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गैसनिर्माण

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गैसनिर्माण दो उद्देश्यों से होता है। कुछ गैसें प्रकाश उत्पन्न करने के लिये बनाई जाती हैं। ऐसी गैसों को "प्रदीपक गैस" कहते हैं। कुछ गैसें ईंधन के लिये बनाई जाती हैं। ऐसी गैसों को "तापन गैस" कहते हैं। दोनों किस्म की गैसें "दाह्म गैस" हैं। इन्हें "औद्योगिक गैस" भी कहते हैं।

गैसनिर्माण के एक संयंत्र की रूपरेखा (IGCC = इंटीग्रेटेड गैसीफिकेशन कम्बाइंद सायकिल)

1792 ई. में इंग्लैंड के मुरडोक ने गैस उद्योग की नींव डाली, तब उन्होंने बताया कि प्रकाश उत्पन्न करने के लिये गैस का व्यवहार हो सकता है। 1812 ई. में लंदन, 1815 ई. में पैरिस और 1826 ई. में बरलिन की सड़कों को प्रकाशित करने के लिये प्रदीपक गैस का व्यवहार शु डिग्री हुआ। पीछे गैस बड़ी मात्रा में बनने लगी और छोटे-छोटे नगर भी गैस के प्रकाश से जगमगा उठे। आज प्रदीपक गैस का स्थान बहुत कुछ बिजली की रोशनी ले रही है। एक समय ऐसा समझा जाता था कि गैस उद्योग का शीघ्र ही अंत हो जायगा, पर इसी बीच 1885 ई. में तापदीप्त मैंटल के प्रवेश से यह उद्योग फिर चमक उठा। पीछे कारब्युरेटेड जलगैस के आविष्कार से प्रकाश और ऊष्मा उत्पन्न करने की क्षमता में बहुत वृद्धि हो गई, जिससे यह उद्योग फिर पनपा।

कोयला गैस

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उत्पादक गैस

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उत्पादक गैस का उपयोग उद्योग धंधों में दिन दिन बढ़ रहा है। भट्ठे और भट्ठियों, विशेषत: लोहे और इस्पात तथा काँच की भट्ठियों, भभकों और गैस इंजनों को गरम करने में उत्पादक गैस का ही आजकल व्यवहार होता है।

जलगैस या नीली गैस

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कोयला गैस के साथ, मिलाकर जलगैस ईंधन में काम आती है। इससे बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन तैयार होती है और पेट्रोलियम तथा मेथिल ऐलकोहल का संश्लेषण भी होता है।

कार्बुनीकृत जलगैस

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जलगैस के साथ कुछ हाइड्रोकार्बन गैस मिली हो तो ऐसी गैस को कार्बुनीकृत जलगैस कहते हैं। आवश्यक हाइड्रोकार्बन गैस पेट्रोलियम तेल के भंजन से प्राप्त होती है। इसके जनित्र भी जलगैस के जनित्र से ही होते हैं। कार्बनीकृत जलगैस की ज्वाला बड़ी दीप्त होती है। हाइड्रोकार्बन के कारण इसमें गंध भी होती है। कार्बनीकृत जलगैस का विश्लेषण इस प्रकार है :

