निवेश

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निवेश या विनियोग (investment) का सामान्य आशय ऐसे व्ययों से है जो उत्पादन क्षमता में वृद्धि लायें। या अपने पैसों को एक ऐसी जगह डालना जो आपको भविष्य में कुछ रिटर्न कमा कर दें सके, निवेश कहलाता है | यह तात्कालिक उपभोग व्यय या ऐसे व्ययों संबंधित नहीं है जो उत्पादन के दौरान समाप्त हो जाए। निवेश शब्द का कई मिलते जुलते अर्थों में अर्थशास्त्र, वित्त तथा व्यापार-प्रबन्धन आदि क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है। यह पद बचत करने और उपभोग में कटौती या देरी के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। निवेश के उदाहरण हैं- किसी बैंक में पूंजी जमा करना, या परिसंपत्ति खरीदने जैसे कार्य जो भविष्य में लाभ पाने की दृष्टि से किये जाते हैं। सामान्यतः इसे किसी वर्ष में पूँजी स्टॉक में होने वाली वृद्धि के रूप में परिभाषित करते हैं। संचित निवेश या विनियोग ही पूँजी है।[1] जैसे मान लीजिये आपके पास 500 रुपये की धनराशी है, जिसका उपयोग कर आपने कोई सम्पति ले लिया है  जो अगले 2 सालों में बढ़कर 800 की हो जाती है तो इस प्रकार सम्पति खरीदना एक प्रकार का निवेश कहलायेगा |

निवेश आय का वह भाग है जो वास्तविक पूंजी निर्माण के लिये खर्च किया जाता है। इसमें नए पूंजीगत उपकरणों तथा मशीनों, नई इमारतों का निर्माण, स्टॉक में वृद्धि आदि को शामिल किया जाता है। केन्ज के अनुसार, "निवेश से अभिप्राय पूंजीगत पदार्थों में होने वाली वृद्धि से है।" प्रत्येक अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास और पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये निवेश का बहुत अधिक महत्व है। निवेश में वृद्धि होने के कारण कुल मांग में ही नहीं बल्कि कुल पूर्ति में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार पूर्ण रोजगार को प्राप्त करने के लिये निवेश एक महत्वपूर्ण तत्व है।

प्रेरित निवेश और स्वचालित निवेश[संपादित करें]

निवेश को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। लेकिन आर्थिक दृष्टिकोण से निवेश को दो भागों में बांटा जा सकता हैः

प्रेरित निवेश[संपादित करें]

प्रेरित निवेश वह निवेश है जो आय तथा लाभ की मात्रा पर निर्भर करता है। यह निवेश आय तथा लाभ में होने वाले परिवर्तनों से प्रेरणा प्राप्त करता है। आय तथा लाभ के बढ़ने की सम्भावना से यह बढ़ता है तथा इसमें होने वाली कमी से यह कम होता जाता है। प्रेरित निवेश लाभ या आय सापेक्ष होता है। प्रेरित निवेश प्रायः निजी क्षेत्र में किया जाता है।

स्वचालित निवेश[संपादित करें]

स्वचालित निवेश वह निवेश है जो आय तथा उत्पादन की मात्रा के स्थान पर बाहरी तत्वों पर निर्भर करता है। यह निवेश आय प्रेरित नहीं होता। इस प्रकार यह निवेश आय में होने वाले परिवर्तन के आधार पर नहीं किया जाता है। इससे अभिप्राय उस निवेश से है जो नई तकनीकों, नये आविष्कारों को लागू करने के लिये लगाया जाता है। यह निवेश मन्दी तथा बेरोजगारी को दूर करने तथा नये साधनों का विकास करने के लिये किया जाता है।

प्रेरित निवेश और स्वचालित निवेश में आधारभूत अन्तर यह है कि प्रेरित निवेश का आय के स्तर से धनात्मक सम्बन्ध है। आय के बढ़ रहे स्तर के साथ प्रेरित निवेश भी बढ़ता है। लेकिन स्वचालित निवेश आय के किसी भी स्तर पर स्थिर रहता है। प्रेरित निवेश की भांति स्वचालित निवेश लाभ

प्रेरित[संपादित करें]

निवेश को प्रभावित करने वाले तत्व[संपादित करें]

एक अर्थव्यवस्था में निवेश को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्व इस प्रकार से हैः

