प्राकृतिक न्याय

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प्राकृतिक न्याय (Natural justice) न्याय सम्बन्धी एक दर्शन है जो कुछ विधिक मामलों में न्यायपूर्ण (just) या दोषरहित (fair) प्रक्रियाएं निर्धारित करने एवं उन्हे अपनाने के लिये उपयोग की जाती है। यह प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त से बहुत नजदीक सम्बन्ध रखती है।

आम कानून में 'प्राकृतिक न्याय' दो विशिष्ट कानूनी सिद्धांतों को संदर्भित करता है-

  • कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायधीश या निर्णायक नही रहेगा।
  • दूसरे पक्ष की दलील को सुने बिना निर्णय नही दिया जायेगा।

भारत के संविधान में कहीं भी प्राकृतिक न्याय का उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि भारतीय संविधान की उद्देशिका के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों को मजबूती से रखा गया है।

प्राकृतिक न्याय सिद्धांत मुख्यता दो बातों पर आधारित है: पहला किसी भी तरह के पूर्वाग्रह की तुलना में नियम का महत्व होना और दूसरा निष्पक्ष सुनवाई होना।

प्राकृतिक न्याय का पहला सिद्धान्त यह है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में किसी भी कारण से (जाति, भाषा, लिंग, आर्थिक स्थिति, धर्म या अन्य कुछ भी) के आधार पर पूर्व राय नहीं बनाई जानी चाहिए। यदि कोई न्यायाधीश किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर निर्णय करेगा तो इससे व्यक्ति के द्वारा किन परिस्थितियों में, किन कारणों या मंशा के साथ कोई कृत्य किया गया है या वह कृत्य किया ही नहीं गया है, यह कभी भी सामने नहीं आ पायेगा। इसी तरह यदि सरकार किसी समुदाय या संस्था के लिए किसी पूर्वाग्रह पर आधारित नियम या कानून बनाती है, तो उसमें “अन्याय” सन्निहित होगा ही।[1]


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