द्वंद्वयुद्ध
दो विरोधी व्यक्तियों या दलों के बीच, पूर्वनिश्चित तथा जाने माने नियमों के अनुसार प्रचलित शस्त्रों द्वारा युद्ध को द्वंद्वयुद्ध कहते हैं। ऐसे युद्ध प्राचीन काल में बहुत से देशों में प्रचलित थे। इनके प्रचलन के मूल में यह विश्वास था कि इन युद्धों में ईश्वर उसी को जिताता है जिसके पक्ष में न्याय होता है।
इतिहास
[संपादित करें]भारत में ऐसे युद्ध धर्मयुद्ध समझे जाते थे। वैदिक काल में द्वंद्वयुद्धों का प्रचलन था। उत्तर वैदिक काल में इनके संबंध में नए नियम बनाकर पूर्वप्रचलित प्रथा में सुधार किया गया। रामायण और महाभारत में द्वंद्वयुद्धों के अनेक उल्लेख हैं। राम रावण, बालि सुग्रीव तथा दुर्योधन और भीम के युद्ध इसके उदाहरण हैं। परवर्ती काल में भी इन युद्धों का यथेष्ट प्रचलन था। क्षत्रियों के बीच जो बातें अन्य प्रकार से नहीं सुलझाई जा सकती थीं उनके निर्णय के लिए यह रीति अपनाई जाती थी। बहुधा ऐसा होता था कि युद्ध के लिए सेना लेकर दो राजाओं के आमने सामने खड़े होने पर, रक्तपात बचाने के लिए यह निश्चय किया जाता था कि विरोधी सेनाओं में से एक एक, या निश्चित बराबर संख्याओं में, योद्धा आपस में धर्मयुद्ध से लड़ें और जिस पक्ष का योद्धा जीते उसी की जीत मानी जाए। कभी कभी सैनिकों को न लड़ाकर एक राजा वा सेनापति दूसरे को युद्ध के लिए ललकारता और इस जोड़े की हार जीत से राज्यों के झगड़े का निपटारा हो जाता था। यह रीति दक्षिण भारत के हिंदू राजाओं में कुछ सौ वर्ष पूर्व तक प्रचलित थी।[1]
अन्य देशों में भी द्वंद्वयुद्ध का प्रचलन इसी विश्वास के कारण हुआ कि यह ईश्वरीय न्याय की रीति है, किंतु जापान से आरयलैंड तक तथा भूमध्यसागर से उत्तरी अक्षांशों तक किसी न किसी रूप में स्वीकृत होते हुए भी यह सर्वत्र प्रचलित नहीं था। यूरोप के प्राचीन पंडितों के अनुसार बाइबिल में वर्णित डेविड और गोलियथ (Goliath) का न्यायुद्ध ईश्वरानुमोदित था। इस आधार पर द्वंद्वयुद्धों का औचित्य मध्ययुग में स्वीकार किया जाता था। अतिप्राचीन काल से आदिष्ट द्वंद्वयुद्ध के यूरोप में प्रांरभ का ठीक पता नहीं चलता, किंतु इलियड में वर्णित मेनेलेअस (Menelaus) और पैरिस (Paris) इस प्रसिद्ध युद्ध के आरंभ में संपादित विस्तृत विधियों से इस ग्रंथ के लेखक यूनानी कवि होमर (काल ई.पू. ८४० या इससे पूर्व) के समय प्रचलित इस संबंध के शिष्टाचार की प्रथाओं और प्राचीन रीतियों का पता चलता है।[2]
द्वंद्वयुद्ध की प्रथा का प्रचलन प्राचीन इटली में अंब्रिया (Umbria) प्रदेश के निवासियों तथा स्लाव जातियों में भी होने के प्रमाण मिलते हैं। किंतु रोम राज्य में इसकी प्रथा न थी, वरन् रोमवासी इसे असभ्य लोगों का चलन समझते थे। परंतु इस काल में भी प्रसिद्ध रोमन सेनापति, सिपिओ ऐ्फ्रकैनस (Scipio Africanus, ई.पू. २३७-१८३) ने ईसा पूर्व २०३ में इस स्पेन में प्रचलित पाया था। प्राचीन जर्मन जातियों में भी इसका प्रचलन था। जिन सामरिक परंपराओं से यूरोप में सामंतवाद तथा शूर वीरों के युग का विकास हुआ उन्हीं के कारण, रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात्, द्वंद्वयुद्ध ने भी समस्त यूरोप में सन् ८१४ से ८४० तक साम्राज्य स्थापित करनेवाले लुइ ल डेबोनेयर के राज्य में यदि कोई किसी पर दोष लगाता और प्रतिवादी उसे अस्वीकृत करता तो न्यायाधीश द्वंद्वयुद्ध की आज्ञा देता था। इसमें संदेह नहीं कि द्वंद्वयुद्धों की भावना के मूल में साहस पर आधारित निजी प्रतिष्ठा और सम्मान का भाव भी था। यदि ललकारा हुआ व्यक्ति युद्ध करना स्वीकार नहीं करता था तो वह कायर तथा हीन समझा जाता था।