1. तकनीकि विकास तथा नये आविष्कार

2. प्राकृतिक साधनों की खोज

3. सरकारी नीतियां

4. विदेशी व्यापार

5. राजनीतिक वातावरण

6. भविष्य में लाभ प्राप्ति की सम्भावनाएं

7. जनसंख्या वृद्धि की दर

8. क्षेत्रीय विस्तार

9. कीमत स्तर

10 गुणक की अवधि

11. निवेश के लिए वित्त की उपलब्धता

12. श्रम बाजार की स्थिति

13. पूंजी का वर्तमान स्टॉक

14. कुल मांग में कमी या वृ़द्ध की सम्भावना

निवेश गुणक[संपादित करें]

अर्थशास्त्र में गुणक का प्रयोग सबसे पहले 1931 में आर. एफ. काहन ने अपने लेख 'The Relation for Home Investment to Unemployment' में किया था जिसे रोजगार गुणक कहा जाता है। केन्ज ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'The General Theory of Employment, Interest and Money' (1936) में निवेश गुणक का प्रतिपादन किया है।

गुणक से अभिप्राय निवेश में होने वाले परिवर्तन के कारण आय में होने वाले परिवर्तन से है। जब निवेश में वृद्धि होती है तो आय में उतनी ही वृद्धि नहीं होती जितनी के निवेश में वृद्धि हुई है बल्कि आय में निवेश की वृद्धि की तुलना में कई गुणा अधिक वृद्धि होती है। जितने गुणा यह वृद्धि होती है उसे ही गुणक कहते है।

केन्ज का गुणक का सिद्धान्त निवेश तथा आय में सम्बन्ध स्थापित करता है। इसलिए इसे निवेश गुणक कहते है। केन्ज के अनुसार, “निवेश गुणक से ज्ञात होता है कि जब कुल निवेश में वृद्धि की जाएगी तो आय में जो वृद्धि होगी वह निवेश में होने वाली वृद्धि से ज्ञ गुणा अधिक होगी।“ अन्य शब्दों में, गुणक की धारणा निवेश में प्रारम्भिक परिवर्तन से परिणामस्वरुप आय में होने वाले अन्तिम परिवर्तन के सम्बन्ध को व्यक्त करती है।

निवेश गुणक की प्रक्रिया[संपादित करें]

गुणक की प्रक्रिया का विश्लेषण दो प्रकार से किया जा सकता हैः

तुलनात्मक स्थैतिक विश्लेषण[संपादित करें]

केन्ज की गुणक की धारणा तुलनात्मक स्थैतिक धारणा है जो बताती है कि निवेश में होने वाले परिवर्तन के कारण आय में अन्तिम रूप से कितना परिवर्तन होगा। तुलनात्मक स्थैतिक विश्लेषण में गुणक प्रक्रिया दो प्रकार होती हैः

  • (१) गुणक की अनुकूल प्रक्रिया (Forward Action of the Multiplier) गुणक की अनुकूल प्रक्रिया के अन्तर्गत निवेश में होने वाली वृद्धि के कारण आय में कई गुणा अधिक वृद्धि होती है।
  • (२) गुणक की प्रतिकूल प्रक्रिया (Backard Action fo the Multiplier) गुणक की प्रतिकूल प्रक्रिया के अन्तर्गत निवेश में प्रारम्भिक कमी के कारण आय में कई गुणा अधिक कमी होती है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गुणक दोधारी तलवार है। गुणक के कारण निवेश में होने वाली वृद्धि के कारण जहां आय में कई गुणा वृद्धि होती है उसी प्रकार निवेश में कमी होने के कारण आय में कई गुणा अधिक कमी होती है।

गत्यात्मक विश्लेषण[संपादित करें]

केन्ज की गुणक धारणा से यह तो पता चलता है कि निवेश में वृद्धि होने से आय में कितने गुणा वृद्धि होती है। लेकिन यह पता नहीं चलता कि यह वृद्धि कैसे और किस समय अन्तर से होती है। आधुनिक अर्थशास्त्री गुणक का गत्यात्मक रुप में अध्ययन करते हैं। निवेश में परिवर्तन से आय में परिवर्तन के बीच जो समय अन्तराल (Time Lag) होता है उस दौरान अन्य तत्वों जैसे निवेश, उपभोग व्यय आदि में वृद्धि होती है जिसका प्रभाव आय पर पड़ता है। इस प्रकार का गुणक अल्पकालीन और दीर्घकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखता है। हैन्सन ने इसे वास्तविक गुणक (True Multiplier) कहा है।

गुणक के सिद्धान्त का महत्व[संपादित करें]

