बालूमाक्षिका ज्वर

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फ्लिबॉटोमस पापाटेसाइ, रक्तपान करते हुए

बालूमाक्षिका ज्वर (Sandfly Fever) अत्यंत सूक्ष्म विषाणु द्वारा होता है, जो फिल्टर के पार जा सकता है। यह तीव्र ज्वर संक्रामक होता है तथा अत्यंत दौर्बल्य छोड़ जाता है। फ्लिबॉटोमस पापाटेसाइ (Phlebotomus papatascii) नामक बालू की मादा मक्खी इसके विषाणु के वाहन का कार्य करती है। इसे फ्लिबॉटोमस ज्वर या पापाटेसाइ ज्वर भी कहते हैं।

परिचय[संपादित करें]

यह ज्वर पूर्वी गोलार्ध के नम प्रदेशों, विशेषकर भूमध्यसागर के आसपास, भारत के कुछ हिस्सों आदि, में विशेष रूप से फैला है। इस मक्खी की प्रजनन ऋतु के बाद ग्रीष्म में यह रोग अधिक फैलता है।

मादा बालूमक्खी जब इस रोग से पीड़ित व्यक्ति का रक्तपान करती है, तब इस ज्वर के विषाणु रक्त के साथ मक्खी के उदर में प्रविष्ट हो जाते हैं, जहाँ सात से दस दिनों के अंदर इनका उद्भवन होता है तथा इसके बाद वह बालूमक्खी जीवन पर्यंत रोगवाहिनी बनी रहती है। रोगी के रक्त में ये विषाणु सदैव नहीं रहते। केवल रोग के लक्षण प्रकट होने के 48 घंटे पूर्व से 24 घंटे बाद तक रहते हैं।

यह रोगवाहक मक्खी, जब किसी स्वस्थ व्यक्ति को काटती है तब इन विषाणुओं का एक समूह उसकी त्वचा के भीतर प्रविष्ट हो जाता है। वहाँ ये विषाणु शरीर की रक्षक सेना से लड़ते हैं तथा अपनी संख्यावृद्धि करते हैं। लगभग ढाई से पाँच दिनों के पश्चात्‌ व्यक्ति को यकायक सुस्ती, दौर्बल्य, चक्कर आना तथा उदर में कष्ट बोध होने लगता है। दूसरे दिन ठंडक के साथ ज्वर तीव्रता से 102° से 105° फारेनहाइट (38° सें. से 40-50° सें.) तक पहुँचता है। मस्तक के अग्र भाग में अत्यंत तीव्र पीड़ा, नेत्रगोलकों के पार्श्व में पीड़ा, मांसपेशियों तथा जोड़ों में दर्द, रक्ताभ मुखमंडल तथा तीव्र नाड़ीगति आदि, लक्षण ज्वर प्रकट हो जाते हैं। साधारणतया दो दिनों के पश्चात्‌ उतर जाता है, किंतु अत्यंत शैथिल्य और दौर्बल्य छोड़ जाता है। कुछ दिनों या सप्ताहों के पश्चात्‌ व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ होता है।

यह ज्वर घातक नहीं होता। चिकित्सा भी कोई विशेष नहीं, केवल लाक्षणिक ही है।

बालूमक्खी का नाश, उसके संपर्क से बचाव तथा रोगी का उचित पृथक्करण ही इस रोग से बचाव के साधन हैं। यह मक्खी अत्यंत सूक्ष्म होती है तथा मनुष्यों के निवास के पास ही पौधों, दरारों तथा अँधेरे स्थानों में अंडे देती है। इन अंडों में लार्वा उत्पन्न होते हैं, जो ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में मक्खी का रूप धारण कर लेते हैं। यह मक्खी केवल सूर्यास्त के पश्चात्‌ तथा सूर्योदय के पूर्व ही रक्तपान करती हैं तथा धरती के पास ही रहती है। ऊपरी खंड के शयनकक्ष कुछ सुरक्षित होते हैं। मसहरी अत्यंत बारीक जाली की होनी चाहिए। डाइमेथिल थैलेट, डाइब्यूटिल थैलेट, बेंज़ील बेंज़ीएट आदि औषधियाँ अनावृत त्वचा पर लगाने से भी मक्खी दूर रहती है। दीवारों आदि पर डी. डी. टी. के छिड़काव द्वारा रोगी के पास बालूमक्खी को पहुँचते से रोकना रोग से बचाव के लिए आवश्यक है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]