यूरोप में १६वीं सदी के मध्य तक द्वंद्वयुद्ध से न्याय की प्रथा साधारणत: विधिसंमत थी। सीमित क्षेत्रों में खड़े होकर ये युद्ध लड़े जाते थे तथा निश्चित विधियों और कड़े नियमों से बँधे होते थे। एक सर्वप्रचलित नियम के अनुसार, जिस मनुष्य को ललकारा जाता था उसी को हथियारों के चुनने का अधिकार होता था। एक अन्य नियमानुसार किसी प्रकार के जादू टोने की, अथवा मित्रों तथा दर्शकों से किसी प्रकार की, सहायता वर्जित थी। इस प्रकार के युद्ध में यद्यपि द्वंद्व शब्द का प्रयोग किया जाता है, तथापि भारत के सदृश यूरोप में भी कभी कभी युद्धरत प्रत्येक पक्ष में अनेक मनुष्य होते थे। इस प्रकार एक युद्ध सन् १३९६ में स्कॉटलैंड की के (Kay) और चैटेन (Chattan) जातियों में, राजा रॉबर्ट तीसरे के सम्मुख हुआ था। इसमें प्रत्येक पक्ष के ३० योद्धा तब तक लड़ते रहे जब तक एक पक्ष में केवल १० मनुष्य जीवित बच रहे।
फ्रांस में हेनरी द्वितीय ने सन् १५४७ में, राजा या न्यायाधिकारी के सम्मुख होनेवाले न्यायिक द्वंद्वयुद्ध बंद करा दिए। इसके प्रतिक्रियास्वरूप निजी द्वंद्वयुद्धों की तथा इनमें मृत्यु पर्यंत लड़ने की परिपाटी चल पड़ी। ऐसे युद्धों में लड़नेवालों के साथ दो या अधिक मित्र भी यह देखने के लिए रहते थे कि कोई अनियमितता या अन्याय न होने पाए। सन् १५७८ में ्फ्रांस के राजा के प्रियपात्र केलस (Quelus) तथा गीज़ के ड्यूक (Duke of Guise) के कृपाभाजन सियर डे ड्यून्स (Sieur de Dunes) में द्वंद्वयुद्ध हुआ। इसकी पृष्ठभूमि राजनीतिक होने के कारण दोनों ओर से जो मित्र निरीक्षक हाकर आए थे उनमें भी आपस में युद्ध ठन गया। फलत: इन मित्रों में से दो खेत रहे। एक की मृत्यु बाद में हुई तथा चौथा गंभीर रूप से आहत हुआ। इस घटना ने निरीक्षकों (seconds) के भी द्वंद्वयुद्ध में भाग लेने की प्रथा को, जो आगे लगभग ७५ वर्षों तक चालू रही, यूरोप भर में जन्म दिया।
१६वीं और १७वीं शतियों में यूरोप के अधिकांश देशों में द्वंद्वयुद्ध के विरोध में अनेक कानून बनाए गए, किंतु ललकारे जाने पर युद्ध से मुख मोड़ना कायरता समझा जाता था, समाज में ऐसे युद्धों का बहु प्रचलन हो गया था तथा केंद्रीय राजशक्ति सीमित होती थी। इन कारणों से ये रोके न जा सके। किंतु सन् १६४३ में लुई १४वें के फ्रांस के सिंहासन पर आरूढ़ होने पर अवस्था बदल गई, क्योंकि उसने ऐसे युद्धों में भाग लेनेवालों के लिए मृत्युदंड नियत कर दिया था। तब प्रकाश्य रूप से इस प्रकार के युद्ध बंद हो गए, पर वे दूसरे रूप में चलते रहे। द्वंद्वयुद्ध के इच्छुक उस समय प्रचलित छोटी तलवारों को लेकर बिना किसी को जताए, किसी सुनसान स्थान में अकेले भिड़ जाते थे और यदि इनमें से कोई मारा जाता तो कानून से बचने के लिए दूसरा यह कहकर अपनी जान बचा लेता कि यह कृत्य आत्मरक्षा में हुआ है। पर जब इस प्रथा की आड़ में हत्याएँ होने लगीं तो निर्जन स्थान में द्वंद्वयुद्ध होना बंद हो गया और निरीक्षकों की प्रथा फिर चल पड़ी, पर ये स्वयं नहीं लड़ते थे।
