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प्रकाश का कणिका सिद्धान्त

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न्यूटन

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सबसे पहला, पूर्णत: वैज्ञानिक सिद्धांत विख्यात अँग्रेज वैज्ञानिक न्यूटन (सन्‌ 1642-1727) द्वारा प्रतिपादित हुआ था। इसमें यह माना गया था कि प्रदीप्त वस्तु में से प्रकाश अत्यंत सूक्ष्म एवं तीव्रगामी कणिकाओं के रूप में निकलता है। ये कणिकाएँ साधारण द्रव्य की नहीं होतीं, क्योंकि इनमें भार बिलकुल नहीं होता। विभिन्न रंगों के प्रकाश की कणिकाओं में भेद केवल उनके विस्तार का होता है : लाल प्रकाश की कणिकाएँ बड़ी होती हैं और बैंगनी की छोटी। इस परिकल्पना के द्वारा प्रकाश द्वारा उर्जा का संचारण, शून्यकाश में गमन, सरल रेखा गमन आदि बातें तो स्पष्ट: समझ में आ जाती हैं, क्योंकि ये घटनाएँ तो न्यूटन ही के सुप्रतिष्ठित गतिवैज्ञानिक नियमानुकूल हैं। इन कणिकाओं को पूर्णत: प्रत्यास्थी मान लेने से उन्हीं नियमों से परावर्तन के मुख्य नियम (परावर्तन कोण = आपतन कोण) की भी सरल व्याख्या हो जाती है, किंतु एक पदार्थ से दूसरे में प्रवेश करते समय प्रकाशकिरणों के मुड़ने (अपवर्तन या Refraction) की व्याख्या के लिये यह परिकल्पना बनानी पड़ी कि दोनों पदार्थो के पार्थक्यतल के निकटवर्ती प्रदेश में और उसकी अभिलंब दिशा में कणिका पर कुछ बल लगता है। जब यह बल आकर्षण बल होता है तब तो कणिकावेग का अभिलंब संघटक बढ़ जाता है और किरण अभिलंब की ओर मुड़ जाती है, यथा वायु से जल में जाते समय और जब पराकर्षण बल लगता है तब किरण विपरीत दिशा में मुड़ जाती है, यथा जल से वायु में जाते समय। इसी से अपवर्तन का नियम आपतन कोण की ज्या / अपवर्तन कोण की ज्या = अपवर्तनांक भी प्रमाणित हो जाता है। परावर्तन का कारण भी अत्यधिक पराकर्षण ही समझा जा सकता है। यह भी स्पष्ट है कि इस सिद्धांत के अनुसार वायु की अपेक्षा जल में प्रकाश का वेग अधिक होना चाहिए।

किंतु एक बात ऐसी थी जो इस सिद्धांत के द्वारा समझ में नहीं आई। प्रत्यक्ष अनुभव के अनुसार जब भी प्रकाश दो पदार्थो के पार्थक्यतल (इंटरफेस) पर पड़ता है, तो उसका अंश तो परावर्तित हो जाता है और कुछ द्वितीय पदार्थ में प्रवेश कर जाता है। इस यौगपदिक (साइमल्टैनिअस) परावर्तन और अपवर्तन के लिये आवश्यक है कि कुछ प्रकाश कणिकाओं पर तो पराकर्षण बल लगे और कुछ पर आर्कषण। यह कैसे संभव हो सकता है ? इस आपत्ति को दूर करने के लिये न्यूटन ने यह परिकल्पना बनाई कि प्रकाशकणिकाओं एक प्रकार का दौरा (fit) आता है, जिससे कभी वह आकृष्ट हो जाती है और कभी पराकृष्ट। ये दौरे क्यों आते हैं, इस संबंध से भी एक विचित्र कल्पना बनाई गई कि प्रकाश के गमन में सहायता करनेवाला वायु से भी हलका एक और माध्यम होता है जो वायु, जल, काच आदि प्रत्येक पदार्थ में भरा रहता है। पार्थक्यतल पर प्रकाशणिका की टक्कर से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं उन्हीं के कारण ये दौरे आते हैं। बॉसकोविच (Boscovich) तथा बिओ (Biot) ने इनका कारण यह बताया कि चुंबक के समान प्रकाशकणिका के दो ध्रुव होते हैं। एक पर आर्कषण बल लगता है तो दूसरे पर प्रतिकर्षण। अत: जैसा ध्रुव उस समय आगे होता है वैसा ही बल कणिका पर लग जाता है। किंतु व्यतिकरण (Interference) तथा ध्रुवण (Polarisation) की घटनाओं की व्याख्या इस सिद्धांत के द्वारा संभव नहीं हुई। और जब ठोस पदार्थो में प्रकाश का वेग प्रयोग द्वारा नाप लिया गया, तब इस सिद्धांत के विपरीत वह वायु की अपेक्षा जल में कम निकला; यह वैपरीत्य इस सिद्धांत के लिये घातक था। अत: इसका परित्याग करके तरंगसिद्धांत को मान्यता देनी पड़ी।

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