गुणक के सिद्धान्त का सैद्धान्तिक महत्व के साथ-साथ व्यावहारिक महत्व भी काफी अधिक है। रोजगार के सिद्धान्त में इस धारणा का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता हैः

1. आय प्रजननः गुणक की धारणा से यह पता चलता है कि आय प्रजनन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और रोजगार, आय और उत्पादन में वृद्धि निवेश में होने वाली वृद्धि के कारण होती है।

2. निवेश का महत्वः गुणक के अध्ययन से निवेश का महत्व स्पष्ट हो जाता है। निवेश में की जाने वाली प्रारम्भिक वृद्धि के फलस्वरुप ही आय में कई गुणा अधिक वृद्धि होती है।

3. व्यापार चक्रः मन्दी और तेजी का अवस्था अर्थात्व्यापार चक्रों को गुणक की सहायता से समझने में मदद मिलती है।

4. पूर्ण रोजगारः पूर्ण रोजगार के सम्बन्ध में नीति बनाने में गुणक की धारणा काफी महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है।

5. बचत और निवेश में सन्तुलनः केन्ज के रोजगार सिद्धान्त में सन्तुलन की अवस्था वहीं पर निर्धारित होती है जहां बचत और निवेश एक दूसरे के बराबर होते है। बचत और निवेश में सन्तुलन की अवस्था प्राप्त करने के लिए गुणक की धारणा लाभप्रद सिद्ध हो सकती है।

6. सार्वजनिक निवेशः गुणक की धारणा का प्रयोग केन्ज ने सार्वजनिक निवेश अर्थात् सरकार द्वारा किये गये निवेश के महत्व को स्पष्ट करने के लिए भी किया है।

गुणक की आलोचनाएं[संपादित करें]

गुणक के सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाओं की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती हैः

1. निवेश और आय में कोई स्पष्ट, पूर्वनिश्चित या यान्त्रिक सम्बन्ध नहीं है जैसा कि केन्ज की गुणक धारणा में माना गया है।

2. गुणक के सिद्धान्त की इसलिए भी आलोचना की है क्योंकि गलत है और निवेश की समानता के सम्बन्ध में केन्ज के जो धारणा दी है, गुणक का सिद्धान्त उसका ही विरोधी है।

3. यह भी आलोचना की गई है कि उपभोग केवल आय पर ही निर्भर नही करता है बल्कि उस पर दूसरे तत्वों का भी प्रभाव पड़ता है।

4. इस सिद्धान्त में त्वरक के प्रभाव की अवहेलना की गयी है जबकि त्वरक के कारण गुणक का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता है।

5. घाटे की वित्त व्यवस्था को अनावश्यक अधिक महत्व दिया गया है क्योंकि मुख्य रुप से यह एक राजनैतिक उपाय है जिसका सरकार अक्सर गलत प्रयोग करती है।

निवेश के सिद्धान्त[संपादित करें]

निवेश के सिद्धान्तों के रुप में यहां पर पूंजी की सीमान्त उत्पादकता और निवेश के त्वरक सिद्धान्त का वर्णन भी आवश्यक हो जाता है।

पूंजी की सीमान्त उत्पादकता[संपादित करें]

इरविंग फिशर नें 1930 में पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का प्रयोग ‘लागत पर प्राप्त प्रतिफल की दर’ के रुप में किया। पूंजी की सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय नए निवेश से प्राप्त होने वाले लाभ की अनुमानित दर से है। डिल्लर्ड के अनुसार, "किसी पूंजीगत पदार्थ की अतिरिक्त या सीमान्त इकाई के लगाने से लागत पर आय की जो अधिकतम दर प्राप्त होती है उसे पूंजी की सीमान्त उत्पादकता कहा जाता है।" इस प्रकारपूंजी की सीमान्त उत्पादकतासे अभिप्राय पूंजी की अतिरिक्त इकाई से प्राप्त होने वाले प्रतिफल में से लागत निकालने के बाद प्राप्त हुई आय से होता है।

पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का निर्धारण अनुमानित आय तथा पूर्ति कीमत पर निर्भर करता है। पूंजी की सीमान्त उत्पादकता के इन दोनों तत्वों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती हैः

अनुमानित आय

अनुमानित आय से अभिप्राय उस कुल आय से होता है जिसका किसी पूंजीगत पदार्थ का प्रयोग करने से उसके कार्य की कुल अवधि में प्राप्त होने का अनुमान होता है।

पूर्ति कीमत

पूर्ति कीमत से अभिप्राय वर्तमान पूंजीगत पदार्थ की कीमत से नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि वर्तमान पूंजीगत पदार्थ अर्थात् मशीन के स्थान पर बिल्कुल उसी प्रकार की नई मशीन की लागत क्या होगी।