१९वीं शती तक तलवारों से लड़ने का चलन था। तब तक इन युद्धों में नियमों का कड़ाई से पालन करना आवश्यक कर दिया गया था तथा फ्रांस में ज्यों ही रक्तपात हुआ, युद्ध बंद कर दिया जाता था। इस प्रकार इन युद्धों में विशेष हानि की संभावना नहीं रह गई। इस समय तथा बाद में भी जर्मनी के विद्यार्थियों में एक विशेष प्रकार की तलवार से द्वंद्व युद्ध का चलन था, पर इसमें शरीररक्षा के साधनों, जैसे कवच इत्यादि, का उपयोग होता था और घाव लगे भी तो वह साधारणत: उपरिष्ठ होता था।
इन युद्धों में पिस्तौलों का प्रयोग १८वीं शती के मध्य से आरंभ हुआ। प्रारंभ से यह प्रथा थी कि तलवार तथा खंजर से सुसज्जित घुड़सवार प्रतिद्वंद्वी, हाथों में भरी हुई पिस्तौल लिए, एक दूसरे पर झपट पड़ते थे तथा पास से गुजरते समय एक दूसरे पर पिस्तौल चलाते थे। यदि दोनों योद्धा जीवित बच जाते तो लौटकर वे तलवार और खंजर से युद्ध करते थे। सन् १७८० तक भूमि पर खड़े होकर पिस्तौल से द्वंद्व युद्ध लड़ना भली भाँति प्रचलित हो गया था और इस कार्य के लिए विशेष प्रकार के पिस्तौल बनाए जाने लगे थे। इंग्लैंड में इस प्रकार के युद्ध का सर्वाधिक प्रचलन जॉर्ज चतुर्थ के राज्यकाल में हुआ, जब वेलिंगटन के ड्यूक, लॉर्ड विंचिल्सी, लंदनडेरी के मार्क्विस तथा प्रसिद्ध बाँके जवान, बो ब्रमेल, भी द्वंद्वयुद्ध के क्षेत्र में उतरे थे। इस प्रकार के युद्धों में हताहतों की संख्या का अनुमान सन् १८३६ में लिखे एक लेख से लगता है, जिसके लेखक के अनुसार पिस्तौल के दो सौ से ऊपर पंजीकृत द्वंद्वयुद्धों में प्रत्येक छह मनुष्यों में से एक घायल पाया गया तथा प्रति १३ मनुष्यों में से एक की मृत्यु हुई।
इस प्रकार के युद्धों के दुष्प्रयोग तथा दुष्परिणाम समझदार लोगों के संमुख दीर्घकाल से स्पष्ट हो रहे थे। यूरोप के विभिन्न देशों में इनको रोकने के लिए नियम बनाया गया कि द्वंद्वयुद्ध के अपराधियों को पदच्युत कर दिया जाए। इसका प्रभाव यह हुआ कि इंग्लैड के सैनिक तथा असैनिक दोनों प्रकार के नागरिकों में इसका चलन बंद हो गया। सन् १८५० के लगभग अन्य सब देशों से भी यह प्रथा उठ गई।[3]
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 14 अक्तूबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अगस्त 2018.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 29 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अगस्त 2018.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 29 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 अगस्त 2018.
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- Ahn, Tom, Sandford, Jeremy, and Paul Shea. 2010. "Mend it, Don't End it: Optimal Mortality in Affairs of Honor" mimeo
- Allen, Douglas, W., and Reed, Clyde, G., 2006, "The Duel of Honor: Screening for Unobservable Social Capital," American Law and Economics Review: 1–35.
- "Duels and Dueling on the Web", "...a comprehensive guide and web directory to pistol and sword duelling in history, literature and film..."
- Kingston, Christopher G., and Wright, Robert E. "The Deadliest of Games: The Institution of Deuling[मृत कड़ियाँ]" Dept. of Econ, Amherst College, Stern School of Business, NY Univ.