बेकारी

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बेरोजगारी दर का मानचित्र (२०१७ में)

बेरोज़गारी (Unemployment) या बेकारी किसी काम करने के लिए योग्य व उपलब्ध व्यक्ति की वह अवस्था होती है जिसमें उसकी न तो किसी कम्पनी या संस्थान के साथ और न ही अपने ही किसी व्यवसाय में नियुक्ति होती है। किसी देश, राज्य या अन्य क्षेत्र में पूरे श्रम करने वाले लोगों की आबादी में बेरोज़गारों का प्रतिशत उस स्थान का बेरोज़गारी दर (unemployment rate) कहलाता है। अगर वह लोग जो बालक, वृद्ध, रोगी या अन्य किसी अवस्था के कारण अनियोज्य (unemployable)- यानि रोज़गार के लिए अयोग्य - हों काम न करें तो उन्हें बेरोज़गार की श्रेणी में नहीं गिना जाता है और न ही उनकों बेरोज़गारी दर में सम्मिलित करा जाता है।[1][2][3]

कारण एवं भेद[संपादित करें]

बेरोज़गारी का अस्तित्व श्रम की माँग और उसकी आपूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है। बेरोज़गारी के दो भेद हैं - असंतुलनात्मक (फ्रिक्शनल) तथा ऐच्छिक (वालंटरी)। ऐच्छिक बेरोजगारी का प्रभाव उस समय होता है जब मजदूर अपनी वास्तविक मजदूरी में कटौती को स्वीकार नहीं करता। समग्रत: बेरोजगारी श्रम की माँग और पूर्ति के बीच असंतुलित स्थिति का प्रतिफल है।

प्रोफेसर जे. एम. कीन्स "अनैच्छिक बेरोजगारी" को भी बेरोजगारी का भेद मानते हैं। "अनैच्छिक बेरोजगारी" की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है - 'जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से कम वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है, चाहे वह कम नकद मजदूरी स्वीकार करने के लिए तैयार न हो, तब इस अवस्था को अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।' यदि कोई व्यक्ति किसी उत्पादक व्यवसाय में कार्य करता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बेकार नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्णरूपेण रोजगार में लगा हुआ नहीं माना जाता जो आंशिक रूप से ही कार्य में लगे हैं अथवा उच्च कार्य की क्षमता रखते हुए भी निम्न प्रकार के लाभकारी व्यवसायों में कार्य करते हैं।

बेकारी के निदान के प्रयास[संपादित करें]

जापान में बेरोजगारी (१९५३ से २००९ तक)

सन् 1919 ई. में अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन के वाशिंगटन अधिवेशन ने बेरोजगारी अभिसमय (Unemployment convention) संबंधी एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण में प्रत्येक देश में सरकारी कामदिलाऊ अभिकरण स्थापित किए जाए। सन् 1931 ई. में भारत राजकीय श्रम के आयोग (Royal Commission on Labour) ने बेरोजगारी की समस्या पर विचार किया और निष्कर्ष रूप में कहा कि बेरोजगारी की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। यद्यपि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रमसंघ का "बेरोजगारी संबंधी" समझौता सन् 1921 ई. में स्वीकार कर लिया था परंतु इसके कार्यान्वयन में उसे दो दशक से भी अधिक का समय लग गया।

सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट में बेरोजगारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। 1942-1944 में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय (Directorate of Resettlement and Employment) की स्थापना की गई है। हम ये रोक सकते हैं।

बेरोजगारी के प्रकार[संपादित करें]

  • संरचनात्मक बेरोजगारी : सरचनात्मक बेरोजगारी वह बेरोजगारी है जो अर्थव्यवस्था मे होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होती है।
  • अल्प बेरोजगारी : अल्प बेरोजगारी वह स्थिति होती है जिसमें एक श्रमिक जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है। दूूसरे शब्दो में, वह एक वर्ष में कुछ महीने या प्रतिदिन कुछ घंटे बेकार रहता है। अल्प बेरोजगारी के दो प्रकार है-
    • दृष्य अल्प रोजगार: इस स्थिति में, लोगो को सामान्य घन्टों से कम घन्टे काम मिलता है।
    • अदृष्य अल्प रोजगार : इस स्थिति में, लोग पूरा दिन काम करते हैं पर उनकी आय बहुत कम होती है या उनको ऐसे काम करने पडते हैं जिनमें वे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर सकते।
  • खुली बेरोजगारी : उस स्थिति को कह्ते है जिसमे यद्यपि श्रमिक काम करने के लिये उत्सुक है और उसमें काम करने की आवश्यक योग्यता भी है तथापि उसे काम प्राप्त नही होता। वह पूरा समय बेकार रहता है। वह पूरी तरह से परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर आश्रित होता है। ऐसी बेरोजगारी प्राय: कृषि-श्रमिको, शिक्षित व्यक्तियों तथा उन लोगों में पायी जाती है। जो गावों से शहरी हिस्सों में काम की तलाश में आते हैं पर उन को कोई काम नही मिलता। यह बेरोजगारी का नग्न रूप है।
  • मौसमी बेरोजगारी: इसका अर्थ एक व्यक्ति को वर्ष के केवल मौसमी महीनो में काम प्राप्त होता है। भारत में कृषि क्षेत्र में यह आम बात है। इधर बुआई तथा कटाई के मौसमों में अधिक लोगों को काम मिल जाता है किन्तु शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि कोई किसान वर्ष में केवल एक ही फसल की बुआई करता है तो वह कुछ महिने तक बेकार रहता है। इस स्थिति को मौसमी बेरोजगारी माना जाता है।
  • चक्रीय बेरोजगारी : ऐसी बेरोजगारी तब उत्पन्न होती है जब अर्थव्यवस्था में चक्रीय ऊंच नीच आती है। तेजी, आर्थिक सुस्ती, आर्थिक मंदी तथा पुनरुत्थान चार अवस्थाएं या चक्र है जो एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं हैं। आर्थिक तेजी की अवस्था में आर्थिक क्रिया उच्च स्तर पर होती है तथा रोजगार का स्तर भी बहुत ऊंचा होता है। जब अर्थव्यवस्था में कुल ज़रुरत के घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
  • छिपी बेरोजगारी : छिपी बेरोजगारी से पीडित व्यक्ति वह होता है जो ऐसे दिखाई देता है जैसे कि वह काम में लगा हुआ है, परन्तु वास्तव में ऐसा नही होता।

जैसे कि किसी काम के लिए दस लोगों की अवश्यकता है परन्तु उससे ज्यादा होते हैं ऐसे अवसर में यह होता है |जेसे एक खेत में 10 लोग काम पूरा कर सकते हैं लेकिन उस खेत में उसी काम को 15 लोग कर रहे है तो वे 5 लोग फालतू मे ही काम पर लगे हुए है ्

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Acocella, Nicola (2007). Social pacts, employment and growth: a reappraisal of Ezio Tarantelli's thought. Heidelberg: Springer Verlag. ISBN 978-3-7908-1915-1.
  2. Anderson, Elizabeth (2017). Private Government: How Employers Rule Our Lives (and Why We Don't Talk about It). Princeton, NJ: Princeton University Press. ISBN 978-0-691-17651-2.
  3. Freeman, Richard B.; Goroff, Daniel L. (2009). Science and Engineering Careers in the United States: An Analysis of Markets and Employment. Chicago: University of Chicago Press. ISBN 978-0-226-26189-8.