चक्रधरस्वामी
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श्रीचक्रधर स्वामी १२वीं शताब्दी के एक तत्त्वज्ञ, समाजसुधारक,महानुभाव पंथ के संस्थापक हैं। महानुभाव धर्मानुयायी उन्हें ईश्वर का अवतार मानते हैं।(लीलाचरित्र) लीलाचरित्र के प्रस्तावना में भगवान सर्वज्ञ श्री चक्रधर स्वामी के प्रारंभिक जीवन की जानकारी मिलती हैं। बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, गुजरात के भड़ोच में, शक 1142 विक्रम संवत्सर भाद्रपद,शुक्रवार को सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामीजी ने अवतार लिया। उनके पिता विशालदेव भड़ोच के राजा मल्लदेव के मुखिया थे। उनकी माता का नाम मालनदेवी था। सर्वज्ञ श्रीचक्रधर स्वामीजी के जन्म का नाम हरीपालदेव था।
हरीपालदेव का विवाह कमलाइसा से हो गया। इस अवधि के दौरान, उन्होंने युद्धों में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। [1] कई बार वह महल छोड़कर बीमार लोगों के साथ समय बिताते थे। बाद में उनकी तबीयत बिगड़ी और उनका देहांत हो गया। लेकिन अंतिम संस्कार के बाद हरपालदेव फिरसे जीवित पाए गए। कुलीनों की मान्यताओं के अनुसार इस बार भगवान श्रीकृष्ण ने उनके शरीर में प्रवेश किया और अवतार लिया। पंचावतार के तीसरे अवतार श्रीचांगदेव राउल की मृत्यु लगभग उसी समय हुई थी। कुछ एक के अनुसार, उनकी आत्मा हरपालदेव के शरीर में प्रवेश कर गई। हरपालदेव के शरीर में प्रवेश करने वाली आत्मा कोई साधारण नहीं अपितु स्वतंत्र परम आत्मा थी। [2]
इस घटना के बाद हरिपालदेव की जिंदगी पहले की तरह शुरू हो गई। उनका एक बेटा भी था। वह बीमारों की सेवा करते रहे। एक दिन कुछ रोगियों के सेवा के लिए पैसे उधार लेने पड़े। वह पैसे वापस कर्ज़दारों को देने के बाद ही भोजन करेंगे ऐसी उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली।इसके लिए उन्होंने अपनी पत्नी से ज़ेवर माँग लिए। पत्नी ने जेवर देने से मना कर दिया। आखिरकार, उनके पिता ने अनजाने में कर्जदार को पैसे लौटा दिए। [3]इस घटना हरिपालदेव के दिमाग़ में बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। संसार की वास्तविकता उनके आँखों के सामने विस्तारित हो गयी।इस घटना ने उनको जागृत किया। उन्होंने तबसे सांसारिक सुखों को त्याग कर जनसेवा करने का निश्चय किया।
हरपालदेव ने घर पर कहा कि वह रामयात्रा करने के लिए रामटेक जाना चाहते हैं। उस समय महाराष्ट्र के यादव और भड़ौच राज्य में झगड़ा हुआ था। इसलिए उनके पिता ने इस विचार का विरोध किया। लेकिन अंत में हरपालदेव ने अपने पिता को मना लिया और उनके पिता ने उन्हें घुड़सवार सेना और नौकरों के साथ सुरक्षा के लिए जाने की अनुमति दी। वे सब कुछ त्याग देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक ही पड़ाव से अलग-अलग सैनिकों को उनकी भलाई की रिपोर्ट करने के लिए वापस भेजना शुरू कर दिया। अंत में अमरावती जिले के देउलवाड़ा में काजलेश्वर के मंदिर में रहते हुए, यह देखकर कि उनके सैनिक सो रहे थे, उन्होंने अपने शाही वस्त्र उतार दिए और दो वस्त्र लेकर चले गए। [4]
हरपालदेव सब कुछ त्याग कर रिद्धिपुर आए। वहाँ उन्होंने श्री गोविंदप्रभु को उदासीनता की स्थिति में देखा। गोविंदप्रभु से हरपालदेव को ज्ञानशक्ति मिली। [4] उसी समय गोविंदप्रभु ने उन्हें श्रीचक्रधर नाम दिया। [5]