम्बी परम्परा भी खड़ी हो गई थी।[2]
निरुक्तकार यास्क ने नाम, आख्यात आदि के विवरण प्रस्तुत करते हुए[3] कतिपय पूर्वाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस देश में व्याकरण की दार्शनिक-प्रक्रिया ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व विकास के एक ऊँचे स्तर को छू चुकी थी।
उपसर्ग तथा नाम शब्दों के स्वरूप के सम्बन्ध में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य गार्ग्य तथा शाकटायन के परस्पर विरोधी मतों का उल्लेख यास्क ने अपने निरुक्त[4][5] में भी किया है। इसी निरुक्त में उद्धृत[6]2 एक आचार्य औदुम्बरायण के अखण्डवाक्यविषयक व्याकरणदर्शन के प्रमुख एवं आधारभूत सिद्धान्त का उल्लेख भर्तृहरि ने वाक्यपदीय [7] में, तथा भरतमिश्र ने स्फोटसिद्ध में किया है।[8]
युध्ष्ठिर मीमांसक औदुम्बरायण आचार्य का समय 3100 वर्ष विक्रमपूर्व अथवा उससे कुछ पूर्व मानते हैं।[9] शब्दनित्यत्व के सिद्धान्त पर प्रतिष्ठित स्फोटवाद नामक सिद्धान्त का सम्बन्ध पाणिनि से पूर्ववर्ती आचार्य स्फोटायन से माना जाता है। स्फोटायन आचार्य का उल्लेख पाणिनि ने ‘अवघ् स्फोटायनस्य’[10] सूत्र पर किया है। हरदत्त ने स्पफोटायन शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-
- स्फोटोऽयनं पारायणं यस्य स्पफोटायनः स्पफोटप्रतिपादनपरो व्याकरणाचार्यः। ये त्वौकारं पठन्ति ते नडादिषु अश्वादिषु वा पाठं मन्यन्ते।[11]
युधिष्ठिर मीमांसक स्पफोटायन आचार्य का समय 3200 विक्रम पूर्व मानते हैं।[12] किन्तु जैसे पाणिनि के पूर्व के व्याकरणशास्त्र की बहुत ही अल्प सामग्री आज उपलब्ध है वैसे ही पूर्वाचार्यों के व्याकरण-सम्बन्धी दार्शनिक विचार भी अल्प ही सुरक्षित रह पाए हैं।
जैसे शब्दनिष्पत्तिव्यवस्थानरूप संस्कृतव्याकरण का सुव्यवस्थित रूप पाणिनि से आरम्भ होता है वैसे ही व्याकरणदर्शन का भी स्पष्ट रूप पाणिनि से ही आरम्भ होता है। यद्यपि पाणिनि ने अष्टाध्यायी की रचना शब्दानुशासन के निमित्त की थी किन्तु अपनी व्याकरणरचनापद्धति के कारण उन्हें अनेक परिभाषा-सूत्रों की रचना करनी पड़ी। अनेक संज्ञाशब्द बनाने पड़े और पारिभाषिक शब्दों के लक्षण देने पड़े। हम देखते हैं कि आचार्य के इसी अवान्तरप्रतिपादन में व्याकरणदर्शन की एक विस्तृत पृष्ठभूमि स्वयं तैयार हो गई। पाणिनि द्वारा प्रयुक्त विभाषा, पदविधि, आदेश, विप्रतिषेध, उपमान, लिंग, क्रियातिपत्ति, कालविभाग, वीप्सा, प्रत्ययलक्षण, भावलक्षण, शब्दार्थप्रकृति जैसे सैकड़ों शब्द इस बात के प्रतीक हैं कि वे उन दिनों के दार्शनिक वादों से पूर्णरूप से अवगत थे और स्वयं उच्चकोटि के दार्शनिक चिन्तक थे। उनके अनेक सूत्र अपने आप में एक दर्शन हैं। उदाहरण के रूप में हम निम्न सूत्रों पर दृष्टिपात कर सकते हैंः-
- स्वतन्त्राः कर्ता (अष्टा.1.4.54),
- तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात् (अष्टा.1.2.53),
- अर्थवदधतुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् (अष्टा.1.2.45),
- कर्मणि च येन संस्पर्शात् कर्त्तुः शरीरसुखम् (अष्टा. 3.3.116),
- समुच्चये सामान्यवचनस्य (अष्टा. 3.4.5),
- तस्य भावस्त्वतलौ (अष्टा. 5.1.119),
- प्रकारे गुणवचनस्य (अष्टा. 8.1.112)।
सच तो यह है परवर्ती भाषादर्शन चिन्तकों के लिये पाणिनि प्रमाणभूत आचार्य हैं। बाद के वैयाकरणों ने व्याकरण से सम्बद्ध जो कुछ विचार व्यक्त किये हैं उनका अनुमोदन वे किसी न किसी तरह पाणिनि के सूत्रों से करते हैं।