प्रतिशत आयतन

हाइड्रोजन 38.0

कार्बन मोनोक्साइड 35.0

मेथेन और एथेन 10.0

असंतृप्त हाइड्रोकार्बन 7.5

कार्बन डाइ-ऑक्साइड 3.5

नाइट्रोजन 6.0

गैस का कलरीमान प्रति घन फुट 500 ब्रिटिश ऊष्मा मात्रक होता है।

खनिज तेलों के भंजक आसवन से तैलगैस प्राप्त होती है। यह आसवन भभकों में संपन्न होता है। कोयला गैस की भाँति ही इस गैस का शोधन होता है और तब यह टंकियों में संग्रहीत होती है, अथवा सिलिंडर में दबाव से। इस प्रकार तैलगैस तैयार करने की विधि को "पिंटश विधि" कहते हैं। भारत की छोटी बड़ी प्रयोगशालाओं में यही गैस गरम करने के लिये प्रयुक्त होती है। साधारणतया मिट्टी का तेल अथवा डीज़ेल तेल इसके लिये उपयुक्त होता है। यदि इस गैस के साथ आक्सीजन अथवा वायु मिला दी जाय तो यह सस्ती पड़ती है और तापनशक्ति भी बढ़ जाती है। ऐसी गैस में मेथेन, एथिलीन, ऐसीटिलीन, बेंजीन आदि हाइड्रोकार्बन रहते हैं। ऐसे तो यह गैस बहुत धुआँ देती हुई दीप्त ज्वाला से जलती है, पर एक विशिष्ट प्रकार के ज्वालक में, जिसमें बड़े छोटे छिद्र से गैस निकलती है, यह बिना धुआँ उत्पन्न किए जलती है। ऐसी ज्वाला की तापन शक्ति ऊँची होती है। यदि इस गैस में थोड़ा ऐसटिलीन मिला दिया जाय तो गैस की प्रदीपक शक्ति और बढ़ जाती है। इस गैस को जलाने के लिये तापदीप्त मैंटलवाला ज्वालक भी बना है, जिससे बड़ी तेज रोशनी प्राप्त होती है।

वायुगैस

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वायु और कुछ वाष्पशील हाइड्रोकार्बनों, सामान्यत: पेट्रोल या पेट्रोलियम ईथर (क्वथनांक 35 डिग्री -60 डिग्री सें.), का मिश्रण भी प्रदीपन के लिये व्यवहृत होता है।

पेट्रोलियम-गैस

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पेट्रोलियम के भंजन और आसवन से कुछ गैसें प्राप्त होती है, जिनमें मेथेन, एथेन, प्रोपेन, नार्मल ब्यूटेन, आइसो ब्यूटेन और उनके तदनुरूपी ओलिफीन तथा पेंटेन रहते हैं। इनमें प्रोपेन, नार्मल और आइसो ब्यूटेन तथा उनके असंतृप्त संजात और ओलिफ़ीन सिलिंडर में भरकर अथवा टंकियों में रखकर बाहर भेजे जाते हैं। इन गैसों की प्राप्ति के लिय "संपीडन रीति" अथवा "अवशोषण रीति" प्रयुक्त होती है। अवशोषक तेल इन्हें अवशोषित कर लेता है और उसे गरम करने से गैसें निकल जाती हैं, जिनको ठंड़ाकर संघनन और संपीडन द्वारा अलग करते हैं। सावधानी से इसके प्रभावी आसवन द्वारा गैस प्राप्त करते हैं। प्रति वर्ग इंच 450 पौंड दाब पर टंकी-यानों में रखकर उपभोक्ताओं को देते हैं।

गैसों का यह मिश्रण घरेलू ईंधन में काम आता है। मोटर में भी यह जलता है। सड़कों की रोशनी भी इससे की जाती है।

अन्य गैसें

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हाइड्रोजन, आक्सिजन और ऐसीटिलीन भी प्रदीपन और तापन के लिये व्यवहृत होते हैं। इनका वर्णन अन्यत्र मिलेगा। पेट्रोलियम कूपों से निकली "प्राकृतिक गैस" भी प्रदीपन और तापन में काम आती है।

प्राकृतिक गैस-कोयले और खनिज तैलों के क्षेत्रों के कूपों से (कभी कभी ये कूप तैल क्षेत्रों से मीलों दूर रहते हैं) एक गैस निकलती है, जिसे "प्राकृतिक गैस" कहते हैं। कभी कभी यह गैस बड़े दबाव से निकलती है और कभी कभी इसे पंप से निकालना पड़ता है। सभी खनिज तैलों के कूपों से यह गैस निकलती है, पर कुछ ऐसे कूपों से भी गैस निकलती है जिनमें खनिज तैल नहीं होता।