किसी विशेष पूंजीगत पदार्थ की सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय उस अनुमानित आय की दर से है जो पूंजी पदार्थ की एक नई या अतिरिक्त इकाई के लगाने से प्राप्त होती है। इसके विपरीत पूंजी की सामान्य सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय सबसे लाभदायक पूंजी की नई इकाई से प्राप्त होने वाली अनुमानित आय की दर होती है। दूसरे शब्दों में, पूंजी की सामान्य सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय अर्थव्यवस्था के सबसे अधिक लाभपूर्ण पूंजीगत पदार्थ की उच्चतम सीमान्त उत्पादकता से होता है।

पूंजी की सीमान्त उत्पादकता को प्रभावित करने वाले तत्व[संपादित करें]

पूंजी की सीमान्त उत्पादकताको प्रभावित करने वाले तत्वों को मुख्य रुप से दो भागों में बाटा जा सकता हैः

अल्पकालीन तत्व

पूंजी की सीमान्त उत्पादकताको प्रभावित करने वालेतत्वों में अल्पकालीन तत्व इस प्रकार हैः 1. बाजार का आकार 2. लागत तथा कीमत सम्बन्धी भावी सम्भावनाएं 3. उपभोग प्रवृति में परिवर्तन 4. उद्यमियों की मनोवैज्ञानिक अवस्था 5. आय में परिवर्तन 6. कर नीति में सुधार 7. पूंजी पदार्थों का वर्तमान भण्डार 8. तरल परिसम्पत्तियों में परिवर्तन 9. भविष्य में लाभ की सम्भावनाएं 10. वर्तमान पूंजीगत पदार्थों की उत्पादन क्षमता 11. वर्तमान निवेश की मात्रा 12. पूंजीगत पदार्थ से वर्तमान में होने वाली आय

दीर्घकालीन तत्व

पूंजी की सीमान्त उत्पादकताको प्रभावित करने वाले तत्वों में दीर्घकालीन तत्व इस प्रकार हैः

1. जनसंख्या 2. सरकार की आर्थिक नीति 3. तकनीकी विकास 4. असामान्य परिस्थितियां 5. नये क्षेत्रों का विकास 6. पूंजी उपकरण की पूर्ति में परिवर्तन 7. मांग में दीर्घकालीन वृद्धि

पूंजी की सीमान्त उत्पादकता की आलोचनाएँ[संपादित करें]

पूंजी की सीमान्त उत्पादकता की धारणा की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जा सकती हैः 1. केन्ज ने पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का प्रयोग इतने विभिन्न अर्थों में किया है किपूंजी की सीमान्त उत्पादकताको एक अस्पष्ट और जटिल धारणा बना दिया है। 2. केन्ज के इस विचार की भी आलोचना की जाती है कि आशंसाओं का पूंजी की सीमान्त उत्पादकता से तो सम्बन्ध है परन्तु ब्याज की दर से नहीं है। उन्होंने इस प्रकार से पूंजी की सीमान्त उत्पादकता को गतिशील अर्थशास्त्र और ब्याज की दर को गतिहीन अर्थशास्त्र के क्षेत्र में सम्मिलित किया है। यह दृष्टिकोण वास्तविक नहीं है। 3. पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का तब तक अनुमान नहीं लगाया जा सकता जब तक हमें उत्पादन के सभी साधनों की उत्पादकता का ज्ञान न हो। 4. केन्ज ने पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का अनुमान पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर लगाया है।

त्वरक सिद्धान्त[संपादित करें]

साँचा:मुख्य:त्वरक प्रभाव (अर्थशास्त्र) त्वरक के सिद्धान्त का अर्थशास्त्र में सबसे पहले 1907 में अफ्तालियन ने प्रयोग किया। त्वरक सिद्धान्त वह सिद्धान्त है जो आय में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरुप शुद्ध निवेश या पूंजी में होने वाले परिवर्तन को बताता है अर्थात् त्वरक पूंजी में होने वाले परिवर्तन तथा आय में होने वाले परिवर्तन का अनुपात है।

पीटरसन के अनुसार, "त्वरक सिद्धान्त से ज्ञात होता है कि शुद्ध निवेश अर्थात् अर्थव्यवस्था की पूंजी के स्टॉक की परिवर्तन दर अन्तिम उत्पादन की परिवर्तन दर की फलन है।"

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 20 जून 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जून 2012.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]