व्याकरणदर्शन से सम्बद्ध सभी मत पाणिनि की मान्यताओं से परिपुष्ट किए जाते हैं। किसी प्राचीन आचार्य की उक्ति है, जो कुछ वृत्ति-ग्रन्थों में है और जो कुछ वार्तिकों में है, वह सब सूत्रों में ही है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ गोपथब्राह्मण, प्रथम प्रपाठक, 1.24
- ↑ आख्यातोपसर्गानुदात्तस्वरितलिर्घैंविभक्तिवचनानि च संस्थानाध्ययिन आचार्याः पूर्वे बभूवुः। गोपथब्राह्मण प्रथम प्रपाठक, 1.27
- ↑ देखें, निरुक्त 1.1
- ↑ न निर्बद्धा उपसर्गा अर्थान्निराहुरिति शाकटायनः। नामख्यातयोस्तु कर्मोपसंयोगद्योतका भवन्ति। उच्चावचाः पदार्था भवन्तीति गार्ग्यः। नि. 1.3
- ↑ तत्र नामान्याख्यातजानिति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च। न सर्वाणीति गार्ग्यो वैयाकरणानां चैके। नि. 1.121
- ↑ इन्द्रियनित्यं वचनम् औदुम्बरायणः। नि. 1.1
- ↑ वाक्यस्य बुद्धौ नित्यत्वमर्थयोगं च लौकिकम्। दृष्ट्वा चतुष्ट्वं नास्तीति वार्त्ताक्षौदुम्बरायणौ।। वा.प. 2.343
- ↑ भगवदौदुम्बरायणाद्युपदिष्टाखण्डभावमपि व्यंजनारोपित नान्तरीयक भेदक्रमविच्छेदादिनिविष्टैः परैः एकाकारनिर्भासम् अन्यथा सिद्धकृत्य अर्थधीहेतुतां चान्यत्रा संचार्य भगवदौदुम्बरादीनपि भगवदुपवर्षादिभिर्निमायापलयितम्....। स्पफोटसिद्ध, पृ. 1
- ↑ देखें, सं. व्या. शा. का इति. भाग-2, पृ. 433
- ↑ पा. 6.1.123
- ↑ प. म. 6.1.123, भाग-2, पृ. 243
- ↑ द्र. सं. व्या. शा. इति., भाग-2, पृ. 432
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- आचार्य यास्क के मत में शब्द का स्वरूप[मृत कड़ियाँ] (ज्ञानवाक्)
- Philosophy of Language, from the Internet Encyclopedia of Philosophy
- Glossary of Linguistic terms
- What is I-language? - Chapter 1 of I-language: An Introduction to Linguistics as Cognitive Science.
- The London Philosophy Study Guide offers many suggestions on what to read, depending on the student's familiarity with the subject: Philosophy of Language
- Carnap, R., (1956). Meaning and Necessity: a Study in Semantics and Modal Logic. University of Chicago Press.
- Collins, John. (2001). https://web.archive.org/web/20090713193632/http://www.sorites.org/Issue_13/collins.htm
- Devitt, Michael and Hanley, Richard, eds. (2006) The Blackwell Guide to the Philosophy of Language. Oxford: Blackwell.
- Greenberg, Mark and Harman, Gilbert. (2005). Conceptual Role Semantics. https://web.archive.org/web/20110514045616/http://www.princeton.edu/~harman/Papers/CRS.pdf
- Hale, B. and Crispin Wright, Ed. (1999). Blackwell Companions To Philosophy. Malden, Massachusetts, Blackwell Publishers.
- Lepore, Ernest and Barry C. Smith (eds). (2006). The Oxford Handbook of Philosophy of Language. Oxford University Press.
- Lycan, W. G. (2000). Philosophy of Language: A Contemporary Introduction. New York, Routledge.
- Miller, James. (1999). https://web.archive.org/web/20051112134830/http://archives.econ.utah.edu/archives/pen-l/1999m12.1/msg00185.htm
- Stainton, Robert J. (1996). Philosophical perspectives on language. Peterborough, Ont., Broadview Press.
- Tarski, Alfred. (1944). The Semantical Conception of Truth. https://web.archive.org/web/20110513234333/http://www.ditext.com/tarski/tarski.html
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