गैस जब पहले पहल निकलती है तब उसमें मेथेन अधिक रहता है, पर धीरे धीरे मेथेन की मात्रा बढ़ती जाती है। ऐसी गैस में मेथेन और एथेन के सिवाय प्रोपेन, नार्मल ब्यूटेन, आइसोब्यूटेन, पेंटेन और कुछ अदाह्य पदार्थ रहते हैं। मेथेन और एथेन के वाष्प-दबाव इतने ऊँचे होते हैं कि वे व्यापारिक महत्व के नहीं हैं। पेंटेन का वाष्प दबाव इतना कम होता है कि गैस के रूप में उसका कोई मूल्य नहीं है, यद्यपि मोटर-ईंधन में यह मूल्यवान् होता है। अब केवल प्रोपेन, नार्मल ब्यूटेन और आइसोब्यूटेन रह जाते हैं, जो व्यापार की दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। प्राकृतिक गैस या तो शुद्ध प्रोपेन के रूप में या 50 प्रति शत प्रोपेन और 50 प्रति शत ब्यूटेन के मिश्रण के रूप में, अथवा शुद्ध नार्मल और आइसोब्यूटेन के रूप में व्यवहृत होती है।

प्राकृतिक गैस के पेट्रोल अंश (पेंटेन) को संपीडित और ठंड़ा कर अवशोषकों द्वारा निकाल लेते हैं। अवशोषक के रूप में ऊँचे क्वथनांकवाले खनिज तैलों, काठ कोयले या सिलिका का व्यवहार करते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक गैस से अमरीका में 1940 ई. में 232 करोड़ गैलन पेट्रोल प्राप्त हुआ था।

पेट्रोल निकाल लेने पर जो गैस बच जाती है उससे ईंधन का काम लेते हैं। जलाकर इससे कजली भी तैयार करते हैं, जो मुद्रण-स्याही और काले रंग के लिये सर्वोत्तम समझी जाती है। गरम करने से यह गैस कार्बन और हाइड्रोजन में विघटित भी हो जाती है। कोक गैस के साथ मिलाकर प्राकृतिक गैस घरेलू ईंधन में व्यवहृत होती है। उद्योग धंधों, विशेषत: कृत्रिम रबर बनाने में, यह ब्यूटाडीन में परिणत की जाती है।

1940 ई. में अमरीका में 2,672 करोड़ घन फुट प्राकृतिक गैस बिकी थी। यह गैस आधी तैल कूपों से और आधी गैस कूपों से प्राप्त हुई थी। ऐसी गैस का 89 प्रति शत पेट्रोल अंश निकाल लिया गया था।

गैस को उपभोक्ताओं के पास पहुँचाने के लिये टंकी यानों, टंकी वैगनों, इस्पात के सिलिंडरों और पीपों का उपयोग होता है। नल द्वारा भी गैस निकट के स्थानों पर पहुँचाई जाती है। परिवहन के लिये अमरीका में छोटे छोटे संयंत्र बने हैं, जिनमें तरलीकृत गैस दूर दूर तक भेजी जा सकती है। इस संयंत्र में गोल टंकियाँ 57 फुट व्यास की होती हैं, जिनका भीतरी तल कम कार्बनवाले (0.09 प्रति शत) और निकेलवाले (3.5 प्रति शत निकेल) इस्पात का और बाह्य टंकियाँ 62 फुट व्यास की होती है। दोनों टंकियों के बीच का रिक्त स्थान दानेदार काग से भरा रहता है। टंकी की गैस का ताप - 157 डिग्री सें. और दबाव 5 पाउंड रहता है। संयंत्र में संपीडक, एथिलीन और ऐमोनिया प्रशीतक और उद्वाष्पन संभार रहते हैं।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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